जब लॉर्ड हेस्टिंग्ज (ई.1813-1823) ईस्ट इण्डिया कम्पनी का गवर्नर जनरल बनकर अया तब अलवर, भरतपुर और धौलपुर को छोड़कर, समस्त राजपूताना अंग्रेजी नियन्त्रण से बाहर था तथा देशी रियासतें मराठों एवं पिण्डारियों से छुटकारा पाने तथा अपने विद्रोही और उच्छृंखल सामंतों पर अंकुश लगाने के लिये बार-बार ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सहायता की गुहार लगा रही थीं।
ई.1814 में चार्ल्स मेटकाफ ने लॉर्ड हेस्टिंग्ज को लिखा कि यदि समय पर विनम्रतापूर्वक मांग करने पर भी संरक्षण प्रदान नहीं किया गया तो शायद बाद में, प्रस्तावित संरक्षण भी अमान्य कर दिये जाएंगे। जॉन मैल्कम की धारणा थी कि सैनिक कार्यवाहियों तथा रसद सामग्री दोनों के लिये इन राज्यों के प्रदेशों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण होना चाहिये अन्यथा ये राज्य हमारे शत्रुओं को हम पर आक्रमण करने के लिये योग्य साधन उपलब्ध करवा देंगे।
हेस्टिंग्स का भी मानना था कि राजपूत रियासतों पर अंग्रेजों का प्रभाव स्थापित होने से सिक्खों और उनको सहायता देने वाली शक्तियों के बीच शक्तिशाली प्रतिरोध बन जायगा। इससे न केवल सिन्धिया, होल्कर और अमीरखां की बढ़ती हुई शक्ति नियंत्रित होगी, जो उसके अनुमान से काफी महत्वपूर्ण उद्देश्य था, बल्कि उससे मध्य भारत में कम्पनी की सैनिक और राजनैतिक स्थिति को अत्यधिक सुदृढ़ बनाने में भी सहायता मिलेगी।
इस नीति के तहत ई.1817 में लॉर्ड हेस्टिंग्ज राजपूत राज्यों से संधियां करने को तत्पर हुआ। हेस्टिंग्ज ने अपना उद्देश्य लुटेरी पद्धति के पुनरुत्थान के विरुद्ध अवरोध स्थापित करना तथा मराठा शक्ति के विस्तार को रोकना बताया। उसने तर्क दिया कि चूंकि मराठे पिण्डारियों की लूटमार को नियंत्रित करने में असफल रहे हैं अतः मराठों के साथ की गयी संधियों को त्यागना न्याय संगत होगा।
राजपूत रियासतों में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रवेश
हेस्टिंग्स ने चार्ल्स मेटकाफ को राजपूत शासकों के साथ समझौते सम्पन्न करने का आदेश दे दिया। गवर्नर जनरल का पत्र पाकर चार्ल्स मेटकॉफ ने समस्त राजपूत शासकों के नाम पत्र भेजकर उन्हें कम्पनी का सहयोगी बनने के लिये आमंत्रित किया। इस पत्र में कहा गया कि राजपूताना के राजा जो खिराज मराठों को देते आये हैं उसका भुगतान ईस्ट इण्डिया कम्पनी को करें। यदि किसी अन्य पक्ष द्वारा राज्य से खिराज का दावा किया जायेगा तो उससे कम्पनी निबटेगी। अन्य छोटे राज्यों के साथ कोटा, जोधपुर, उदयपुुर, बूंदी, बीकानेर, जैसलमेर तथा जयपुर राज्यों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
चार्ल्स मेटकाफ तथा सर जॉन मैलक्म को देशी राज्यों के साथ संधियां करने का दायित्व सौंपा गया। मैटकाफ ने ई.1817 में कोटा तथा करौली से, ई.1818 में जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, जैसलमेर, किशनगढ़, जयपुर तथा बूंदी राज्यों से संधियां कीं। मालवा के रेजीडेंट जॉन मैल्कम ने ई.1818 में प्रतापगढ़, बांसवाड़ा तथा डूंगरपुर से संधियां कीं।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि करने वाले राज्यों के शासकों को अपने आंतरिक मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र आचरण करने का अधिकार था किंतु उन्हें अपने खर्चे पर ब्रिटिश फौजों को अपने राज्य में रखना पड़ता था। कम्पनी द्वारा संरक्षित राज्य को दूसरे राज्य से संधि करने के लिये पूरी तरह कम्पनी पर निर्भर रहना पड़ता था। इस सब के बदले में कम्पनी ने राज्य की बाह्य शत्रुओं से सुरक्षा करने तथा आंतरिक विद्रोह के समय राज्य में शांति स्थापित करने का जिम्मा लिया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा राजपूताने के प्रत्येक राज्य के साथ अलग-अलग संधि की गयी।
