जब महाराणा प्रताप हल्दीघाटी से निकल गया और झाला बीदा का बलिदान हो गया तो थोड़ी ही देर बाद युद्ध भी समाप्त हो गया। निश्चित रूप से मानसिंह के आदमियों को उसी समय ज्ञात हो गया होगा कि महाराणा उन्हें गच्चा देकर निकल गया है तथा मरने वाला प्रताप नहीं, उसका सेनापति बीदा है। क्योंकि बदायूनीं ने स्पष्ट लिखा है कि हमारी सेना प्रताप के पीछे नहीं जा सकी क्योंकि उसे भय था कि प्रताप पहाड़ियों के पीछे घात लगाये खड़ा होगा। अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि मुगल सेना बहुत देर तक महाराणा के भय से वहीं खड़ी उसके आक्रमण की प्रतीक्षा करती रही होगी तथा बाद में अपने शिविर में चली गई होगी।
ख्यातों से पता चलता है कि हल्दीघाटी से निकलकर महाराणा प्रताप, उनवास के रास्ते से कालोडा गांव गया जहाँ एक मशहूर वैद्य रहता था। राणा ने उससे अपने घावों का उपचार कराया। कालोड़ा लोसिंग से हल्दीघाटी के मार्ग में पड़ता है।[1]
महाराणा जानता था कि इस समय गोगूंदा जाना खतरे से खाली नहीं है क्योंकि मानसिंह निश्चित रूप से गोगूंदा पर आक्रमण करेगा। अतः वह हल्दीघाटी के निकट के ही पहाड़ी दर्रों में कहीं रुका रहा ताकि अपने घायलों को युद्ध के मैदान से निकालकर कोल्यारी गांव में उनका उपचार करवा सके।
जब मुगल सेना अपने शिविर में चली गई तब महाराणा ने अपने घायलों को युद्ध के मैदान से निकाला और कोल्यारी गांव में ले जाकर उनका इलाज करवाया। फिर अपने राजपूतों एवं भीलों की सहायता से उसने समस्त पहाड़ी नाके और रास्ते रोक लिये।[2]
उसकी योजना मुगलों की सेना को अरावली की पहाड़ियों में ही नष्ट कर देने की थी।
उधर मानसिंह अपनी सेनाओं के साथ उस रात संभवतः बनास नदी के तट पर खमणोर के निकट बने अपने शिविर में ही रुका तथा अगले दिन गोगूंदा चला गया।
अल्बदायूनीं ने लिखा है कि दूसरे दिन हमारी सेना ने वहाँ से चलकर रणखेत को इस अभिप्राय से देखा कि हर एक ने कैसा काम किया था। फिर दर्रे (घाटी) से हम गोगूंदा पहुँचे, जहाँ राणा के महलों के कुछ रक्षक तथा मंदिरवाले जिन सबकी संख्या 20 थी, हिन्दुओं की पुरानी रीति के अनुसार अपनी प्रतिष्ठा के निमित्त अपने-अपने स्थानों से निकल आये और सब के सब लड़कर मारे गये। अमीरों को यह भय था कि कहीं रात के समय राणा उन पर टूट न पड़े।
इसलिये अपनी रक्षार्थ उन्होंने सब मोहल्लों में आड़ खड़ी करा दी और गांव के चारों तरफ खाई खुदवा कर इतनी ऊँची दीवार बनवा दी कि सवार उसको फांद न सके। तत्पश्चात् वे निश्चिंत हुए। फिर वे मरे हुए सैनिकों और घोड़ों की सूची बादशाह के पास भेजने के लिये तैयार करने लगे, जिस पर सैय्यद अहमद खां बारहा ने कहा- ऐसे फेहरिश्त बनाने से क्या लाभ है? मान लो कि हमारा एक भी घोड़ा व आदमी मारा नहीं गया।
