‘शहजादे! हमारे विश्वसनीय गुप्तचर काश्मीर से समाचार लाय हैं कि जहांपनाह नूरूद्दीन मुहम्मद जहाँगीर सख्त बीमार हैं और उनकी हालत काफी नाजुक है। किसी भी समय कुछ भी हो सकता है फिर भी वे ऐसी गंभीर हालत में काश्मीर से आगरा के लिए कूच कर गए हैं। हमारे गुप्तचरों ने सूचना दी है कि बादशाह हुजूर ताबड़तोड़ आगरा की तरफ बढ़ रहे हैं। वे चाहते हैं कि कोई अनहोनी घटे, उससे पहले वे आगरा पहुँच कर शहजादे शहरयार को अपने हाथों से मुगलिया तख्त पर बैठा दें।’
राठौड़ राजा सहसमल ने अपने फुफेरे भाई और अपने मित्र शहजादे खुर्रम के डेरे में उपस्थित होकर यह होश उड़ा देने वाली सूचना दी।
‘क्या कहते हैं महाराज?’ शहजादे खुर्रम के माथे पर चिंता की लकीरें उभरीं। उसने रेशमी कालीन बिछे अपने तख्त से खड़े होकर अपने मित्र का एक हाथ अपने हाथ में ले लिया और दोनों मित्र सदा की तरह एक ही तख्त पर बैठ गए। शहजादे ने नित्य की भांति अपना दांया हाथ महाराजा के बांयें कंधे पर रख लिया।
‘हमारे संदेशवाहक सत्य सूचना लाये हैं शहजादे।’ महाराजा ने उत्तर दिया।
‘लेकिन बादहशाह हुजूर तो हमें ही तख्त सौंपने वाले थे।’ शहजादे ने विचलित होकर कहा।
‘समझा तो ऐसा ही जाता रहा है शहजादे किंतु तिरिया और राजसिंहासन का घालमेल प्रायः बहुत कुछ उलट-पुलट देता है। अपने अंतिम समय में बादशाह हुजूर, नूरजहाँ बेगम की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करना चाहते।’
‘हम यहाँ बरसों से दक्खन के मोर्चे पर जमे रहकर, मुगलिया सल्तनत की बरकत और बादशाह हुजूर के इकबाल को बुलंदी पर पहुँचाने के लिए फतह पर फतह हासिल करते रहे और वहाँ बेगम नूरजहाँ बादशाह हुजूर की खिदमत में रहकर हमारे खिलाफ साजिशें रचती रहीं!’ शहजादे ने उद्वेलित होकर कहा।
‘ऐसा ही समझ लीजिये शहजादे, राजनीति इसी का नाम है।’
महाराजा का जवाब सुनकर शहजादे के माथे पर चिंता की लकीरें और भी गहरी हो गईं। पूरी मुगलिया सल्तनत में यह समझा और माना जाता था कि शहजादा खुर्रम ही बादशाह जहाँगीर का उत्तराधिकारी होगा। खुर्रम के राजपूत मित्रों को भी इसमें कोई संशय नहीं था किंतु जब काश्मीर से बादशाह की रुग्णता और उसके ताबड़तोड़ आगरा कूच के समाचार मिले तो खुर्रम तथा उसके राठौड़ मित्रों के चेहरे पर चिंता की लकीरें उगना स्वाभाविक ही था।
‘तो आप क्या सलाह देते हैं?’ खुर्रम ने बेचैन होकर पूछा।
‘आपको अभी और इसी समय आगरा के लिए कूच करना चाहिए।’
‘किंतु शाही आदेश के बिना मोर्चा छोड़ना तो बगावत माना जायेगा। बादशाह हुजूर की सांसों का तो क्या पता, कब तक चलती रहती हैं। यदि हम आगरा पहुँच गए और बादशाह हुजूर……।’ शहजादे ने जानबूझ कर अपनी बात अधूरी छोड़ दी। वह आगे के शब्दों का उच्चारण अपने मुँह से नहीं करना चाहता था।
