मण्डोर दुर्ग की अनुपयुक्तता
मण्डोर का दुर्ग गुप्तों से भी पहले के काल में अरावली की दुर्गम पहाड़ियों के बीच बहने वाली नागाद्रि नदी के तट पर स्थित था। नदी के नाम से अनुमान होता है कि नागों ने इस दुर्ग का निर्माण आरम्भ किया होगा और वे ही यहाँ के प्रारम्भिक शासक रहे होंगे। समुद्रगुप्त एवं उसके पुत्र चंद्रगुप्त (द्वितीय) ने पश्चिमी भारत के नागों को परास्त करके अपने अधीन किया था। संभवतः उसी समय यह दुर्ग गुप्तों के अधीन चला गया। जब आठवीं शताब्दी ईस्वी में मण्डोर के प्रतिहारों का उदय हुआ तो मण्डोर दुर्ग मरुस्थल में प्रतिहारों की शक्ति का प्रतीक बन गया। जिस काल में इस दुर्ग का निर्माण हुआ, उस काल में यह दुर्ग चारों तरफ उत्तुंग अरावली पहाड़ियों से घिरे हुए होने से पर्याप्त दुर्गम एवं शत्रुओं के आक्रमणों को झेलने में सक्षम रहा होगा। आठवीं शताब्दी के बाद के किसी काल खण्ड का एक अभिलेख इस दुर्ग के निकट प्राप्त हुआ है जिसमें लिखा है- ‘मांडवस्याश्रमे पुण्ये नदीनिर्झर शोभते।’ इससे स्पष्ट है कि उस समय तक यह क्षेत्र नदियों एवं झरनों से सम्पन्न था।
समय के साथ इस क्षेत्र में वर्षा का औसत घटता चला गया। पहले के युग में तेज वर्षा की चोट से और बाद के युग में रेतीली आंधियों की रगड़ से, इस क्षेत्र की पहाड़ियां घिस-घिस कर छोटी होती चली गई होंगी। राव जोधा का काल आते-आते न केवल मण्डोर की पहाड़ियां बहुत छोटी हो गई होंगी अपितु यह दुर्ग भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था को प्राप्त हो गया होगा तथा शत्रुओं के आक्रमण झेलने में नितांत असक्षम हो गया होगा। यही कारण रहा होगा कि यह दुर्ग प्रतिहारों के हाथों से निकलकर बड़ी आसानी से मुसलमानों के हाथों में चला गया। राव चूण्डा ने भी इसे सरलता से मुसलमानों से छीन लिया था। राव रणमल की हत्या के बाद मेवाड़ वालों ने भी इसे सरलता से जीत लिया था। यहाँ तक कि स्वयं जोधा भी इसे बहुत कम साधनों से जीतने में सफल रहा था।
उस युग में राजा, राजधानी, कोष, सेना और राजपरिवार की सुरक्षा दुर्ग की अजेयता पर अत्यधिक निर्भर करती थी। दुर्ग की अजेयता उसकी दुर्गम भौगोलिक स्थिति पर आधारित होती थी। इन सब बातों पर विचार करके ही जोधा ने मण्डोर दुर्ग को राजधानी के लिये अनुपयुक्त पाया होगा और उसने एक नई राजधानी बसाने का निर्णय लिया होगा जो एक अजेय दुर्ग के भीतर सुरक्षित रह सके।
नये दुर्ग की स्थापना के पीछे इतिहासकारों का यह भी मत है कि राजकुमार अखैराज ने जोधा के समर्थन में अपने अधिकार का त्याग किया था। इसलिये अखैराज या उसके उसके वंशज, राव जोधा की मृत्यु के बाद मण्डोर राज्य पर अधिकार जता सकते थे जैसे कि रणमल ने कान्हा की मृत्यु के बाद सत्ता को हटाकर मण्डोर पर अधिकार कर लिया था क्योंकि रणमल ने कान्हा के पक्ष में राज्याधिकार का त्याग किया था न कि सत्ता अथवा किसी भी अन्य राजकुमार के पक्ष में। अतः मण्डोर के स्थान पर जोधपुर को राजधानी बनाये जाने से अखैराज अथवा उसके वंशजों का राज्याधिकार क्षीण हो जाना स्वाभाविक था।
मेहरानगढ़ की स्थापना
