अभी शाहजहाँ को आगरा के तख्त पर बैठे हुए कुछ ही दिन हुए होंगे कि दक्कन में जाफराबाद के मोर्चे पर डटे हुए महाराजा सहसमल को विषम ज्वर ने घेर लिया। लाख उपचार के उपरांत भी महाराजा सहसमल ठीक नहीं हो सका। महाराजा के मंत्रियों ने उसके रोगग्रस्त होने की सूचना राजधानी किशनगढ़़ भिजवाई।
सूचना पाते ही छोटी रानी सिसोदिनी जाफराबाद के लिए रवाना हुई किंतु पति के अंतिम दर्शन करना उसके भाग्य में नहीं लिखा था। उसके जाफराबाद पहुँचने से पहले ही महाराजा सहसमल ने आखिरी सांस ली और केवल तीस साल की आयु में किशनगढ़ का राजसिंहासन खाली छोड़कर, सदैव के लिए आँखें मूंद लीं।
रानी ने जाफराबाद पहुँचकर पति की मृत देह को अपने अंक में भर लिया और अग्नि की लपटों में बैठकर पतिलोक में पहुँच गई। जब ये समाचार किशनगढ़ पहुँचे तो बड़ी महारानी हाड़ीजी भी अग्नि रथ में बैठकर अपने पति से जा मिली।
महाराजा सहसमल के कोई पुत्र नहीं था। इसलिए उसके छोटे भाई अर्थात् किशनगढ़ रियासत के संस्थापक महाराजा किशनसिंह के द्वितीय पुत्र जगमालसिंह को राजसिंहासन पर बैठाया गया। नया महाराजा जगमालसिंह अपने स्वर्गीय भाई सहसमल से आयु में दो साल ही छोटा था।
शाहजहाँ ने अपने इस ममेरे भाई को पन्द्रह सौ जात तथा आठ सौ सवार का मनसब देकर अपनी चाकरी में रख लिया और आदेश दिया कि महाराजा सहसमल जो कार्य अधूरा छोड़ गए हैं उसे आप पूरा करें। यह आदेश मिलने पर महाराजा जगमालसिंह अपने छोटे भाई भारमल को साथ लेकर जाफराबाद के लिए रवाना हो गया।
उन दिनों मुगलों ने राजपूत शासकों के बारे में यही नीति अपनाई हुई थी। कोई भी राजपूत शासक, मुगल बादशाह का कितना भी निकट वैवाहिक अथवा रक्त सम्बन्धी क्यों न हों, वह अपनी राजधानी में कुछ माह के लिए ही रह सकता था। उसे अपना पूरा जीवन अपने कुटम्बियों, भाइयों और सम्बन्धियों सहित युद्ध के मोर्चे पर ही व्यतीत करना पड़ता था।
यदि किसी राजा को युद्ध के मोर्चे से मुक्ति मिलती थी तो भी उसे बादशाह की चाकरी में दिल्ली अथवा आगरा में रहना पड़ता था। वह अपने राज्य अथवा राजधानी में केवल तभी जा सकता था जब बादशाह ने विशेष अनुकम्पा करके विधिवत् रूप से भरे दरबार में उसकी छुट्टी मंजूर की हो, वह भी केवल कुछ माह के लिए। क्योंकि विशुद्ध राजनीति ही मुगल बादशाह और हिन्दू शासकों के मध्य बने सम्बन्धों का वास्तविक आधार थी।
महाराजा जगमालसिंह ने अपने स्वर्गीय भाई के स्थान पर जाफराबाद का मोर्चा संभाला। एक दिन शाम के समय वह अपने डेरे में अपने पलंग पर अधलेटी मुद्रा में दिन भर की थकान उतारने का प्रयास कर रहा था कि ड्यौढ़ीदार ने भीतर आकर सिर झुकाकर कहा-‘घणीखम्मा अन्नदाता! एक राजपूत आपके श्रीचरणों के दर्शनों की अनुमति चाहता है।’
‘क्यों?’ महाराजा ने विरक्त मन से पूछा।
‘वह कहता है कि अपने आने का अभिप्राय केवल महाराज के समक्ष कहेगा।’
‘कहाँ से आया है?’ महाराजा ने फिर पूछा।
‘कहता है नवाब अमानुल्ला की चाकरी में था।’
‘ठीक है, ले आ लेकिन सावधान रहना। यह परदेस है, कोई छल भी हो सकता है।’
‘जो होकम महाराज।’
कुछ ही क्षणों बाद ड्यौढ़ीदार एक लम्बे-चौड़े राजपूत युवक को अपने साथ ले आया। उसकी गहरी काली दाढ़ी, लाल आँखें और तनी हुई भौहें, उसकी आयु और झगड़ालू प्रवृत्ति का परिचय दे रही थीं। महाराजा अपने तख्त पर उठंग होकर लेटा हुआ था। वह वैसे ही लेटा रहा।
‘नगणेचिया माता की दुहाई है महाराज, मैं आपकी में शरण हूँ।’ राजपूत युवक धरती पर गिर गया। उसने अपने दोनों हाथ महाराजा के पैरों पर टिका दिए।
‘क्या बात है, क्या चाहता है?’