‘मोर्चा हम संभालते हैं शहजादे, आप अपने संदेश-वाहक के हाथों बादशाह हुजूर को पत्र भिजवाईये कि हम आपके दुश्मनों की तबियत नासाज होने की खबर सुनकर आपकी खैरियत जानने के लिए आगरा आ रहे हैं। आप स्वयं भी आज ही आगरा के लिए कूच कर जाईये और मुनासिब समय देखकर आगरा में प्रवेश कीजिये। यहाँ हाथ पर हाथ धरकर बैठने से कुछ नहीं होगा।’
खुर्रम को अपने इस तेजस्वी मित्र की सलाह उचित जान पड़ी। उसने उसी समय अपने बख्शी को बुलाकर आगरा कूच की तैयारी करने के आदेश दिए। यह निश्चित किया गया कि दक्कन के मोर्चे पर केवल नाममात्र की सेना रखी जायेगी। सेना का बड़ा हिस्सा शहजादे के साथ आगरा जायेगा।
अभी शहजादा दक्षिण से कूच करने की तैयारियां कर ही रहा था कि उसे समचार मिला कि 28 अक्टूबर 1627 को बैरमकलां में बादशाह का इंतकाल हो गया। अब तो तत्काल प्रस्थान करना आवश्यक हो गया। तैयारियों के लिए समय ही नहीं बचा था। खुर्रम ने अपने श्वसुर आसफ खाँ को बुलाकर आज ही आगरा के लिए कूच करने के बारे में उसकी राय मांगी।
आसफ खाँ वैसे तो बेगम नूरजहाँ का माँ-जाया भाई था और भाई-बहिन ने मिलकर मुगलिया सल्तनत को मजबूती से अपने नियंत्रण में कर रखा था किंतु मुगलिया तख्त पर उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर आसफ खाँ और उसकी बहिन नूरजहाँ, दोनों एक दूसरे के विरुद्ध आ खड़े हुए थे। वर्षों से मुगलिया सल्तनत और बादशाह जहाँगीर को अपनी अंगुलियों पर नचा रही बेगम नूरजहाँ, अपने जंवाई शहरयार को जहाँगीर के उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित करना चाह रही थी जो कि नूरजहाँ का सौतेला पुत्र भी था। जबकि आसफ खाँ अपने जंवाई खुर्रम को तख्त का वारिस बनाने का प्रयास करता रहा था।
अब तक तो आसफ खाँ का पलड़ा हर तरह से भारी रहता आया था लेकिन बादशाह के आकस्मिक निधन, नूरजहाँ की पंजाब में मौजूदगी और खुर्रम की बरसों से दक्कन में नियुक्ति आदि कारणों से इस समय परिस्थितियाँ नूरजहाँ के पक्ष में जाती हुई दिखाई दे रही थीं। वह पंजाब में मौजूद थी और दिल्ली तथा आगरा के बिल्कुल निकट थी, ऐसी स्थिति में उसके लिए मुगलिया तख्त पर अधिकार कर लेना अत्यंत सरल था जबकि आसफ खाँ, दिल्ली और आगरा से हजारों कोस दूर दक्षिण के मोर्चे पर खुर्रम के साथ तैनात था।
परिस्थितियाँ इतनी विपरीत होने पर भी आसफ खाँ ने हार नहीं मानी। वह राजनीति का एक मंजा हुआ खिलाड़ी था। उसने अपने दामाद खुर्रम को सलाह दी कि वह आज ही आगरा के लिए कूच करे।
इसी के साथ आसफ खाँ ने खुर्रम को मुगलिया तख्त पर बैठाने के लिए एक गहरी साजिश रची। खुर्रम अपने श्वसुर की इस साजिश में सहर्ष सम्मिलित हो गया। वह समझ गया कि आगरा के तख्त तक पहुँचने के लिए साजिशें और हत्याएं ही उसका मार्ग खोल सकती हैं।
