ई.566 से पूर्व किसी समय में स्थापित होने वाला गुहिल राजवंश, भारत की राष्ट्रीय राजनीति में लगभग 1400 वर्ष तक महत्ती भूमिका निभाता रहा। इस तरह की घटना विश्व के अन्य किसी भू-क्षेत्र में घटित नहीं हुई। कोई भी राजवंश न तो इतने दीर्घ काल तक अपना अस्तित्व बनाये रख सका और न ही कोई राजवंश इतना धनी एवं गौरवशाली हुआ। घास की रोटियां खाने वाले महाराणाओं ने जितना स्वर्ण, रजत एवं रत्न ब्राह्मणों, निर्धनों एवं जन सामान्य को तुलादान में दे दिया, उतना ऐश्वर्य तो इंग्लैण्ड की उस महारानी विक्टोरिया के पास भी नहीं था जिसके लिये कहा जाता है कि उसके राज्य में कभी सूर्य नहीं डूबता। विश्व में मेवाड़ के अतिरिक्त एक भी राजवंश ऐसा नहीं हुआ जिसने अपने सिद्धांतों को कभी नहीं छोड़ा।
यह भारत भूमि का दुर्भाग्य था कि सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में भारत भर के हिन्दू राजाओं ने अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर, गुहिलों की मित्रता त्यागकर मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। फिर भी मेवाड़ का राजवंश भगवान श्रीराम के आदर्शों पर चलता हुआ जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से बढ़कर मानता रहा और भारत राष्ट्र की सेवा करता रहा। मेवाड़ के सामंतों के झगड़ों ने मेवाड़ को सदैव कमजोर किया। इसीके चलते महाराणा सांगा तथा महाराणा राजसिंह को विष दिया गया।
यह भी देश का दुर्भाग्य था कि जब मुगल कमजोर हो गये तब राजनीतिक परिदृश्य पर अविश्वसनीय और मर्यादाहीन मराठा सरदारों का उदय हुआ जिन्होंने न केवल मेवाड़ को अपितु उत्तर भारत की प्रत्येक रियासत को चूसकर नष्ट होने के कगार पर ला खड़ा किया। यह भी देश का दुर्भाग्य था कि जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मराठों की कमर तोड़ डाली तब देशी रियासतों में पिण्डारियों ने विंध्वस मचाना आरम्भ कर दिया। सामंतों के झगड़ों, मराठों के आक्रमणों एवं पिण्डारियों की लूटमार से निर्बल हुए मेवाड़ की प्रजा की रक्षा के लिये महाराणा भीमसिंह को अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी किंतु महाराणा अपनी उच्चता को बनाये रहा। अंग्रेज अधिकारियों ने अनेक बार इस उच्चता को कम करने का प्रयास किया किंतु महाराणाओं ने अपनी टेक नहीं छोड़ी।
ई.1903 एवं 1911 के दिल्ली दरबारों में भाग न लेकर, महाराणाओं ने भारत की जनता में राष्ट्रीय गौरव एवं उत्साह का नवीन संचार किया। महाराणाओं ने नरेन्द्र मण्डल को मंच बनाकर कभी उथली राजनीति नहीं की। न ही वे क्रिप्स कमीशन और कैबीनेट कमीशन के समक्ष निरर्थक बहस करते हुए दिखाई दिये और न ही उन्होंने स्वयं को भारत की आजादी की नाव के समक्ष मार्ग की चट्टान की तरह प्रस्तुत किया। मेवाड़ के महाराणा, भारत की आजादी के सहज समर्थक थे।
यही कारण था कि स्वतंत्र भारत में भी राजनीतिज्ञों से लेकर इतिहास लेखकों ने मेवाड़ के महाराणाओं के अवदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की। 30 मार्च 1949 को राजस्थान के उद्घाटन के अवसर पर सरदार पटेल का यह कहना कि हमने महाराणा प्रताप का सपना साकार कर दिया है, महाराणाओं के राष्ट्रीय अवदान का समुचित मूल्यांकन था।
