केसरीसिंह ने अपने प्रशसंकों एवं मित्रों के कहने पर अपनी पद्यमय आत्कथा लिखी जिसके कुछ अंश इस प्रकार से हैं-
साम्राज्य शक्ती शत्रु व्ही सर्वस्व था सो गढ़ गया,
प्रिय वीर पुत्र प्रताप-सा वेदी बली पर चढ़ गया।
भ्रात जोरावर हुआ प्यारा निछावर पथ वही,
पतित-पावन दीनबंधो! शरण इक तेरी गही।।1।।
विश्वासघाती हुए साथी (जो) सुख सुनाते मरण में,
समय पड़ने पर हहा! तजि गये शत्रू शरण में।
काल कोठरि कठिन कारागार की साक्षी रही,
पतित-पावन दीनबंधो! शरण इक तेरी गही।।2।।
स्वार्थी सहोदर ने भरी कारी कलेजे चुटकियाँ,
भयभीत बांधव मित्र गण ने भी चुराई अँखियाँ।
देशभक्ती पर विषम उपहास की तानें सही,
पतित-पावन दीनबंधो! शरण इक तेरी गही।।3।।
घाव दुःख क सह लिए कुछ धीर हूँ अभिमान था,
किंतु सच आधार में प्राणेश्वरी का प्राण था।
उस ‘मणी’ बिन हो गयी अंधकार मय सारी मही,
पतित-पावन दीनबंधो! शरण इक तेरी गही।।4।।
अज हौं न मरी जननि का दासत्व बंधन कट चुका,
मातृ-क्रँदन मांगना आहूतियों का नहीं रुका।
बोटियाँ तन की उड़ें अभिलाष अब भी है यही,
पतित-पावन दीनबंधो! शरण इक तेरी गही।।5।।
दोहा
विपदा घन सिर पर घुटे, उठे सकल आधार
ग्राम धाम सब ही लुटे, बिछुड़े प्रिय परिवार।।1।।
राम-चरित सिखवत यही, है समर्थ विधि हाथ।
दिन देख्यो देखी निशा, पुनरपि भयो प्रभात।।2।।
वर्ष चतुर्दिश विपत्ति के, ढाहत विकट बलाय।
कहा कथा मो दीन की, राम हि दिये रुलाय।।3।।
राम सिया के साथ में, पुनि सनाथ गृह कीन्ह।
हन्त! विपत्ति के अंत में, मेरी ‘मणि’ रही न।।4।।
कहत विज्ञ इतिहास को, पुनरावर्त्त प्रयोग।
नृप उमेद कवि ‘केहरी’ कृष्ण सुदामा योग।।5।।
मन उमंगि सब ही मिले, राव रंक रजपूत।
यह कोलाहल कान परि, भर्यो खलन हिय भूत।।6।।
कायर चुगली करन में, होत दक्ष हित साधि।
क्षत्रिय-शिक्षा को दई, राज-विरोध उपाधि।।7।।
अंग-भंग के रंग तें, तजी बंग हिय हार।
सद्य ही दाझी दूध की, चौंकि परी सरकार।।8।।
गह्यो मोहि गिनि अग्रणी, रह्यो न धरीज रंच।
नीति कुटिल पथ ही जँच्यो, विरच्यो विकट प्रपंच।।9।।
पड़ि भागे वे भेड़ ज्यों, जो देते कर पीठ।
एक धर्म के प्रेम-बल, दिवस निभाये नीठ।।10।।
स्वारथ-रत स्वामिहु सहज, यह सुयोग निज पाय।
द्वादस पीढ़िन की कठिन, सेवा दिय बिसराय।।11।।
सबहि हर्यो विष तें भर्यो, कर्यो क्रूर आदेश।
रहनन पैहों छिनहिं यहाँ, जो प्रिय लज्जा लेश।।12।।
ले अबोध असहाय शिशु, कढ़ि अबला तजि भौंन।
सकल नगर आँसू लखत, कियो पितृ-गृह गौन।।13।।