मेवाड़ राज्य भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी का संरक्षित मित्र राज्य बन गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि हो जाने पर मेवाड़ से मराठों और पिण्डारियों का दुःख सदा के लिये मिट गया। प्रजा को फिर सांस लेने का अवसर मिला और सरदारों के आपस के लड़ाई-झगड़े बंद हो गये। जैत्रसिंह के समय से महाराणा राजसिंह के समय तक मेवाड़ के राजाओं ने मुसलमानों से लगातार 450 वर्षों तक युद्ध किया फिर भी मेवाड़ की शक्ति का इतना ह्रास नहीं हुआ था जितना कि मराठों के विरुद्ध लड़े गये 60 वर्षों के युद्धों में हुआ। यदि ई.1818 में अंग्रेजी सरकार के साथ संधि न होती तो मेवाड़ राज्य का नाम ही मिट जाता। अंग्रेजों के साथ संधि करना मेवाड़ के लिये वरदान सिद्ध हुआ।
पिण्डारियों के विरुद्ध कार्यवाही
ई.1817 के अंत में पिण्डारियों पर आक्रमण किये गये। ये चम्बल के पार मालवा के बाहर खदेड़ दिये गये। जनवरी 1818 तक समस्त पिंडारी दल नष्ट कर दिये गये। अंग्रेजों ने करीमखां की बेगम को पकड़ लिया। उसके बड़े लड़के ने कोटा का झाला जालिमसिंह के समक्ष समर्पण कर दिया। करीमखां ने भी मीरजाफर अली के माध्यम से जॉन मैल्कम के समक्ष आत्म-समर्पण किया। वासिल मुहम्मद ने सिंधिया के समक्ष हथियार डाले।
कादरबख्श ने भी मैल्कम के समक्ष समर्पण किया। नामदारखां नइ इस शर्त पर समर्पण किया कि उसे काला पानी नहीं भेजा जायेगा। चीतू जान बचाने के लिये भागता रहा किंतु अंग्रेज सेना उसके पीछे लगी रही। बहुत से पिंडारियों ने जंगलों में छिपने का प्रयास किया किंतु वहां उन्हें भीलों ने मार दिया। चीतू को भी अंत में पूना के निकट कांतापुर का जंगल पार करते समय एक चीते ने मार डाला। अमीरखां ने अंग्रेजों से संधि कर ली और उसके लिये टोंक राज्य का निर्माण कर वहां का नवाब बना दिया।
महाराणा द्वारा सामंतों को क्षमादान
ई.1818 में कैप्टेन जेम्स टॉड ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एजेंट बनकर आया। एक दिन महाराणा ने सब सरदारों को बुलाकर बड़ा दरबार किया जिसमें टॉड ने कहा कि जो सरदार आपके विरोधी हों, उन्हें बताइये, अंग्रेज सरकार उन्हें दण्ड देने के लिये तैयार है। इस पर महाराणा ने कहा कि अब तक तो मैंने सबका अपराध क्षमा कर दिया है,परंतु भविष्य में जो सरदार कसूर करेंगे, उसकी सूचना आपको दी जायेगी।
ब्रिटिश शासित प्रदेश अजमेर-मेरवाड़ा का गठन ई.1818 में जब कम्पनी सरकार ने पिण्डारियों के विरुद्ध कार्यवाही की तथा देशी राज्यों से समझौते किये तब जनरल ऑक्टरलोनी ने मराठा शासक दौलतराम सिंधिया से संधि करके अजमेर पर भी अधिकार कर लिया। अजमेर में राजपूताना रेजीडेंसी स्थापित की गई तथा जनरल ऑक्टरलोनी को राजपूताने का रेजीडेण्ट बनाया गया। अजमेर से लगता हुआ मेरवाड़ा नामक एक पहाड़ी प्रदेश था जो उदयपुर तथा जोधपुर राज्यों तक विस्तृत था।
मेरवाड़ा क्षेत्र में मेर जाति के युद्धप्रिय लोग रहते थे जो अवसर पाते ही लूटपाट किया करते थे। इस कारण कम्पनी सरकार ने मेरवाड़ा राज्य का प्रबंध अलग से करने का निर्णय लिया तथा मारवाड़ और मेवाड़ राज्य से मेरवाड़ा के क्षेत्र लेकर उन्हें अजमेर के साथ मिला दिया। इस प्रकार राजपूताने में ब्रिटिश शासित प्रदेश- ‘अजमेर-मेरवाड़ा’ अस्तित्व में आया। महाराणा की इच्छा अपना इलाका कम्पनी सरकार को देने की नहीं थी किंतु ई.1820 में राजपूताने के रेजीडेण्ट ऑक्टरलोनी ने महाराणा भीमसिंह की इच्छा के विरुद्ध उदयपुर राज्य का मेरवाड़ा क्षेत्र ब्रिटिश शासित प्रदेश में मिला लिया।