इस समय तो खाने के सामान का बंदोबस्त करना चाहिये।[3] इस पहाड़ी इलाके में न तो अधिक अन्न पैदा होता है और न बनजारे आते हैं और सेना भूखों मर रही है। इस पर वे खाने के सामान के प्रबंध का विचार करने लगे। फिर वे एक अमीर की अध्यक्षता में सैनिकों को इस अभिप्राय से समय-समय पर भेजने लगे कि वे बाहर जाकर अन्न ले आवें और पहाड़ियों में जहाँ कहीं लोग एकत्र पाये जायें उनको कैद कर लें, क्योंकि हर एक को जानवरों के मांस और आम के फलों पर जो वहाँ बहुतायत से थे, निर्वाह करना पड़ता था। साधारण सिपाहियों को रोटी न मिलने के कारण इन्हीं आम के फलों पर निर्वाह करना पड़ता था जिससे उनमें से अधिकांश बीमार पड़ गये। [4]
जब अकबर को हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त हो जाने की सूचना मिली तो उसने तुरंत ही महमूदखां को गोगूंदा जाने की आज्ञा दी। उसने रणखेत की स्थिति को देखा और वहाँ से लौटकर हर एक आदमी ने लड़ाई में कैसा काम दिया इस विषय में जो कुछ उसके सुनने में आया, वह बादशाह से निवेदन किया। यह सुनकर बादशाह सामान्य रूप से तो प्रसन्न हुआ परन्तु राणा का पीछा न कर उसको जिन्दा रहने दिया इस पर वह बहुत क्रुद्ध हुआ। [5]
अल्बदायूनी ने लिखा है- ‘अमीरों ने विजय के लिखित वृत्तांत के साथ रामप्रसाद हाथी को, जो लूट में हाथ लगा था और जिसको बादशाह ने कई बार राणा से मांगा था, परंतु दुर्भाग्यवश वह नटता ही रहा, बादशाह के पास भेजना चाहा। आसफखां ने उक्त हाथी के साथ मुझे (अल्बदायूनी को) भेजने की सलाह दी क्योंकि मैं ही इस काम के लिये योग्य था और धार्मिक भावों को पूरा करने के लिये ही लड़ाई में भेजा गया था। मानसिंह ने हँसी के साथ कहा कि अभी तो उसे (अल्बदायूनी को) बहुत काम करना बाकी है। उसको तो हर एक लड़ाई में आगे रहकर लड़ना चाहिये।
इस पर मैंने (अल्बदायूनी ने) जवाब दिया कि मेरा मुरशिदी का काम तो यहीं समाप्त हो चुका, अब मुझे बादशाह की सेवा में रहकर वहाँ काम देना चाहिये। इस पर मानसिंह खुश हुआ और हँसा। फिर 300 सवारों को साथ देकर उस हाथी के साथ मुझे वहाँ से रवाना किया और मानसिंह भिन्न-भिन्न जगह थाने नियत कर गोगूंदा से 20 कोस मोहनी (मोही) गांव तक शिकार खेलता हुआ मेरे साथ रहा। वहाँ से एक सिफारिशी पत्र देकर उसने मुझे सीख दी।
मैं बागोर और मांडलगढ़ होता हुआ आम्बेर पहुँचा। लड़ाई की खबर सर्वत्र फैल गई थी लेकिन मार्ग में (मैं) उसके सम्बन्ध में जो कुछ कहता, लोग उस पर विश्वास नहीं करते थे। फिर टोडा और बसावर होता हुआ मैं फतहपुर पहुँचा, जहाँ राजा भगवानदास के द्वारा बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ और अमीरों के पत्र तथा हाथी बादशाह के नजर किया। बादशाह ने पूछा इस हाथी का क्या नाम है ?’ मैंने निवेदन किया कि ‘राम प्रसाद’।