राव जोधा ने नये दुर्ग की स्थापना के लिये एक सुरक्षित स्थान ढूंढना आरम्भ किया। उसकी दृष्टि मसूरिया नामक पहाड़ी पर गई जो दूर-दूर तक दूसरी पहाड़ियों से घिरी हुई थी। (इसे थोथलिया भाखर कहा जाता था और मान्यता थी कि इस पर पिशाचों का राजा मैमदशाह हुर रहता थ।) इस कारण शत्रु को इस पहाड़ी पर पहुंचने से पहले ही सरलता से देखा जा सकता था। इस पहाड़ी पर उस समय एक साधु रहता था। उसने जोधा को सलाह दी कि यह पहाड़ी तुम्हारे नये दुर्ग के लिये सुरक्षित नहीं है इसलिये तुम पचेटिया पहाड़ी पर अपना दुर्ग बनाओ। मसूरिया पहाड़ी पर जल की उपलब्धता भी नहीं थी जबकि पचेटिया पहाड़ी पर एक झरना बहता था जिससे दुर्ग के निर्माण एवं बाद में मनुष्यों के पीने के लिये जल की पर्याप्त उपलब्धता हो सकती थी। इसलिये जोधा ने पचेटिया पहाड़ी को अपने नये दुर्ग के निर्माण के लिये चुना। यह भी कहा जाता है कि बाबा रामदेव के गुरु बालीनाथ, प्रेतात्मा के रूप में इस पहाड़ी पर रहते थे। इस कारण इस पहाड़ी पर दुर्ग नहीं बनाया जा सका।
चिड़ियानाथ की कहानी
पचेटिया पहाड़ी पर चिड़ियानाथ नामक एक योगी रहता था। इस कारण इस पहाड़ी को चिड़ियानाथ की टूंक भी कहते थे। (यह पर्वत पक्षी की आकृति का था इसलिये इसे विहंग कूट भी कहते थे। जब नया दुर्ग बनना आरम्भ हुआ तो चिड़ियानाथ का आश्रम दुर्ग के भीतर आ गया। योगी ने जोधा के अधिकारियों से कहा कि वे मेरी झौंपड़ी को छोड़कर दुर्ग बनायें किंतु ऐसा करने पर दुर्ग तिरछा हो जाता। इसलिये योगी की बात अनसुनी करके, उसकी झौंपड़ी दुर्ग के भीतर ले ली गई। इस पर योगी ने रुष्ट होकर सुलगती हुई धूणी अपनी झोली में डाली तथा दुर्ग से अग्निकोण की दिशा में नौ कोस दूर स्थित पालासनी गांव चला गया। पालासनी गांव में उस योगी की समाधि बनी हुई है। मान्यता है कि इस योगी ने राजा को श्राप दिया कि यहाँ से मेरी धूनी उठाई गई है जो सूर्यरूप थी सो यहाँ अकाल पड़ते रहेंगे और लोग अन्न-जल को तरसेंगे। यह भी कहा जाता है कि शाप देने के बाद योगी ने झरने में से चार चुलुक पानी पिया जिससे झरने का जल सूखकर टपकती हुई बूंदों में बदल गया। जब राजा को योगी के रुष्ट होने का समाचार मिला तो राजा ने उसके लिये दुर्ग के नीचे एक मठ बनवाया और अपने आदमी भेजकर योगी से कहलवाया कि वह नये मठ में आ जाये। (यह स्थल सरदार मार्केट के निकट है।) योगी ने उन आदमियों से कहा कि मैं कुछ दिन बाद आउंगा। अंत में वह योगी कुछ दिनों के लिये इस मठ में आया। उस योगी ने इस मठ के निकट एक शिवालय बनवाया। योगी के कहने से जोधाजी ने प्रतिदिन एक रोट बनवाकर किसी साधु-सन्यासी को देने की प्रथा प्रचलित की। समय के साथ यह शिवालय जीर्ण हो गया। 1914 ई. में जोधपुर राज्य की ओर से इस शिवालय का जीर्णोद्धार करवाया गया।
दुर्ग का शिलान्यास
राव जोधा ने मण्डोर से 6 मील दूर दक्षिण में चिड़ियानाथ की टूंक पर 12 मई 1459 को नया दुर्ग बनवाना आंरभ किया। इस सम्बन्ध में एक दोहा कहा जाता है-
पन्दरा सौ पन्दरोतरे, जेठ मास जोधाण।
सुद इग्यारस वार शनि, मंडियौ गढ़ मेहराण।।