वी. पी. मेनन ने मेवाड़ राजवंश तथा मेवाड़ के महाराणाओं की सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए लिखा है- ‘उदयपुर राजपरिवार भारत के राजपूत राजाओं में प्रथम स्थान एवं महत्त्व रखता है। इस राजकुल की स्थापना रामायण के नायक राम के वंशज कनकसेन द्वारा की गई थी। भारत में अन्य कोई राज्य इतने पराक्रम से एवं इतने दीर्घ काल तक मुसलमानों का प्रतिरोध नहीं कर सका था जितना कि मेवाड़ ने किया। इस राजपरिवार की बड़ाई इस बात में भी है कि इसने अपनी किसी लड़की का विवाह किसी भी मुस्लिम शासक से नहीं किया। यह राजपरिवार महान् गहलोत वंश की सिसोदिया शाखा से निकला है। राजपूताने में इस राजवंश की स्थापना बापा रावल ने की थी जिसने, ईडर के भीलों द्वारा निकाल दिये जाने के बाद कुछ वर्षों तक तक उत्तरी मेवाड़ के जंगली क्षेत्रों में भटकने के पश्चात् ई.734 में अपने आप को चित्तौड़ एवं मेवाड़ में स्थापित कर लिया।’
भारतीय रियासतों के एकीककरण के इतिहास लेखक डी. आर. मानकेकर ने महाराणाओं की सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए लिखा है- ‘मेवाड़ का राजवंश संभवतः संसार का सबसे पुराना राजवंश है। इस राजवंश की 75 राजाओं की अटूट श्ृंखला ने 1400 साल तक शासन किया। मेवाड़ के महाराणा राजपूत सर्वोत्तम शौर्य, साहस एवं सच्चाई की अद्भुत परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। देश की कुछ महानतम लोकगाथाएं एवं आख्यानिकाएं, इस विशिष्ट राजकुल के सदस्यों के वीरत्वपूर्ण एवं देशभक्तिपूर्ण कृत्यों के बारे में गूंथी गई हैं। बापा रावल, राणा सांगा, राणा प्रताप, सुंदर रानी पद्मििनी एवं गायिका-संत मीरां वे नाम हैं जो भारत के इतिहास से जुड़े हुए हैं। राजपूत राजाओं में से महाराणा अकेले राजा थे जिन्होंने मुगलों के समक्ष झुकने से मना कर दिया। वे आठ सौ साल तक मुस्लिम आक्रांताओं के विरुद्ध दृढ़तापूर्वक लड़ते रहे और अपने राज्य की स्वतंत्रता को बनाये रखने में सफल रहे। महाराणा की कुलीनता ने उनकी शक्ति को बनाये रखा।’
मानकेकर मेवाड़ की समग्र राजनीतिक व्यवस्था का मूल्यांकन करते हुए आगे लिखते हैं- ‘मेवाड़ के महाराणा, अपनी तरह की अकेली तालमेल युक्त संस्था थी, किसी एक व्यक्ति का उद्यम नहीं था। महाराणा निरंकुश या स्वेच्छाचारी अथवा झगड़ालू नहीं था। अपितु सच्चे अर्थों में हिन्दू राजत्व की परम्परागत व्यवस्था था। इसलिये मेवाड़ का महाराणा भारत के लोगों के हृदयों में ऊष्णता भरा स्थान रखता है तथा भारत के राजपूत राजाओं में एक मत से सर्वोच्च स्थान रखता है। महाराणा, समस्त हिन्दू राजाओं में अपनी सम्पन्नता के लिये नहीं अपितु अपने राजकुल के स्वर्णिम इतिहास एवं परम्पराओं के लिये सर्वोच्च स्थान रखता है।
महाराणा का दयालु शासन, वास्तव में रामायण में वर्णित राज्य की साकार व्याख्या है जिसमें सबके लिये न्याय एवं समतापूर्ण व्यवहार है तथा राजा प्रत्येक परिवादी की पहुंच के भीतर है। महाराणा सज्जनसिंह, महाराणा फतेहसिंह तथा महाराणा भूपालसिंह आधुनिक उदयपुर राज्य के निर्माता हैं। उनके शासन काल में नियमित न्याय पद्धति लागू थी जो कि शासन से पूरी तरह विलग थी। इन महाराणाओं के शासन काल में आधुनिक शिक्षण संस्थाएं स्थापित की गईं। प्रजा की भलाई के लिये नये विभाग स्थापित किये गये तथा राज्य में उत्तरदायी सरकारों की स्थापना के बीज बोये गये।
इसमें कोई संदेह नहीं कि कतिपय राणाओं को छोड़कर अधिकांश महाराणाओं ने हर काल में भारत की राष्ट्रीय राजनीति में अपना प्रभाव एवं हस्तक्षेप बनाये रखा। आने वाले अनेक युगों तक महाराणाओं की यह पुनीत गाथा आदर से स्मरण की जायेगी। वर्तमान समय में भी मेवाड़ राजवंश की रचनात्मक भूमिका ने राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी गहरी पकड़ बना रखी है।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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