इस पर बादशाह ने कहा कि यह विजय पीर की कृपा से हुई है इसलिये इसका नाम ‘पीर प्रसाद’ रखा जाये। फिर बादशाह ने मुझ से पूछा कि अमीरों ने तुम्हारी बड़ी प्रशंसा लिखी है, परन्तु सच-सच कहो कि तुम कौनसी सेना में रहे और वीरता का क्या काम किया? फिर मैंने सारा हाल निवेदन किया जिस पर बादशाह ने प्रसन्न होकर मुझे 96 अशर्फियां बख्शीं।’[6]
मानसिंह समझ चुका था कि महाराणा की सेना ने उसे तथा मुगल सेना को गोगूंदा में बंदी बना लिया है। फिर भी वह अकबर को भुलावे में रखने के लिये अपनी जीत के समाचार भेजता रहा तथा भीतर ही भीतर यहाँ से सुरक्षित रूप से निकलने का उपाय ढूंढने लगा। महाराणा की सेना मुगल सेना से बहुत छोटी थी किंतु राणा का भय मुगल सैन्य में इस कदर व्याप्त था कि भोजन प्राप्ति के लिये गोगूंदा से निकली मुगल टुकड़ी, छोटा सा खटका होते ही कोसों दूर भाग जाती थी।
चिलचिलाती धूप, गर्म लू के थपेड़ों और कहीं भी किसी भी समय राणा के सैनिकों के टूट पड़ने का भय मुगल सेना को काल की तरह खाने लगा। उस पर महाराणा ने पहले ही दिन मुगल सेना की रसद सामग्री छीन ली। इस कारण मुगल सैनिक पहाड़ों में लगे आम के पेड़ों से आम तोड़कर खाने लगे। ज्यादा आम खाने से बहुत से सैनिक बीमार पड़ गये।[7]
अकबर समझ चुका था कि हल्दीघाटी में उसके हाथ कुछ नहीं आया अपितु उसने खोया ही है फिर भी उसने इस तरह का अभिनय किया मानो हल्दीघाटी में उसे भारी विजय मिली हो तथा उसकी बहुत बड़ी इच्छा पूरी हो गई हो। इसलिये 29 सितम्बर 1576 को वह ख्वाजा मुइनुद्दीन के उर्स पर अजमेर आया और वहाँ से 6 लाख रुपये और कुछ सामान मक्का और मदीना के योग्य पुरुषों को बांटने के लिये देकर सुल्तान ख्वाजा को उधर रवाना किया।
उसके साथ कुतुबुद्दीन मुहम्मदखां, कुलीजखां और आसफखां को यह आज्ञा देकर भेजा कि वे गोगूंदा से ख्वाजा का साथ छोड़ दें, राणा के मुल्क में सब जगह फिरें और जहाँ कहीं उसका पता लगे, वहीं उसको मार डालें।[8] मानसिंह को गोगून्दा में रहते हुए चार माह बीत गये थे किंतु उससे कुछ भी न बन पड़ा जिससे बादशाह ने उसे तथा आसफखां और काजीखां को वहाँ से चले आने की आज्ञा लिख भेजी।[9]
शाही सेना गोगूंदा में कैदियों की तरह पड़ी हुई थी। जब कभी थोड़े से आदमी रसद का सामान लाने के लिये जाते तो उन पर राजपूत धावा करते थे। इन आपत्तियों से घबराकर शाही सेना राजपूतों से लड़ती-भिड़ती बादशाह के पास अजमेर चली गई।[10] जब वे अजमेर पहुँचे तो मानसिंह तथा आसफखां की गलतियों[11] के कारण उन दोनों की ड्यौढ़ी बंद कर दी।[12] महाराणा भी अनेक बादशाही थानों के स्थान पर अपने थाने नियतकर कुंभलगढ़ चला गया।[13]
[1] मेवाड़ में एक उक्ति प्रचलित है- घाव सिराया राणा रा, कालोड़ा में जाय।
[2] श्यामलदास, पूर्वोक्त, भाग-2, पृ. 155.