ख्यातों में आये विवरण के अनुसार दुर्ग के द्वार के शिलान्यास हेतु लाई जाने वाली शिला, निश्चित मुहूर्त्त पर नहीं आ सकी। इस पर निकट ही स्थित एक ऊँट चराने वाले के बाड़े से एक शिला लाकर उससे द्वार का शिलान्यास किया गया। (इस पत्थर पर बाड़े के द्वार को बंद करने के लिये लगाए जाने वाले डण्डों के छेद हैं।) अगले 500 वर्ष तक यह दुर्ग, मरुस्थल की राजनीतिक एवं सामरिक गतिविधियों का सर्वप्रमुख केन्द्र बना रहा। यह दुर्ग तीन बार मुलसमानों के अधिकार में रहा।
करणी माता द्वारा दुर्ग का शिलान्यास
चारण परिवार में उत्पन्न करणी माता बीकानेर के राठौड़ों की पूज्य देवी हैं। वह जोधा तथा उसके पुत्र बीका की समकालीन थीं। कुछ स्थानों पर उल्लेख आया है कि करणी माता ने जोधा को इस दुर्ग के लिये स्थान बताया तथा करणी ने स्वयं अपने हाथों से दुर्ग का शिलान्यास किया। नैणसी ने लिखा है- श्री जोधपुर रौ किलौ सं. 1515 रा जेठ सुद 11 शनीवार राव जोधाजी नीम दीवी श्री करनीजी पधार नै सो विगत पैला तौ चौबुरजो जीवरखौ कोट करायौ, चिड़ियां टूक ऊपर।
राजिया भाम्बी की कहानी
एक तान्त्रिक की सलाह पर दुर्ग की नींव में किसी जीवित पुरुष को गाढ़ने का निर्णय लिया गया ताकि यह दुर्ग सदैव जोधा के वंशजों के पास रहे। राजा ने पूरे राज्य में मुनादी करवा दी कि जो व्यक्ति इस नींव में जीते जी गढ़ेगा, उसके परिवार को राजकीय संरक्षण एवं धन सम्पदा दी जायेगी। राजिया अथवा राजाराम नामक भाम्बी इस कार्य के लिये तैयार हुआ। उसे जीवित ही नींव में चिनवाया गया। उसके परिवार को जोधपुर नगर में भूमि दी गई जो बाद में राजबाग के नाम से प्रसिद्ध हुई। जिस स्थान पर राजिया को गाढ़ा गया उसके ऊपर खजाना तथा नक्कारखाने के भवन बनवाये गये। राजिया के प्रति आभार प्रदान करने के लिये राज्य से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों में उसका उल्लेख श्रद्धा के साथ किया गया। किसी-किसी स्थान पर उल्लेख मिलता है कि नींव में दो व्यक्तियों को जीवित चुना गया। रेउ ने लिखा है कि राजिया एवं उसके पुत्र को नींव में गाढ़ा गया।
पुष्करणा ब्राह्मणों को निमंत्रण
दुर्ग की स्थापना के अवसर पर राव जोधा ने बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को आमंत्रित किया। तब सिंध से 65 पुष्करणा ब्राह्मण परिवार, राजा को आशीर्वाद देने जोधपुर आये तथा यहीं बस गये।
दुर्ग का नामकरण
ख्यातों के अनुसार दुर्ग की कुण्डली के आधार पर इस दुर्ग का नाम चिंतामणि रखा गया। यह भी कहा जाता है कि सिंध से आये पुष्करणा ब्राह्मण गणपतदत्त के पुत्र मोरध्वज के नाम पर इस दुर्ग का नाम मोरध्वज गढ़ रखा गया। यह भी माना जाता है कि मण्डोर का दुर्ग नागों का बनाया हुआ था। नागों के शत्रु मोर होते हैं इसलिये नये दुर्ग का नाम मयूर ध्वज रखा गया। यह दुर्ग मिहिर गढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मिहिर शब्द का अर्थ सूर्य होता है। अर्थात् सूर्य-वंशियों का गढ़ होने से यह मिहिर गढ़ कहलाया। बाद में इसे मिहिरानगढ़ और मेहरानगढ़ कहने लगे।
दुर्ग की भव्यता
मेहरानगढ़ विश्व के भव्यतम दुर्गों में से एक है। यह अपने निकट की भूमि से 400 फुट ऊँचा है तथा बहुत दूर से दिखाई पड़ता है। इसका कोट 20 से 120 फुट ऊँचा और 12 से 20 फुट चौड़ा है। सम्पूर्ण दुर्ग 500 गज लम्बाई में और 250 गज चौड़ाई में बना हुआ है।
रानीसागर और चांद बावड़ी
