शाहजहाँ यद्यपि पूर्ण स्वस्थ हो गया था फिर भी शरीर में पहले जैसी फुर्ती नहीं आ पाई थी। हकीमों ने उसे सलाह दी कि संभवतः दिल्ली की आबोहवा बादशाह के लिए मुफीद नहीं है। इसलिए बेहतर होगा कि बादाशह सलामत कुछ दिनों के लिए आगरा या कहीं और जाकर रहें।
शाहजहाँ तो चाहता था कि जिस तरह उसके पिता जहाँगीर ने स्वास्थ्य कारणों से अपनी वृद्धावस्था का अधिकांश समय काश्मीर में व्यतीत किया था, उसी तरह शाहजहाँ भी काश्मीर में जाकर रहे किंतु यदि शाहजहाँ ने दिल्ली या आगरा की जगह कहीं और जाकर दीर्घ प्रवास किया तो शाहजहाँ के शहजादे भी उसी तरह बगावत पर उतर आएंगे जिस तरह वह स्वयं अपने पिता जहाँगीर की बीमारी की सूचना पाकर मोर्चा छोड़कर दिल्ली आ गया था।
अकबर के समय से लेकर शाहजहाँ द्वारा दिल्ली में लाल किला बनाए जाने तक आगरा ही मुगलों की मुख्य राजधानी रही थी। हालांकि अकबर आगरा के निकट फतेहपुर सीकरी के महलों में रहा करता था किंतु राजधानी तो उस समय भी आगरा ही थी। शाहजहाँ ने अनुभव किया कि जब तक वह आगरा में अपनी राजधानी रखे हुए था, उसे सल्तनत सम्बन्धी मसलों में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई थी। अतः उसने स्वास्थ्य-लाभ करने एवं आबोहवा बदलने के लिए एक बार फिर आगरा जाने का विचार किया।
आगरा जाने का एक कारण और भी था। शाहजहाँ की चहेती बेगम मुमताज महल की कब्र भी आगरा में थी जिसे मरे अब 26 साल हो चुके थे। आगरा में रहते हुए वह कुछ पलों के लिए मुमताज की कब्र के पास जाकर बैठ सकता था जहाँ मुमताज की रूह सोई पड़ी थी तथा कयामत होने का इंतजार कर रही थी।
शाहजहाँ यह भी चाहता था कि जिस ताजमहल को उसने इतने चाव से बनवाया था तथा धरती भर में जिसकी बराबरी कोई दूसरी इमारत नहीं कर सकती थी, उस ताजमहल को भी वह कुछ समय के लिए ही सही अपनी आँखों से निहार कर तृप्ति का अनुभव करे।
आगरा से शाहजहाँ के बचपन की स्मृतियां भी जुड़ी हुई थीं। आगरा के लाल किले में ही वह खेल-कूद कर बड़ा हुआ था। उसके बाबा अकबर ने लाल पत्थरों का यह विशाल दुर्ग, स्वयं खड़े रहकर अपनी आँखों के सामने बनवाया था जिस पर हालांकि शाहजहाँ के बाप जहाँगीर ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था किंतु शाहजहाँ की ताजपोशी इसी किले में हुई थी तथा शाहजहाँ ने लाल पत्थरों के इस भव्य दुर्ग के भीतर सफेद संगमरमर की कई इमारतें बनाई थीं। एक बार फिर से शाहजहाँ उन्हीं इमारतों में जाकर रहना चाहता था।
इन सब कारणों से शाहजहाँ ने अपनी राजधानी को एक बार फिर दिल्ली से आगरा ले जाने का निर्णय लिया और नजूमियों से अच्छा वक्त मुकर्रर करवाकर एक दिन वह अपने तमाम हरम के साथ, हाथियों पर बैठकर आगरा के लिए कूच कर गया। उसके हरम में रूप और यौवन के भार से लदी हुई न जाने कितने देशों की शहजादियाँ, राजकुमारियां और लौण्डियाएं भरी पड़ी थीं। वे भी अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार हाथियों पालकियों, बग्घियों और बहलियों पर सवार होकर बड़े ठसके से लाल किले से बाहर निकलीं। हालांकि उनके हाथियों के हौदों, पालकियों के झरोखों और बग्घियों तथा बहलियों को खूबसूरत झीने पर्दों से ढंका गया था किंतु रूप के लशकारे दूर तक झलक मारते थे जैसे रात की रानी बहुत दूर से अपनी उपस्थिति का अहसास करवाती है।
जब पूरा हरम हाथियों एवं पालकियों आदि पर सवार हो गया और मुँह पर पर्दा डाले एवं हाथ में नंगी तलवारें लिए तातारी जनाना सिपाहियों ने मुगलिया हरम को चारों ओर से घेर लिया तब शाहजहाँ, शाही महल की ख्वाबगाह से बाहर निकला। बादशाह ने ख्वाबगाह की दीवारों पर देश-देश से लाकर सजाए गए मोती, माणक, हीरे, पन्ने, लाल, याकूत, गोमेद तथा चमकीले अकीकों पर आखिरी नजर डाली, जाने क्यों उसे लग रहा था कि ये अब आखिरी बार देखने में आ रहे हैं और हमेशा-हमेशा के लिए शाहजहाँ से दूर हो जाऐंगे।
ख्वाबगाह की छतों पर लटके महंगे झाड़-फानूसों और फर्श पर बिछे ईरानी गलीचों से विदा लेते हुए भी उसका मन कमजोर पड़ रहा था, शायद वे भी अब हमेशा के लिए उससे दूर होने जा रहे थे। इन्हीं फानूसों के नीचे और इन्हीं गलीचों के ऊपर शाहजहाँ ने जाने कितनी महफिलें सजाई थीं। एक नजर उसने उन रंगीन शमादानों पर भी डाली जिनसे रौशनी और खुशबू की पिचकारियां सी छूटती थीं। शाहजहाँ चार कदम तेजी से चला और अपनी ख्वाबगाह से बाहर हो गया।
जब शाहजहाँ का हाथी, लाल किले के भीतर बसे शाहजहानाबाद से बाहर निकलने लगा तो शाहजहाँ ने बड़ी हसरत भरी निगाहों से पीछे छूटते जा रहे बागीचों को देखा जिन्हें मरहूम मुमताज महल ने अपने हाथों से सजाया था और जिसके हाथों की मेहंदी की खूशबू आज भी इन बागीचों की मिट्टी में रची-बसी थी।