आसफ खाँ तथा खुर्रम ने तत्काल जहाँगीर के मरहूम शहजादे खुसरो के इकलौते फरजंद दावरबख्श को नया बादशाह घोषित कर दिया और अपने दूतांे को इस आशय का परवाना देकर तत्काल दिल्ली के लिए रवाना कर दिया। शहजादा दावरबख्श उस समय दिल्ली में मौजूद था। आसफ खाँ चाहता था कि नूरजहाँ के बैरमकलां से आगरा पहुँचने से पहले दावरबख्श दिल्ली और आगरा को अपने नियंत्रण में ले ले और स्वयं बादशाह होने की घोषणा करके नूरजहाँ का मार्ग रोक कर खड़ा हो जाए। आसफ खाँ ने आगरा और दिल्ली में मौजूद अमीरों और सरदारों को कीमती उपहार और संदेशे भेजकर कहलवाया कि वे शहजादे दावरबख्श का साथ दें। इस सेवा के बदले, उन्हें समय आने पर पुरस्कृत किया जायेगा।
आसफ खाँ की चाल सफल रही। उसका परवाना पाते ही शहजादे दावरबख्श के मन में आशाओं के सुप्त पंख प्रकट हो गए। उसने दिल्ली और आगरा में मौजूद अमीरों की सहायता से दिल्ली और आगरा को अपने नियंत्रण में ले लिया और स्वयं बादशाह बनकर जहाँगीर के तख्त पर बैठ गया। उसने आगरा में दरबार आयोजित करके अपने नाम का खुतबा पढ़वाया। उसी दिन मस्जिदों में उसके नाम की अजान दी गई और चारों ओर उसके नाम की दुहाई फेर दी गई।
जब नूरजहाँ ने ये समाचार सुने कि आसफ खाँ और शहजादे खुर्रम की सहमति से दावरबख्श तख्त पर बैठ गया तो उसने अपना सिर पीट लिया और वह बैरमकलां से आगरा अथवा दिल्ली आने की बजाय लाहौर के लिए मुड़ गई जहाँ पहुँचकर उसने अपने जंवाई तथा सौतेले पुत्र शहरयार को बादशाह घोषित करके मरहूम बादशाह नूरुद्दीन जहाँगीर का उत्तराधिकारी बना दिया।
आगे बढ़ने से पहले पाठकों को शहजादे दावरबख्श के बारे में थोड़ा बताते चलें। शहजादा दावरबख्श, जहाँगीर के सबसे बड़े एवं सबसे दुर्भाग्यशाली पुत्र खुसरो का बड़ा बेटा था। एक समय था जब खुसरो, मुगलिया राजनीति का सबसे ज्यादा चमकता हुआ सितारा था तथा बादशाह अकबर अपने इस पौत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था किंतु जब अकबर के बड़े बेटे तथा खुसरो के बाप सलीम ने मरणासन्न अकबर से अपने दादा हुमायूँ की तलवार छीन ली थी तब अकबर ने विवश होकर सलीम को ही अपनी पगड़ी भी सौंप दी थी और सलीम का बेटा खुसरो हाथ मलता हुआ रह गया था। जब सलीम जहाँगीर के नाम से बादशाह हुआ तो उसने अपने पुत्र खुसरो को पकड़कर उसकी आँखें फुड़वा दी थीं और उसे बुरहानपुर के किले में कैद कर लिया था।