जिस समय जोधा ने मेहरानगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया, उस समय उसकी हाड़ी रानी जसमादे ने 1459 ई. में दुर्ग की तलहटी में रानी सागर नामक तालाब बनवाया और जोधा की सोनगरी रानी चांद कुंवरी ने एक बावली बनवाई जो चांद बावड़ी के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसे चौहान बावड़ी भी कहा जाता था। रानी जसमादे ने अपने जीवन काल में दुर्ग के भीतर एक कुआं भी खुदवाया।
चामुण्डा मंदिर की स्थापना
1394 ई. में जब चूण्डा ने मण्डोर दुर्ग पर अधिकार किया, तब इसमें प्रतिहारों की कुलदेवी चामुण्डा की एक प्राचीन प्रतिमा स्थापित थी। 1459 ई. में जोधपुर दुर्ग की स्थाना के बाद 1460 ई. में जोधा ने चामुण्डा को मण्डोर से लाकर मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थापित किया। देवी की यह प्रतिमा चमत्कारी मानी जाती है। इसकी कृपा से जोधपुर विगत पांच सौ वर्षों से किसी बड़े सकंट में नहीं पड़ा। 9 अगस्त 1857 को महाराजा तख्तसिंह के समय बारूद खाने में आग लग जाने से बड़े-बड़े पत्थर शहर पर आ गिरे। इससे 200 व्यक्ति अपने घरों में दब कर मर गये। 1965 ई. के भारत-पाक युद्ध में जब पाकिस्तानी सेना द्वारा बम गिराये जा रहे थे तब लोगों ने अपने घरों के बाहर देवी के हाथ के प्रतीक के रूप में मेंहदी से भरे हाथ अंकित किये। इससे जोधपुर नगर पूरी तरह सुरक्षित रहा तथा केवल दो स्थानों पर अत्यल्प हानि हुई। 30 सितम्बर 2008 को मंदिर में हुई भगदड़ में 216 युवकों की मृत्यु हुई।
जोधाजी का फलसा
राव जोधा ने लोहा पोल से चामुण्डाजी के बुर्ज तक कोट तथा बुरजें बनवाईं एवं फलसे तक दुर्ग का निर्माण करवाया। जोधा ने चामुण्ड बुर्ज पर मण्डप चुनवाया। जोधा के काल में इस किले का जहाँ तक प्रसार था, वहाँ तक का क्षेत्र जोधाजी का फलसा कहलाता था। समस्त उमराव, सरदार, राजपुरुष अथवा अन्य कर्मचारियों को इस स्थान पर अपनी सवारी छोड़नी होती थी। केवल राजा ही यहाँ से आगे सवारी पर बैठकर जा सकता था। यह सीमा समय के साथ बदलती रही।
जोधा का तिलक
मेहरानगढ़ के निर्माण के पश्चात् इसका मध्य बिंदु ज्ञात किया गया तथा वहाँ एक चौकी पर राव जोधा को बैठाकर उसका तिलक किया गया।
झरनेश्वर महादेव मंदिर
पचेटिया पहाड़ी पर जिस झरने के निकट योगी चिड़ियानाथ रहता था, वहाँ राव जोधा ने एक कुण्ड और एक छोटा शिव मंदिर बनवाया। वह स्थान झरनेश्वर महादेव के नाम से जाना गया। बाद में यह झरना लगभग सूख गया।
कोडमदेसर तालाब की प्रतिष्ठा
1459 ई. में मेहरानगढ़ दुर्ग की नींव रखने के बाद उसी वर्ष बलोचों ने जांगलू के राजा नापा सांखला पर आक्रमण किया। इस पर जोधा, नापा की सहायता के लिये जांगलू की तरफ गया। मार्ग में जोधा ने अपनी माता के बनवाये कोडमदेसर तालाब की प्रतिष्ठा करवाई तथा वहाँ एक कीर्ति स्तम्भ स्थापित किया। इस कीर्ति स्तम्भ पर संस्कृत भाषा में एक लेख उत्कीर्ण है जिसमें लिखा है कि राठौड़ रणमल के पुत्र जोधा राय ने इस तालाब की प्रतिष्ठा करवाई तथा माता श्रीकोडमदे निमित्त कीर्ति स्तम्भ स्थापित किया। जब राव रणमल की हत्या हुई थी तब जोधा की माता कोडमदे इसी तालाब के किनारे सती हुई थी। कोडमदेसर से लौटकर जोधा ने अपने कुल पुरोहित को एक नया दानपत्र लिखकर दिया।