गुहिल की आठवीं पीढ़ी में बापा रावल नामक राजा हुआ जो मेवाड़ के इतिहास में वोप्प, बप्प, बाप्पा, बप्पक तथा बाष्प आदि नामों से विख्यात है। इस राजा का नाम, मेवाड़ के बहुत से शिलालेखों, दानपत्रों एवं ख्यातों आदि में मिलता है। श्यामलदास के अनुसार ‘बापा’ महेन्द्र नामक राजा की उपाधि थी। डी. आर. भण्डारकर ने खुंमाण को बापा माना है। टॉड ने कुंभलगढ़ अभिलेख में शील के स्थान पर बापा का नाम होने के कारण शील को बापा माना है।
ओझा ने कालभोज को बापा माना है जबकि गोपीनाथ शर्मा इसे सही नहीं मानते। कर्नल टॉड ने ई.727 में बापा का जन्म होना तथा 15 वर्ष की आयु (अर्थात् ई.742) में उसके द्वारा चित्तौड़ का दुर्ग लिया जाना माना है। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने ई.712 में बापा रावल का जन्म होना एवं ई.734 में चित्तौड़ का दुर्ग लिया जाना अनुमानित किया है। श्यामलदास ने बापा रावल द्वारा ई.753 में सन्यास ग्रहण किया जाना स्वीकार किया है।
बारहठ कृष्णसिंह ने भी बापा रावल द्वारा मेवाड़ राज्य की स्थापना वि.सं. 791 (ई.734) में की जानी स्वीकार की है।
इस राजा द्वारा चलाया गया गया सोने का एक सिक्का अजमेर से मिला है, जिस पर राजा का नाम ‘श्रीवोप्प’ अंकित है। इस सिक्के पर नदी, मछली, गाय, बछड़ा, त्रिशूल, शिवलिंग, नंदी, लेटा हुआ पुरुष, सूर्य, छत्र एवं चंवर अंकित हैं। यह सिक्का ही बापा रावल के सम्बन्ध में, बापा के काल का एकमात्र प्रमाण है।
कर्नल टॉड ने ख्यातों को आधार बनाकर बापा का इतिहास निर्धारित करने का प्रयास किया है। टॉड के अनुसार जब बापा तीन साल का था, बापा का पिता, ईडर के भीलों के आक्रमण में मारा गया। इस कारण एक ब्राह्मण ने बापा रावल का पालन किया। कुछ समय बाद बापा, हारीत नामक साधु के सम्पर्क में आया जिसकी सेवा करने से बापा को गड़े हुए धन का पता एवं राज्य प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
हारीत ऋषि के आदेश से बापा ने गड़े हुए धन से सेना एकत्रित करके चित्तौड़ के राजा मान मोरी (मौर्य राजा मान) पर आक्रमण किया तथा चित्तौड़ का दुर्ग प्राप्त किया। मुहता नैणसी तथा अन्य ख्यातकारों ने भी इसी प्रकार की मिलती-जुलती कथायें लिखी हैं। ओझा ने इस तरह की कहानियों को मिथ्या मानते हुए लिखा है कि गुहिलों का राज्य गुहिल के समय से निरंतर चला आ रहा था। नागदा उनकी राजधानी थी और उसी के निकट उनके इष्टदेव एकलिंगजी का मंदिर था।
यदि ख्यातों में आई हुई कथाओं में से, हारीत ऋषि द्वारा विमान में बैठकर स्वर्ग को जाते समय बापा रावल के मुंह में पान थूकने तथा पान मुंह में नहीं गिरकर बापा के पैरों के पास गिरने , बापा द्वारा 12 वर्ष तक राष्ट्रसेना देवी की तपस्या करके राज्य पाने, हारीत ऋषि द्वारा बापा को गड़ी हुई स्वर्ण मुद्राओं का पता बताने एवं बापा द्वारा अपने नाना मान मोरी का राज्य लेने आदि चमत्कारिक अंशों को निकाल दिया जाये तो भी बप्पा रावल के सिक्के पर बने चिह्न इस बात की पुष्टि करने के लिये पर्याप्त हैं कि ‘कुटिला नामक नदी के तट पर, त्रिशूलधारी एवं नंदी की सवारी करने वाले भगवान एकलिंग के समक्ष, सूर्यवंशी राजा बापा रावल साष्टांग प्रणाम कर रहा है जो कि छत्र एवं चंवर धारण करता है तथा जो हारीत ऋषि की गाय को चराता है।’
सोने का सिक्का अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि बापा रावल के पास अपने पूर्वजों से अधिक शक्ति एवं सम्पदा थी। क्योंकि गुहिल तथा उसके वंशजों ने चांदी के सिक्के चलाये। गुहिल के वंशज राजा शील ने ताम्बे का सिक्का चलाया जबकि बापा रावल ने सोने का सिक्का चलाया।
बापा द्वारा गुहिलों के चित्तौड़ राज्य की स्थापना