[3] लड़ाई के दूसरे ही दिन सेना के पास खाने-पीने का सामान कुछ भी न था और पीछे भी उसी कारण शाही सेना की दुर्दशा होती रही, जिसका वर्णन फारसी तवारीखों में मिलता है, परन्तु उनमें यह कहीं लिखा नहीं मिलता है कि 5000 सवारों की सेना के साथ एक दिन तक का भी खाने का सामान क्यों न रहा। इसका कारण यही हो सकता है कि लड़ाई के दिन महाराणा के सैनिकों ने शत्रुसैन्य का खाने-पीने का सामान लूट लिया हो और बाहर से आपूर्ति आने का मार्ग रोक लिया हो।
[4] अल्बदायूनी, मुन्तखबुत्तवारीख, डब्लू. एच. लोए कृत अंग्रेजी अनुवाद, जि. 2, पृ. 236-43.
[5] उपरोक्त।
[6] उपरोक्त।
[7] मोहनलाल गुप्ता, पूर्वोक्त, पृ. 11.
[8] अल्बदायूनी, पूर्वोक्त, डब्लू. एच. लोए कृत अंग्रेजी अनुवाद, जि. 2, पृ. 246.
[9] उपरोक्त, पृ. 247.
[10] श्यामलदास, भाग-2, पृ. 155.
[11] मानसिंह और आसफखां की कौनसी गलतियों के कारण बादशाह ने उनकी ड्यौढ़ी बंद कर दी, यह अल्बदायूनी ने नहीं बताया परन्तु निजामुद्दीन अहमद बख्शी ने इस विषय में तबकाते अकबरी (तारीखे निजामी) में लिखा है कि मानसिंह वापस चले आने की आज्ञा पाते ही दरबार में उपस्थित हुआ। जब सेना की दुर्दशा के सम्बन्ध में जांच की गई, तो पाया गया कि सैनिक बहुत बड़ी विपत्ति में थे तो भी कुंवर मानसिंह ने राणा कीका (प्रतापसिंह) के मुल्क को लूटने न दिया। इसी से बादशाह उस पर अप्रसन्न हुआ और कुछ समय के लिये उसको दरबार से निकाल दिया। (तबकाते अकबरी, इलियट, जि. 5, पृ. 400-401.)
अबुलफजल ने लिखा है- दूरदृष्टि के कारण शाही कर्मचारी राणा की खोज में न गये और रसद पहुँचाने की कठिनता के कारण वे पहाड़ी प्रदेश से बाहर निकलकर चले आये। खुशामदी लोगों ने बादशाह को यह समझाया कि राणा को नष्ट करने में शाही कर्मचारियों ने शिथिलता की। इस पर बादशाह बहुत नाराज हुआ परंतु बाद में उसका क्रोध शांत हो गया। (अकबरनामा का अंग्रेजी अनुवाद, जि. 3, पृ. 245.)
वस्तुतः इस समस्या पर तत्कालीन वास्तविकताओं एवं भौगोलिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाना चाहिये। मानसिंह यदि अपने सैनिकों को गोगूंदा और उसके आस-पास के निर्जन पहाड़ी क्षेत्र में लूट-पाट करने की अनुमति दे-देता तो सेना को कितना अन्न प्राप्त होता? यह भी विचारणीय है कि जब मुगल सेना अन्न प्राप्त करने के लिये गोगूंदा से बाहर निकलती थी, महाराणा के सैनिक उसे घेर कर मार डालते थे। अतः यह सोचना कि मानसिंह ने महाराणा के प्रति सदाशयता बरती, उचित नहीं है। महाराणा ने तो युद्ध में मानसिंह पर स्वयं प्रहार करके उसके प्राण लेने की चेष्टा की थी। अतः गोगूंदा क्षेत्र में लूट मचाने की आज्ञा न देना मानसिंह की विवशता थी न कि प्रताप के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति।
[12] अल्बदायूनी, पूर्वोक्त, डब्लू. एच. लोए कृत अंग्रेजी अनुवाद, जि. 2, पृ. 247.
[13] श्यामलदास, भाग-2, पृ. 155.