‘आपके श्री चरणों में जगह चाहता हूँ महाराज।’
‘क्या नाम है?’
‘नाम तो पृथ्वीपति आपका है, इस अकिंचन का क्या नाम, रगों में रजपूती खून दौड़ता है। कुल से राठौड़ हूँ। क्षत्रिय धर्म के निर्वहन के लिए नवाब अमानुल्ला की सेवा में था किंतु अब नवाब मेरे प्राण छीन लेना चाहता है। आप राठौड़ों के वल्लभ हैं, सो जीवन रक्षा की लालसा लेकर आया हूँ।’ युवक ने धरती से खड़े होकर कहा।
‘नवाब तेरे प्राण क्यों लेना चाहता है?’
‘वह राजपूतों के रक्त को गालियाँ दे रहा था, मुझे सहन नहीं हुआ। मैंने भी पलट कर नवाब को खरी-खोटी सुनाई। इस कारण वह मेरे प्राणों का प्यासा हो गया। किसी तरह प्राण लेकर भाग आया हूँ।’
‘राजपूत होकर प्राणों से इतना मोह! नवाब पर टूट क्यों नहीं पड़ा?’
‘प्राणों का मोह नहीं महाराज। कायरों की तरह प्राण गवाऊँ तो नागणेचिया माता का पूत न कहलाऊँ। राजपूत के प्राण तो हैं ही जाने के लिए किंतु युद्ध में तलवार चलाता हुआ मरना चाहता हूँ। कायरों की तरह हथकड़ियों में जकड़ा हुआ रहकर नहीं।’
‘ठीक है समय आने पर तेरी परीक्षा लूंगा, अभी तो मेरी खास ड्यौढ़ी में रह। ड्यौढ़ी के सिपाहियों के साथ खा-पी। जिस दिन ड्यौढ़ीदार को तुझसे शिकायत हो या तुझे ड्यौढ़ीदार से शिकायत हो जाये, खुद ही ड्यौढ़ी छोड़कर भाग जाना, मुझे अपनी सूरत मत दिखाना।’
‘जो होकम महाराज, न तो ड्यौढ़ीदार को मुझसे शिकायत होगी, न मैं ड्यौढ़ी छोड़कर भागूंगा। किसी भी दिन आजमा लेना, सेवक पसीने की जगह खून बहाता हुआ दिखाई देगा।’ इस बार युवक ने महाराजा को राजपूती ढंग से जोहार की और महाराजा के डेरे से बाहर हो गया।
युवक के चले जाने के बाद काफी देर तक महाराजा यूं ही विचारों में मग्न बैठा रहा। कैसा युवक है यह! लगता तो स्पष्ट वक्ता है। हो सकता है कि सही कह रहा हो, स्पष्ट बोलने के कारण ही नवाब उसके प्राण छीनने पर उतारू हो गया हो किंतु क्या एक अनजान युवक को इस तरह अपनी खास ड्यौढ़ी पर रखना उचित होगा! कहीं कोई छल न हो! महाराजा काफी देर तक विचार करता रहा।
आखिर उसने ड्यौढ़ीदार को फिर से बुलाकर निर्देश दिया कि इस युवक की चेष्टाओं पर दृष्टि रखी जाए। यह कहाँ जाता है, क्या कहता है और क्या करता है? यहाँ आने का इसका वास्तविक उद्देश्य क्या है?
