गुलाबराय ने महाराजा से अपने पुत्र तेजकरण के लिये नागौर का राज्य मांगा। गच्छीपुरा की तरफ पहले से ही उसके पास जागीरें थीं जिससे वह इस क्षेत्र से अच्छी तरह परिचित भी था। गुलाब चाहती थी कि जिस तरह महाराजा विजयसिंह के पिता बख्तसिंह नागौर में अलग राज्य स्थापित करके, उसके स्वतंत्र महाराजाधिराज बने रहे। उसी प्रकार उसके पुत्र तेजकरणसिंह को भी आसमन्त के प्रदेश सहित नागौर का किला, सारे सर-अंजाम सहित मिले। महाराजा ने पासवान की प्रसन्नता के लिये इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। महाराजा के सलाहकार मुत्सद्दी गोवर्धन खीची को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने कई किंतु-परन्तु खड़े करके इस योजना को स्थगित करवा दिया। खीची, पासवान को एक दासी से अधिक नहीं मानता था। उसका यह भी मानना था कि दासी-पुत्र को राज्य दे देने पर राणियों के कुँवर क्या करेंगे? जब तेजकरणसिंह को नागौर का राज्य नहीं मिला तो गुलाबराय मन ही मन गोवर्धन खीची की पक्की शत्रु हो गई।
1785 ईस्वी की सर्दियाँ अभी आरंभ नहीं हुई थीं कि गुलाबराय के पुत्र तेजकरणसिंह को शीतला निकली। राजवैद्यों ने बहुत उपचार किये किंतु तेजकरणसिंह फिर कभी उठ कर खड़ा नहीं हो सका। शीतला उसे अपने साथ लेकर ही गई। गुलाबराय के लिये यह वज्रपात से कम नहीं था। वह घोर उदासी में डूब गई। वह पुत्र-शोक में ऐसी डूबी कि उसने अपने कक्ष से बाहर निकलना ही बंद कर दिया। दरबार की राजनीति से उसने सन्यास ले लिया। अब वह महाराजा के आने पर भी उत्साह का प्रदर्शन नहीं करती। सदैव पत्थर के समान जड़ बनी रहती। उसके रक्ताभ होठों पर सूखी पपड़ियाँ जमी रहतीं। काले नागिन से उसके बाल वटवृक्ष की जटाओं की तरह एक दूसरे के साथ चिपक कर लटके रहते। उसे वस्त्र ठीक करने और स्नान-ध्यान करने का भी होश नहीं रहता। उसे दिन में भी अंधेरे का भान होता था।
गुलाब की इस विरक्ति को देखकर महाराजा का कलेजा हा-हाकार कर उठता। नियति के सम्मुख वह भी विवश था। उसके समक्ष उसका जोर ही क्या था! एक दिन महाराजा को सूचना मिली कि पासवान अपने उद्यान में नहीं है। महाराजा के हाथों से तोते उड़ गये। उसने हरकारों और खोजियों को पासवान की खोज में चारों तरफ भेजा। इससे भी जब संतुष्टि नहीं हुई तो महाराजा ने मारवाड़ की सेनाओं को इस काम पर लगा दिया।
महाराजा का हृदय किसी अनहोनी की आशंका से कांपता रहता। उसका मन किसी काम में नहीं लगता। ऐसा प्रतीत होता था कि गुलाब जाते-जाते अपनी उदासी महाराजा को सौंप गई थी। अंत में एक दिन पीपाड़ में खोजियों ने पासवान को देखा। महाराजा स्वयं पीपाड़ गया और किसी तरह गुलाब को समझा-बुझा कर गढ़ में लाया। जब गुलाब गढ़ में पहुँची तो महाराजा ने अपने सबसे छोटे कुँवर शेरसिंह को गुलाब की गोदी में डाल दिया। महाराजा के आग्रह पर गुलाब ने उसे विधिवत् गोद ले लिया। महाराजा की सहानुभूति और प्रेम से गुलाब अवसाद के गहरे गर्त से बाहर आकर शनैः शनैः पुनः दरबार में लौट आई।
गुलाबराय का इस तरह फिर से दरबार में लौट आना, राज्य के मुत्सद्दियों को अच्छा नहीं लगा। कुछ सामंतों ने महाराजा को मुत्सद्दियों के असंतोष की सूचना दी किंतु महाराजा ने उसे अनसुना कर दिया। गुलाब फिर से दरबार में महकने लगी। पुत्र शोक से उबरने के बाद वह पहले से भी अधिक सक्रिय, अधिक कठोर और अधिक दृढ़ निश्चय के साथ दरबार में दिखाई दी। भीमराज सिंघवी और जोरावरमल को तो लग रहा था कि प्रकृति ने ही गुलाब को दरबार से हटाकर उनका मार्ग साफ कर दिया किंतु जब वह वापस लौट आई तो इन दोनों को बहुत निराशा हुई।