बापा रावल का वास्तविक नाम कालभोज था किंतु चित्तौड़ में गुहिल राज्य की स्थापना करने के कारण यह बापा अर्थात् ‘पिता’ कहलाया। वह गुहिलों की राजधानी को नागदा एवं आहाड़ के स्थान पर चित्तौड़ ले आया। बापा रावल को सौ राजाओं के वंश का संस्थापक भी कहा जाता है, संभवतः इस कारण भी उसे बापा कहा गया होगा। बापा ने शैव सम्प्रदाय को अपना राजधर्म बनाया। संभवतः उसके समय से ही भगवान एकलिंग को राज्य का स्वामी तथा मेवाड़ के राजा को उसका दीवान (मंत्री) मानने की परम्परा आरम्भ हुई।
बप्पा रावल ने अपने पिता से मिले राज्य में चित्तौड़ के अतिरिक्त और कौन से क्षेत्र सम्मिलित किये, इस सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक विवरण नहीं मिलता किंतु अनुमान लगाया जा सकता है कि मान मोरी के अधीन आने वाले समस्त क्षेत्र, मान मोरी की पराजय के बाद बप्पा रावल के अधीन आ गये होंगे।
बापा द्वारा मुसलमानों से संघर्ष
ख्यात साहित्य में मुसलमानों से बापा रावल के संघर्ष की कथाएं प्रचुरता से मिलती हैं। इन कथाओं में तारतम्य एवं विश्वसनीयता का अभाव है फिर भी इन कथाओं से यह अवश्य प्रतीत होता है कि बापा रावल का मुसलमानों से कठिन संघर्ष हुआ होगा जिसमें बापा को बड़ी विजय प्राप्त हुई होगी। प्राचीन लोक आख्यानों के अनुसार ई.711 में मुहम्मद बिन कासिम सिंध एवं मुल्तान से आगे बढ़ता हुआ गंगा तक आ गया। उसने अंजर (अजमेर) पर आक्रमण करके मानिकराय को उखाड़ फैंका तथा उसके बाद चित्तौड़ पर भी आक्रमण किया जहाँ बापा रावल ने उसे परास्त किया किंतु ये कथन इतिहास की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। स्थापित इतिहास के अनुसार मुहम्मद बिन कासिम का यह आक्रमण देवल, ब्राह्मणाबाद तथा मूलस्थान तक सीमित था।
बापा के बारे में यह भी कहा जाता है कि अवस्था बढ़ जाने पर बापा ने अपने देश और पुत्रों को त्याग दिया। वह अपने शस्त्रों के साथ खुरासान के पश्चिम में चला गया। वहाँ उसने स्वयं को स्थापित किया तथा बर्बरों की कन्याओं से विवाह किया जिनसे उसकी अनेक संतानें उत्पन्न हुईं। मृत्यु के समय बापा 100 वर्ष का था। देलवाड़ा के राजा के पास सुरक्षित एक प्राचीन इतिहास ग्रंथ के अनुसार बापा ने मेरु पर्वत के नीचे सन्यास ग्रहण किया था। उसने इस्फहान, काश्मीर, ईराक, ईरान, तूरान, काफिरिस्तान आदि सब देशों को जीत लिया था और इनके परास्त राजाओं की पुत्रियों से विवाह किया था जिनसे उसके 130 पुत्र हुए थे।’
मुहम्मद बिन कासिम ने भले ही बापा रावल के राजा बनने से पहले भारत पर आक्रमण किया हो तथा वह भले ही मूलस्थान से आगे न बढ़ा हो किंतु यह पर्याप्त संभव है कि बापा रावल ने भी किसी बड़े मुस्लिम आक्रमण का सामना किया जिसका नाम मुहम्मद बिन कासिम न होकर कुछ और रहा होगा।
बापा रावल के समय में ई.724 में खलीफा अब्दुल वली मलिक की सेना व्यापारियों के वेष में सिंध मार्ग से अजमेर तक आई थी। इस युद्ध में अजमेर के चौहान शासक दुर्लभराज के परिवार के प्रत्येक पुरुष ने हाथ में तलवार लेकर शत्रु का सामना किया। चौहान रानियों ने जौहर का आयोजन किया। दुर्लभराज का युद्धक्षेत्र में ही वध कर दिया गया। तारागढ़ पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।
दूल्हराय का छोटा भाई माणिक राय सांभर में जाकर रहा। कर्नल टॉड के अनुसार सिंध से किसी शत्रु ने अजमेर पर आक्रमण करके वहाँ के राजा माणिकपाल (राय) का वध किया। यद्यपि इतिहास की कड़ियां उपलब्ध नहीं हैं तथापि अनुमान लगाया जा सकता है कि अजमेर पर सिंध के मार्ग से हुआ यह आक्रमण पर्याप्त संभव है कि चित्तौड़ पर भी हुआ हो और बापा रावल द्वारा इस आक्रांता पर विजय प्राप्त की गई हो।
ख्यातों में इसी आक्रांता को मुहम्मद बिन कासिम लिखा गया हो तथा उस पर विजय प्राप्त करने के कारण ख्यातों में बापा को इस्फहान, काश्मीर, ईराक, ईरान, तूरान, काफिरिस्तान तथा खुरासान आदि देशों का विजेता बताया गया हो।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता