Saturday, December 21, 2024
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नीति के दोहे

भारतीय संस्कृति का आधार नीति है। यह मनुष्य को आचरण की शिक्षा देती है। तथा संकट के समय में भी अपने धर्म एवं कर्त्तव्य पर टिके रहने के लिये प्रेरित करती है। चाणक्य नीति, विदुर नीति एवं कृष्ण नीति के नाम से अलग-अलग नीतियां प्रचलित हैं। यही कारण है कि संस्कृत एवं हिन्दी साहित्य में नीति के दोहे लिखने की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। हर विद्वान कवि ने नीति के दोहे लिखकर इस परम्परा का निर्वहन किया है। वस्तुतः नीति के दोहे कवि के सामाजिक सरोकार का प्रतिबिम्ब हैं। केसरीसिंह द्वारा लिखे गये नीति के दोहे भारतीय समाज को आज भी नव ऊर्जा प्रदान करने में सक्षम हैं। उनके द्वारा लिखे गये नीति के कुछ दोहे इस प्रकार से हैं-

जड़ शरीर के स्वार्थ में जग बन रहा विभोर।

उलट पुलटते दर नहिं, आज और कल और।।

तुच्छ देह सुख क्षणिक में, उलझ रहा संसार।

पलट रहा पल पलहिं में, आज द्वेष कल प्यार।।

तरु मुरझाये पत्र तें, प्रगट करत निज प्यास।

दै न दैहि जल मेघ तऊ, छाया की दृढ़ आश।।

सज्जन रंचहु नेह चख, जीवन सुख निबहन्त

ज्यों लघु छज्जे छाँह में, भव्य सु भौन रहन्त।।

धर्म कर्म की ओट घरि, निज हित जगत बनात।

केवल इक पालन करत, बिन स्वारथ ब्रजनाथ।।

पूर्ण ब्रह्म के बिन नहीं, कोऊ जग निर्दोष।

सज्जन पर गुण गान कर, पावत मन संतोष।।

सुन्दर तन को छाँड कर, घावहिं ढूँढन जात।

वे मक्खी से नीच नर, निंदक चुगल कहात।।

गुण देखै भी चुप रहे, दम्भी अरु अप्रतीभ।

वह अपराधी ईश को, वृथा मिली तिंहिँ जीभ।।

ढिग अनेक सरवर भरे, सबकी तृषा बुझाय।

मेघ बूंद की आश पैं, चातक प्यासो जाय।।

कहा कहौं कहत न बने, कही झूठ सब होय।

मूक रहन यातें भलो, हिय की हिय में जोय।।

सात्विक और सुपात्र में दियो दान जग माहिं।

वन्दनीय शास्त्रन कह्यो, वही अमर रहि जाहिं।।

शुद्ध नीति निरमल चरित, क्षमा सत्य थिर तन्त्र।

अमद अलोभ उदारता, यह वशीकरण को मन्त्र।।

टके बिना अटके रहें, टके टके के जोर।

बनिये गति बनिये रहें, यहें न मानें ढोर।।

कवि कोविद कर्मठ चतुर, दिन काटे दुख संग।

गहली लक्ष्मी नँह गिणें, अणघड़ मूढ़ अपंग।।

किण रा ही दिन एक-सा, रह्या न रहसी फेर।

सहज बणे अहसान फिर, बणी समय री बेर।।

मंत्र शक्ति बिन बरन नहीं, नहिं औषध बिन मूल।

त्यों अयोग्य कोऊ नहीं, यो जग दुलभ उसूल।।

उदय होत नक्षत्र बहु, जिनतें लाभ न आश।

उदय भलो वा मित्र को, जिहिं जग होत प्रकाश।।

बनी सु ब्रज के काठ की, तिरी यमुन उर छेम।

नैया जीरन व्ही तऊ, करत कन्हैया प्रेम।।

कामधेनु गैया हुती, पोषत मैया नेम।

दूध सूखि लतियात तउ, करत कन्हैया प्रेम।।

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