उधर महाराजा जसवंतसिंह ने उज्जैन की राह ली और इधर वली-ए-अहद दारा शिकोह ने शहजादे सुलेमान शिकोह तथा मिर्जाराजा जयसिंह को जल्द से जल्द आगरा पहुंचने के आदेश भिजवाए। शाही फरमान मिलने के बाद शहजादा सुलेमान तथा मिर्जाराजा जयसिंह ताबड़-तोड़ चलत हुए आगरा की तरफ बढ़ने लगे। इस बीच दारा ने आगरा में मौजूद शाही सेना का एक हिस्सा आगरा के समस्त बाहरी दरवाजों पर तैनात कर दिया तथा शेष सेना को कासिम खाँ की अगुआई में उज्जैन की तरफ रवाना किया ताकि वह महाराजा जसवंतसिंह की सहायता कर सके।
जब शाहजहाँ को ज्ञात हुआ कि दारा ने आगरा की हिफाजत के नाम पर शाही सेनाएं आगरा के दरवाजों के बाहर ही तैनात कर दी हैं तो वह, दारा की ओर से भी आशंकित हो गया। उसने महाराजा रूपसिंह को बुलाकर आदेश दिए कि वह अपने आदमियों को हर समय बादशाही महल के बाहर नियुक्त रखे। लाल किले के बाहर भी केवल महाराजा रूपसिंह के सिपाहियों का पहरा रहे और शाही सेनाएं शहजादे दारा शिकोह के निर्देशन में आगरा शहर के बाहर तैनात रहें।
आगरा शहर के दो दरवाजों को छोड़कर समस्त दरवाजे बंद कर दिए जाएं जिनके बाहर शाही सेनाएं रहें और भीतर की ओर महाराजा रूपसिंह की टुकड़ियां रहें। रूपसिंह के सिपाही इस बात का ध्यान रखें कि स्वयं वली-ए-अहद केवल दस सिपाहियों के साथ आगरा शहर में दाखिल हो। उसे दिन के समय लाल किले में रहने की पूरी छूट थी किंतु रात के समय दारा को लाल किले से बाहर जाना होगा। दारा शिकोह ने अपने आशंकित और बीमार पिता के सामने कुरान उठाकर कसम उठाई कि वह कभी भी बादशाह से दगा नहीं करेगा तथा बादशाह के समस्त आदेशों की अक्षरशः पालना करेगा फिर भी बादशाह को उस पर विश्वास नहीं हुआ। उसके कानों में सलेमाबाद के आचार्य की वह चेतावनी बार-बार गूंजती थी कि बादशाह को अपनी हिफाजत स्वयं करनी चाहिए।
बादशाह ने महाराजा रूपसिंह को सख्त लहजे में पाबंद किया कि जब तब बादशाह स्वयं बुलाकर महाराजा रूपसिंह को आदेश न दे तब तक महाराजा अपनी सेनओं की नियुक्ति कहीं अन्यत्र न करे और महाराजा स्वयं दिन में कम से कम दो बार बादशाह के हुजूर में हाजिर होकर बादशाह के हालचाल पूछे।
बादशाह ने अपनी सबसे चहेती शहजादी जहांआरा को आदेश दिए कि वह केवल दिन के समय बादशाह के हुजूर में रहेगी, रात होते ही उसे भी ख्वाबगाह से बाहर जाना होगा। बादशाह के इस आदेश से जहांआरा सकते में आ गई। वह आँखों में आँसू भरकर और हाथों में कुरान लेकर अपने पिता के समक्ष पेश हुई तथा अपने पिता के कदमों पर गिरकर बोली-
‘चाहे तो मेरी देह की खाल उधड़वाकर मेरे शरीर से अलग कर दें किंतु अब्बा हुजूर के मुकद्दस कदमों से मुझे एक लम्हे के लिए भी दूर न करें। मैं दीवारों से सिर टकराकर जान दे दूंगी किंतु अपने रहमदिल पिता को अपनी नजरों से एक लम्हे के लिए भी दूर नहीं करूंगी।’
बूढ़ा और बीमार बादशाह, अपनी प्यारी बेटी जहांआरा के आंसुओं को देखकर पिघल गया जिसने जीवन भर अपने बेरहम पिता की हर ख्चाहिश को पूरा किया था। बादशाह ने बेटी जहांआरा को हर समय अपने हुजूर में पेश रहने की अनुमति दे दी।
जब रियाया ने देखा कि शाही सेना ने आगरा शहर को तथा महाराजा रूपसिंह के राजपूतों ने लाल किले के चारों तरफ से घेर लिया है, तो लोगों की समझ में कुछ नहीं आया। शहर में अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। बाजार बंद हो गए और लोगों को सौदा-सुल्फा लेने में भी कठिनाई होने लगी।
रौशनआरा ने आगरा का सारा हाल अपने भाई शहजादे औरंगज़ेब को लिख भेजा। बाकी की शहजादियाँ भी कहाँ पीछे रहने वाली थीं। शहजादी गौहर आरा ने मुराद को और पुरहुनार बेगम ने शाहशुजा को बड़ी तफसील से खत लिखकर भिजवाए।