अभी महाराजा, ड्यौढ़ीदार को निर्देश दे ही रहा था कि एक सिपाही ने आकर निवेदन किया कि नवाब अमानुल्ला का वजीर बाहर ड्यौढ़ी पर हाजिर है और डेरे के भीतर आने की अनुमति चाहता है। महाराजा ने उसे भीतर बुलवा लिया। वजीर ने अदब से आकर महाराजा का अभिवादन किया-‘आदाब अर्ज है हुजूर।’
‘आइये मियाँजी, तशरीफ ले आइये।’ महाराजा उसके आने से पहले ही तख्त पर संभल कर बैठ गया था।
यूं तो किशनगढ़ रियासत बहुत छोटी रियासत थी और अमानुल्ला के अधिकार में किशनगढ़ से बड़ी कई जागीरें हर समय रहा करती थीं फिर भी उन दिनों हिन्दुस्तान में किशनगढ़ के राजाओं का रुतबा बहुत था। बड़े से बड़े राजा, अमीर और नवाब की हिम्मत न थी कि कोई उनसे धृष्टता कर सके। यही कारण था कि नवाब ने अपने किसी अन्य अधिकारी को न भेजकर अपने खास वजीर को महाराजा की सेवा में भेजा था। वजीर, महाराजा के तख्त के समक्ष रेशमी कपड़े से ढकी एक चौकी पर बैठ गया।
‘नवाब साहिब जनाब अमानुल्ला हुजूर ने महाराज की सेवा में दरख्वास्त भिजवाई है।’
‘कैसी दरख्वास्त वजीर साहब।’
‘नवाब साहब ने सुना है कि उनका एक गुलाम उनके खेमे से भागकर हुजूर के डेरे में आ छुपा है। नवाब साहब ने दरख्वास्त करवाई है कि आप उस गुलाम को फिर से हमें सौंप दें।’
‘क्या आप किसी राजपूत युवक की बात कर रहे हैं?’
‘आप बजा फर्माते हैं हुजूर। वह लौण्डा राजपूत नौजवान ही है।’
‘लेकिन राजपूत किसी के गुलाम नहीं होते, न किसी के लौण्डे होते हैं। अवश्य ही आपको कोई गलत फहमी हुई है।’ महाराजा ने बिना एक भी क्षण गंवाए उत्तर दिया।
‘अभी मैंने खुद उसे आपकी ड्यौढ़ी पर बैठे हुए देखा है हुजूर।’
‘अवश्य देखा होगा किंतु राजपूत किसी के गुलाम या लौण्डे नहीं होते।’
‘वह नौजवान, नवाब साहब की खास चाकरी में रहने वाला उनका लौण्डा है।’
‘देखो बड़े मियाँ! ये लौण्डा-लौण्डिया आपके यहाँ होते होंगे, हमारे लिए तो सारे राजपूत हमारे भाई हैं। हमारे भाई किसी नवाब के गुलाम या लौण्डे नहीं हो सकते। जा कर कह दीजिये अपने नवाब साहब से।’ महाराजा ने उत्तेजित होकर कहा।
‘गुस्ताखी मुआफ हो राजा साहब। एक अदने से लौण्डे के लिए क्यों इतनी बात बढ़ाते हैं, नवाब साहब सुनेंगे तो बहुत बुरा हो जायेगा।’
‘इससे अधिक बुरा और क्या होगा बड़े मियाँ जो आप हमारे सामने बैठकर इतनी देर से बकवाद किए जा रहे हैं और हम आपके नवाब साहब का लिहाज करके सुने जा रहे हैं। अब हमारे किसी भाई के लिए गुलाम और लौण्डे जैसे शब्द काम में न लेना, हम भूल जाएंगे कि नवाब साहब हमारे मित्र हैं और आप हमारे बुजुर्गवार हैं।’ महाराजा ने अपनी तलवार की मूठ पर हाथ धरकर कहा।
‘मैं अब भी कहता हूँ राजा साहब कि आप अभी नौजवान हैं, सियासी मसलों को नहीं समझते, नवाब साहब और मैं दोनों ही आपके खैरख्वाह हैं, आपसे उम्र और तुजुर्बे में भी बड़े हैं। वह लौण्डा नवाब साहब की तौहीन करके भागा है, उसकी जान कतई नहीं बख्शी जायेगी। आप इजाजत दें तो मैं यहीं आपके सामने उसकी गर्दन उड़ाकर सारा फसाद खत्म कर देता हूँ।’ वजीर सचमुच बड़ा ही घाघ किस्म का आदमी था। महाराजा की धमकियों का उस पर तनिक भी असर नहीं पड़ा।
