सबसे पहले शाहजहाँ के दूसरे नम्बर के शहजादे शाहशुजा ने स्वयं को बादशाह घोषित किया जो इन दिनों बंगाल का सूबेदार था। उसे औरंगज़ेब ने अपनी चिट्ठियों में हिन्दुस्तान का भावी बादशाह कहकर सम्बोधित किया था जिससे शाहशुजा के हौंसले बुलंद थे। उसे लगता था कि औरंगज़ेब और मुराद, दारा शिकोह की जगह शाहशुजा को बादशाह के तख्त पर बैठे हुए देखना चाहते थे इसलिए वे दोनों शहजादे, दूसरे नम्बर के भाई शाहशुजा का साथ देने को तैयार थे।
शाहशुजा ने अपनी सेना के साथ आगरा के लिए कूच कर दिया और अपने कूच की जानकारी दोनों छोटे भाइयों को लिख भेजी तथा एक स्वतंत्र बादशाह की तरह उन्हें परवाने भिजवाए कि वे भी अपनी-अपनी सेनाओं के साथ बिना किसी विलम्ब के आगरा की ओर कूच करें।
शाहशुजा ने अपनी सेना में प्रचारित किया कि दुष्ट दारा शिकोह ने बादशाह सलामत को जहर देकर आगरा पर कब्जा कर लिया है इसलिए मैं उसे दण्ड देने जा रहा हूँ। रास्ते में उसे शाही फरमान मिला कि वह फौरन अपनी सेनाओं के साथ बंगाल की ओर लौट जाए किंतु शाहशुजा ने शाही फरमान की तनिक भी परवाह नहीं की। उसने राजमहल नामक स्थान पर अपनी ताजपोशी की रस्म करवाकर स्वयं को स्वतंत्र बादशाह घोषित कर दिया।
शाहशुजा अपनी विशाल सेनाओं को लेकर बड़ी तेजी से गंगा के किनारे-किनारे आगे बढ़ा। मार्ग में उसे किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा और जनवरी 1658 में वह बनारस तक आ पहुँचा। विद्रोही शाहशुजा का मार्ग रोकने के लिए वली-ए-अहद दारा शिकोह ने अपने पुत्र सुलेमान शिकोह की अध्यक्षता में एक सेना बनारस की तरफ भेजी। मिर्जाराजा जयसिंह तथा दिलेर खाँ रूहेला को भी सुलेमान शिकोह की सहायता करने के लिए भेजा गया। जयसिंह को सुलेमान शिकोह का ‘अतालीक और कारगुजार’ घोषित किया गया।
मारवाड़ नरेश जसवंतसिंह को भी अपनी सेनाएं लेकर शाहशुजा पर कार्यवाही करने के आदेश दिए गए। ये सारी सेनाएं बनारस में जाकर रुक र्गईं। सुलेमान शिकोह ने एक बार फिर बादशाही फरमान अपने चाचा शाहशुजा को भिजवाया कि वह तुरंत बंगाल की तरफ लौट जाए तथा फिर किसी मुबारक समय में बादशाह के कदमों में गिरकर अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करे किंतु शाहशुजा ने इस बार भी शाही फरमान को हवा में उड़ा दिया।
आखिर शाहशुजा की तरफ से पूरी तरह निराश होकर सुलेमान शिकोह ने शाही सेनाओं को आदेश दिए कि वे शाहशुजा की सेनाओं को खत्म कर दें तथा बगावत पर उतारू शहजादे को हर हाल में बंदी बना कर हमारे हुजूर में पेश करें। बनारस के निकट बहादुरपुर नामक स्थान पर दोनों ओर की सेनाओं में भीषण संग्राम हुआ जिसमें शाहशुजा परास्त हो गया और उसने सुलेमान शिकोह के सामने सन्धि का प्रस्ताव रखा।
आगरा में बैठा दारा चाहता था कि सुलेमान, शाहशुजा से सख्ती से निबटे किंतु दारा को ज्ञात हो चुका था कि शहजादा मुराद गुजरात से और शहजादा औरंगज़ेब दक्षिण से अपनी-अपनी सेनाएं लेकर राजधानी की ओर बढ़ रहे हैं तो उसने बादशाह को सारी स्थिति स्पष्ट कर दी। बादशाह ने दारा से कहा कि वह शाहशुजा से संधि करके उसे वापस बंगाल भेज दे तथा सुलेमान शिकोह और मिर्जाराजा जयसिंह को आगरा बुला ले।
वली-ए-अहद दारा ने बादशाह की सलाह मान ली और उसने अपने छोटे भाई शाहशुजा से संधि कर ली। इस सन्धि के अनुसार बादशाह ने शाहशुजा को उड़ीसा, बंगाल तथा पूर्वी बिहार के प्रान्त दे दिए। इसके बदले में शाहशुजा ने भविष्य में फिर कभी बगावत नहीं करने तथा मुंगेर के पास स्थित राजमहल को अपनी राजधानी बनाकर वहीं तक सीमित रहने का वचन दिया। यह दारा शिकोह की सेनाओं की पहली और संभवतः अंतिम विजय थी
शाहशुजा, अपनी सेनाओं के परास्त हो जाने पर भी दारा से संधि नहीं करना चाहता था क्योंकि उसे पता था कि मुराद और और औरंगज़ेब के आने पर उसका पलड़ा भारी हो जाएगा। इसलिए वह संधि के बहाने, केवल समय व्यतीत कर रहा था किंतु अचानक ही उसने सुना कि शहजादे मुराद ने भी स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया है तो वह चिंता में पड़ गया और दारा से हुई संधि की शर्तों के अनुसार बंगाल की तरफ मुड़ गया।
जब औरंगज़ेब को मालूम हुआ कि शाहशुजा अपनी सेनाएं लेकर बंगाल के लिए रवाना हो गया, तब वह बहुत झल्लाया। उसकी योजना थी कि शाहशुजा शाही सेना के साथ-साथ महाराजा जयसिंह तथा महाराजा जसवंतसिंह की सेनाओं को बनारस में ही उलझाए रखे ताकि औरंगज़ेब आसानी से आगरा तक पहुँच जाए किंतु शाहशुजा ने औरंगज़ेब की योजना पर पानी फेर दिया था।