जब खुर्रम ने अपने पिता जहाँगीर से बगावत की थी तब खुर्रम ने समझौता करने के बदले में अन्य वस्तुओं के साथ-साथ खुसरो को भी मांग लिया था तथा खुसरो को बुरहानपुर के किले में तड़पा-तड़पाकर मार डाला था। उसी दुर्भाग्यशाली खुसरो का पुत्र था दावरबख्श जो इस समय खुर्रम के कहने से अपनी सौतेली दादी नूरजहाँ और अपने सौतेले चाचा शहरयार को दिल्ली और आगरा से भगाकर स्वयं बादशाह के तख्त पर बैठ गया था।
वह जहाँगीर के सबसे बड़े पुत्र का सबसे बड़ा शहजादा होने के नाते स्वयं को मुगलों के तख्त का असली वारिस समझता था किंतु उसे मालूम नहीं था कि वह हिन्दुस्तान का बादशाह नहीं, अपितु मुगलों की खूनी राजनीति में एक छोटा सा बकरा मात्र था जिसे कुछ ही दिनों में खुर्रम द्वारा जिबह करके मुगलिया राजनीति की ईद मनाई जानी थी और इस समय खुर्रम उसे खिला-पिलाकर मोटा कर रहा था।
इधर उत्तर भारत में आसफ खाँ के बोए हुए बीजों में नित्य नए अंकुर फूट रहे थे और उधर आसफ खाँ अपने जवांई खुर्रम को लेकर ताबड़तोड़ आगरा की ओर बढ़ रहा था। गुजरात पहुँचने पर उसे ज्ञात हुआ कि एक ओर तो उसकी योजना के अनुसार शहजादे दावरबख्श ने आगरा और दिल्ली पर अधिकार करके अपने नाम की दुहाई फिरवा दी है और दूसरी ओर नूरजहाँ ने लाहौर पहुँचकर शहरयार को तख्त पर बैठा दिया है तो आसफ खाँ की बांछें खिल गईं। यही तो आसफ खाँ चाहता था। यदि नूरजहाँ और दावरबख्श एक साथ मिलकर खुर्रम और आसफ खाँ के विरुद्ध ताल ठोक कर खड़े हो गए होते तो खुर्रम गुजरात से आगे किसी भी हालत में नहीं बढ़ सकता था लेकिन मुगलिया राजनीति एक ऐसी म्यान थी जिसमें दो शहजादों की तलवारें कभी एक साथ नहीं रह सकती थीं और प्रायः दोनों ही टूट जाया करती थीं। चालाक आसफ खाँ ने बादशाहत रूपी म्यान में शहरयार और दावरबख्श नामक दो तलवारें एक साथ घुसा दी थीं, जिनका टूटना तय था।
गुजरात से आसफ खाँ ने अपनी साजिश का दूसरा चरण आरंभ किया। वह स्वयं सेना लेकर लाहौर की तरफ मुड़ गया और खुर्रम को उसके राजपूत मित्रों के साथ आगरा की ओर भेज दिया। इधर आसफ खाँ ताबड़तोड़ लाहौर की तरफ बढ़ा जा रहा था और उधर नूरजहाँ अपनी सरहदें और मोर्चे सजाने में लगी थी। समय कितना बदल गया था। एक समय यही नूरजहाँ और उसकी आँखों का तारा उसका भाई आसफ खाँ एक दूसरे पर जान छिड़कते थे।
नूरजहाँ की माँ अस्मत बेगम और नूरजहाँ के पिता एतिमादुद्दौला ने नूरजहाँ के माध्यम से ही आसफ खाँ की पुत्री अर्जुमन्द बानू बेगम का विवाह शहजादा र्खुरम से करवाया था ताकि मुगलिया सल्तनत पर भाई-बहिन की पकड़ मजबूत हो सके। इस सम्बन्ध के बाद पकड़ तो मजबूत हुई किंतु जब नूरजहाँ और आसफ खाँ के माता-पिता की मृत्यु हो गई तब नूरजहाँ ने अपने पहले पति शेर अफगन से उत्पन्न हुई पुत्री लाडली बेगम का विवाह जहाँगीर के अन्य पुत्र शहरयार से कर दिया। बस यहीं से दोनों भाई-बहिन अपने-अपने जंवाइयों को तख्त दिलवाने के लिए तत्पर हुए और एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे। आज हालात यहाँ तक आ पहुँचे थे।