‘खामोश! बदजुबान वजीर। अपनी जान की खैर चाहता है तो तू अभी हमारी आँखों के सामने से दूर हो जा।’ महाराजा क्रुद्ध होकर एक झटके के साथ पलंग से उठकर खड़ा हो गया और उसने अपनी तलवार, म्यान से बाहर खींच ली।
ठीक इसी समय महाराजा का छोटा भाई राजकुमार भारमल भी डेरे में आ गया। उसने दोनों के बीच यह तनातनी होते हुए देखी तो वह भी तलवार सूंतकर महाराजा और वजीर के बीच आ खड़ा हुआ। अब वजीर की समझ में आ गया कि महाराजा निरी धमकियां नहीं दे रहा है, यदि अब वह एक शब्द भी बोला तो उसका सिर सचमुच ही धड़ पर नहीं बचेगा। इसलिए वह उठकर खड़ा हो गया और जाते-जाते बोला-‘जैसी आपकी मरजी राजा साहब, हमें भी मिट्टी का न समझियेगा।’
जैसी कि महाराजा आशा कर रहा था, अगले दिन का सूरज निकलते ही नवाब का परवाना आ पहुँचा। नवाब भी निरा ढीठ ही था। उसने हर एक शब्द चालाकी की स्याही में डुबोकर लिखा था-
‘जनाब महाराजा साहब! इस नाचीज का आदाब कुबूल करें। आप ऐत्मात रखें कि किशनगढ़ वाले हमें अपनी जान से भी ज़ियादा अजीज हैं। हम चाहते थे कि यह खामखां की बात आपके और हमारे बीच न हो किंतु हमारे नेकदिल काबिल वज़ीर ने इत्तिला दी है कि आप हमसे झगड़ा करने पर ही आमादा हैं। हमने तो कभी जान-बूझकर या अनजाने में आपका बुरा न तो चाहा, न किया। फिर न जाने क्यों आप दुश्मनों के जैसा रवैया अख्तियार करके बैठे हैं! हम आपके सच्चे खैरख्वाह हैं। इसलिए एक बार फिर आपसे अर्ज करते हैं कि या तो हमारे उस नमक हराम लौण्डे को जो भागकर आपकी पनाह में चला गया है, इसी क्षण लौटा दें या फिर तैयार रहें हम अपने उस नमक हराम लौण्डे को लेने आ रहे हैं।’
पत्र में ‘लौण्डा’ शब्द पढ़कर महाराजा बुरी तरह तिलमिला गया। वह समझ गया कि इस शब्द का प्रयोग वजीर के कहने पर महाराजा को चिढ़ाने के लिए खास तौर पर किया गया है। भले ही नवाब अमानुल्ला की जागीरें किशनगढ़ रियासत से कितनी ही बड़ी क्यों न हों, उसकी सेनाओं के आकार भी कितने ही बड़े क्यों न हों, उसके जैसे नवाबों को राठौड़ राजा अपनी तलवारों की धार पर धरते आए थे।
अब एक ओर तो महाराजा अपनी शरण में आए नौजवान को किसी भी कीमत पर सिर कटने के लिए छोड़ने को तैयार नहीं था तो दूसरी ओर मामला महाराजा के निजी मान-अपमान का बन गया था। अपने स्वर्गीय पिता महाराजा किशनसिंह का उदाहरण महाराजा जगमालसिंह के समक्ष था। अपने पिता के समय के कुछ पुराने दृश्य, दीवार पर उकेरे गए चित्रों की भांति महाराजा जगमालसिंह की आँखों के समक्ष उभरने लगे। उन दिनों वह पन्द्रह साल का किशोर ही था फिर भी उन दिनों की स्मृतियाँ उसके मस्तिष्क में आज भी उसी तरह ताजा थीं-
जोधपुर नरेश सूरसिंह के वकील गोविंददास ने महाराजा सूरसिंह और महाराजा किशनसिंह के भतीजे गोपालदास को मार डाला था। महाराजा किशनसिंह को आशा थी कि इस अपराध के लिए महाराजा सूरसिंह, गोविंददास को मरवा देंगे परंतु महाराजा सूरसिंह ने वकील गोविंददास की योग्यता का विचार करके ऐसा नहीं किया और चुप लगा गए। तब महाराजा किशनसिंह ने अपने भतीजे का बदला लेने का निश्चय किया।