आसफ खाँ ने लाहौर पहुँचकर शहरयार को बंदी बना लिया। नूरजहाँ ने भाई के कदमों पर गिरकर रहम की भीख मांगी किंतु आसफ खाँ कच्चा खिलाड़ी नहीं था। मुगलिया राजनीति ने उसे अपने दुश्मनों से सख्ती से निबटना सिखा दिया था। अतः सदियों से चली आ रही मुगल परम्परा के अनुसार आसफ खाँ ने शहरयार की आँखें फोड़कर उसे कैद में डाल दिया।
उधर खुर्रम अपने मित्रों को लेकर आगरा पहुँचा। खुर्रम के आगरा कूच से पहले आसफ खाँ, आगरा में बैठे दावरबख्श को यह संदेश भिजवाना नहीं भूला था कि नए बादशाह को मुबारकबाद देने और उनके हाथ मजबूत करने के लिए दावरबख्श के चचा शहजादे खुर्रम स्वयं आगरा आ रहे हैं, सच्चे दोस्त की तरह उनका इस्तकबाल करिये। चंगेजी खून के असली वारिस बादशाह दावरबख्श की सल्तनत को यदि कोई शख्स मजबूती दे सकता है तो वह केवल उसका चचा खुर्रम ही है।
अनायास ही हाथ आए मुगलिया तख्त की गर्मी से उत्साहित बादशाह दावरबख्श, आसफ खाँ के पत्र के झांसे में आ गया। उसने अपने चचा खुर्रम का स्वागत करने के लिए अपने के दिल के ही नहीं, अपितु आगरा के दरवाजे भी खोल दिए। खुर्रम को इसी अवसर की तलाश थी। आगरा में घुसते ही वह अपने असली रंग में प्रकट हो गया और इतिहास ने एक बार फिर अपने आप को दोहराया। मुगलों के जिस तख्त पर बैठने के लिए जहाँगीर ने अपने पुत्र खुसरो की आँखें निकलवाकर बुरहानपुर के दुर्ग में कैद करके मरवा दिया था
आज मुगलों के उसी तख्त पर बैठने के लिए जहाँगीर के पुत्र खुर्रम ने खुसरो के पुत्र दावरबख्श को पकड़कर मौत के घाट उतार दिया। उधर खुर्रम के श्वसुर आसफ खाँ ने भी अपनी बहन नूरजहाँ के पुत्र शहरयार को मौत की घाटी में धकेलकर सदा के लिए खुर्रम का रास्ता साफ कर दिया था।
खुर्रम को बादशाह बनने के लिए, अपने कुल के अठारह मुगलों का कत्ल करना पड़ा। वे सब या तो खुर्रम के भाई थे या उसके चाचा थे। अब अगले 28 साल तक, जब तक कि उसके अपने शहजादे जवान होकर बगावत पर न उतर आएं, खुर्रम निष्कंटक होकर हिन्दुस्तान पर शासन कर सकता था। खुर्रम बड़ी शान से मुगलों के खूनी तख्त पर बैठा। उसने अपना नया नाम रखा- ”शाहजहाँ।” इसी नाम से उसने अपना खुतबा पढ़वाया जिसका अर्थ होता है पूरी दुनिया का बादशाह। खुर्रम की ताजपोशी पर राठौड़ों के एक चारण ने कवित्त लिखा-
सबल सगाई ना गिणै, सबलां में नीं सीर।
खुर्रम अठारा मारिया, कै काका, कै बीर।
अर्थात् सामर्थ्यवान व्यक्ति कभी किसी से अपना सम्बन्ध नहीं मानता। किसी भी सामर्थ्यवान की सामर्थ्य में किसी अन्य व्यक्ति का हिस्सा नहीं होता। ठीक वैसे ही, जैसे खुर्रम ने अठारह चााचा और भाइयों का कत्ल किया।