इस घटना के कुछ ही दिन बाद बादशाह जहाँगीर अजमेर आया। तब जोधपुर एवं किशनगढ़ के राजाओं को भी अपनी सेनाओं के साथ पुष्कर पहुँचने के निर्देश दिए गए। दोनों राजा अपनी-अपनी सेनाओं के साथ पुष्कर में खेमे गाढ़कर बैठ गए। महाराजा किशनसिंह ने अपने भतीजे की हत्या करने वाले से बदला लेने का अच्छा अवसर जानकर एक रात अपने अनुचरों के साथ, गोविंददास के डेरे पर जाकर उसे मार डाला और उसी समय पुष्कर से किशनगढ़ के लिए कूच कर गए।
महाराजा सूरसिंह का पुत्र गजसिंह इसी अवसर की तलाश में था। वह चाहता था कि उसका चाचा किशनसिंह जो देखते ही देखते राजकुमार से राजा बन गया है, कोई ऐसी गलती करे कि वह बादशाह जहाँगीर की दृष्टि में गिर जाए और वह किशनसिंह को मारकर उसका किस्सा खत्म कर दे। इस दृष्टि से कुंवर गजसिंह के लिए यह एक अच्छा अवसर था। इसलिए कुंवर गजसिंह ने तत्काल ही अपनी सेना लेकर अपने चाचा महाराजा किशनसिंह का पीछा किया और किशनगढ़ पहुँचने से पहले ही महाराजा किशनसिंह को तलवार के घाट उतार दिया।
जब महाराजा किशनसिंह अपने मृत भतीजे की हत्या का बदला लेने के लिए बादशाह जहाँगीर की परवाह किए बिना, अपने प्राण न्यौछावर कर सकते थे तो फिर उनका ही पुत्र होकर जगमालसिंह ऐसा कैसे कर सकता है कि उसकी शरण में आए हुए युवक को दुश्मन उसकी ड्यौढ़ी पर से खींच कर ले जाए और जगमालसिंह कायरों की तरह ऐसा होते हुए देखता रहे!
इन सब विचारों ने महाराजा जगमालसिंह को नवाब अमानुल्ला का रास्ता रोककर खड़ा होने की राह दिखा दी। महाराजा ने उसी क्षण अपना दूत अमानुल्ला के पास भेजकर कहलवाया- ‘घमण्डी नवाब! तू मेरी ड्यौढ़ी की ओर आने का साहस मत करना, नहीं तो चीर कर धर दिया जायेगा। वहीं धीरज धर कर बैठा रह। हम ही अपने जोताजोत हाथी पर बैठकर आते हैं।’
महाराजा के संकेत से युद्ध का धौंसा बजने लगा और राजपूत सिपाही युद्ध के लिए सजने लगे। उनका तो जन्म ही इसीलिए हुआ था। उन्हें इस युद्ध में नहीं तो किसी और युद्ध में अपने स्वामी के लिए अपने प्राण देने ही थे। इसीलिए तो उनके परिवार को राजा के रसोड़े से रोज पेट भर बाजरी का पेटिया मिलता था। उस पेटिये का मूल्य तो चुकाना ही था। राजपूत सिपाहियों पर केवल पेटिये का ही मूल्य नहीं चढ़ा हुआ था, रक्त का भी कर्ज था। वह कर्ज भी रण में रक्त बहाकर ही चुकता हो सकता था।
थोड़ी ही देर में राजपूत सैनिक धौंसा और रणभेरी बजाते हुए अपने डेरों से बाहर निकले और नवाब अमानुल्ला के डेरों की तरफ बढ़ने लगे। उधर से नवाब भी अपने सिपाहियों के साथ डोंगी पीटता हुआ ताबड़तोड़ चला आ रहा था। उसे यह सोच-सोच कर आश्चर्य होता था कि मुगलों के टुकड़ों पर पल रहे मुट्ठी भर राठौड़ों का छोटा सा सरदार, मुगलिया सल्तनत के इतने बड़े अमीर के साथ ऐसी टुच्ची हरकत कैसे कर सकता है!
नवाब को मालूम था कि शहजादे खुर्रम और किशनगढ़ का मरहूम राजा सहसमल, गाढ़े दोस्त हुआ करते थे किंतु वह यह भी जानता था कि अब खुर्रम शहजादा नहीं है, बादशाह है, उसे मुगलिया सल्तनत को देखना है न कि अपने मरहूम दोस्त के भाई को।
नवाब यह भी जानता था कि आज की तारीख में बादशाह के लिए नवाब अमानुल्ला बहुत महत्वपूर्ण है न कि मुट्ठी भर राठौड़ों का यह छोटा सा सरदार। यही कारण था कि नवाब, महाराजा जगमालसिंह को मच्छरों के सरदार की तरह तुच्छ मानकर तेजी से बढ़ा चला आ रहा था।
जब राठौड़ों की सेना ने नवाब के सिपाहियों को देखा तो हाथ में तलवारें लेकर और भी तेज गति से उनकी ओर दौड़ पड़े। कुछ ही देर में दोनों दलों में जोरदार टक्कर हुई। देखते ही देखते नदी का नीरव तट युद्ध के भयानक शब्द से भर गया। दोनों ही ओर के सिपाही युद्ध के उन्माद में चिल्लाने लगे। चारों ओर से मारो-मारो की ध्वनि आने लगी। घोड़ों, हाथियों और पैदल सिपाहियों की ठोकरों से उठी धूल आकाश में सब तरफ फैल गई।
थोड़ी देर में घायल सिपाहियों का चीत्कार भी उभरने लगा। सूण्ड कटे हुए हाथी चिंघाड़ने लगे और पीड़ा से बिलबिला कर युद्ध क्षेत्र में पैदल सिपाहियों को रौंदते हुए एक ओर से दूसरी ओर भागने लगे। जिन घोड़ों को कल तक मालिश और खुर्रा करके मजबूत बनाया जाता था, उनके क्षत-विक्षत शरीरों से मैदान पटने लगा। राजा के रसोड़े से दो वक्त की रोटी का पेटिया पाने वाले राजपूत सिपाही, अपने स्वामी के लिए प्राण-प्रण से जूझ रहे थे।
आकाश में स्तब्ध होकर खड़े सूर्यदेव अस्ताचल को जाने से पहले ही इस युद्ध का कोई परिणाम निकलते हुए देखना चाहते थे। उनकी इच्छा संध्या होने से कुछ क्षण पूर्व ही पूरी हुई। नवाब अमानुउल्ला और उसका बदजुबान वजीर मैदान छोड़कर भाग गए। राजपूत सिपाहियों ने नवाब की सेना का कोई सिपाही युद्ध के मैदान में जीवित नहीं छोड़ा था। या तो वे मार डाले गए थे या फिर वे युद्ध के मैदान से प्राण लेकर भाग गए थे।
दूसरी ओर राजपूत सिपाहियों के क्षत-विक्षत अथवा मृत शरीर रणक्षेत्र में पड़े अपनी विजय गाथा कह रहे थे। शरणागत-वत्सल राठौड़-कुल-वल्लभ महाराजा जगमालसिंह की विजय हो चुकी थी। जब रश्मिरथी ने युद्ध के मैदान में जीवित बचे राजपूतों का विजयघोष सुना तो अपने अश्वों की त्वरा खींची। न केवल रश्मिरथी की अपितु उनके सातों अश्वों की आँखें यह देखकर नम थीं कि न केवल महाराजा जगमालसिंह घायल होकर मरणासन्न है अपितु उसका छोटा भाई भारमल भी युद्ध में बुरी तरह घायल होकर अंतिम सांसें गिन रहा है।
युद्ध समाप्त हुआ जानकर किशनगढ़ के सरदार अपने स्वामियों के घायल शरीरों को लेकर डेरे पर पहुँचे। शरणागत राजपूत युवक अब भी महाराजा की ड्यौढ़ी की रक्षा पर सन्नद्ध था। उसने पुष्पहारों से विजयी महाराजा के क्षत-विक्षत शरीर का स्वागत किया। महाराजा की देह में प्राण अभी शेष थे, शरणागत को सुरक्षित देखकर महाराजा के मुख मण्डल पर क्षीण मुस्कान प्रकट हुई और उसी क्षण उसके प्राण पंखेरू कूच कर गए। उसी रात महाराजा के अनुज भारमल ने भी अपने अग्रज का अनुकरण किया और उसके प्राण पंखेरू भी निविड़ अंधकार में अपने भाई को ढूंढते हुए अनंत यात्रा पर निकल लिए।