मानसिंह और प्रतापसिंह के बीच हुआ यह युद्ध हल्दीघाटी युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है किंतु यह युद्ध हल्दीघाटी के छोटे से मैदान तक ही सीमित नहीं था। जिस स्थान पर यह युद्ध हुआ, उस स्थान के निकट गोगूंदा, हल्दीघाटी, रक्ततलाई, खमणोर आदि प्रसिद्ध स्थल हैं। इन समस्त स्थलों पर दोनों पक्षों में युद्ध हुआ। एक प्राचीन दोहे में कहा गया है- ‘गोगूंदा रै घाट पर मचियो घाण मथाण।’
राजप्रशस्ति में कहा गया है कि खमणोर गांव में राणा प्रताप और मानसिंह के बीच भीषण युद्ध हुआ। इसी कवि के लिखे अमरकाव्य में कहा गया है कि खमणोर के बीच इतना रक्तपात हुआ कि बनास नदी का पानी लाल हो गया। महाराणा प्रताप के समकालीन कवि माला सांदू ने ‘झूलणा महाराणा प्रतापसिंहजी रा’ में लिखा है- ‘हल्दीघाटी के मैदान में प्रताप अपने अश्वारोही दल सहित पहुँचा परंतु घात-प्रतिघात खमणोर के मैदान में ही हुए। राण रासौ में लिखा है- दोनों दल तुमुल घोष के साथ खमणोर नामक स्थान पर सोत्साह एक दूसरे का सामना करने लगे।
प्रताप के छोटे भाई शक्तिसिंह के सम्मान में गिरधर आसिया द्वारा लिखित ‘सगतरासौ’ में कहा गया है- ‘खमणोर नामक स्थान पर युद्ध हुआ।’ मुहणोत नैणसी के अनुसार’ बनास के तट पर खमणोर गांव के पास युद्ध हुआ।’[1] एक अज्ञात कवि द्वारा लिखित परंतु सजीव वर्णन से सजे ‘पतायण’ में बताया गया है कि ‘सेना घूमती झूमती खमणोर के मैदान में पहुँची।’ एक और अज्ञात कवि ने कहा है कि ‘खमणोर के युद्ध में राणा प्रताप ने विकट से विकट योद्धाओं को मार कर गिरा दिया।’
डॉ. ओझा ने लिखा है- ‘हल्दीघाटी से कुछ ही दूर खमणोर के निकट दोनों सेनाओं का भीषण युद्ध हि.स.984 रवि उल्अव्वल के प्रारम्भ (वि.सं.1633 द्वितीय ज्येष्ठ सुदि, 18 जून 1576) में हुआ।’[2] डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है कि ‘युद्ध और कहीं नहीं, उस मैदान में हुआ जो अब बादशाह का बाग कहलाता है।’ घाटी से ठीक नीचे इस बाग की एक ओर खमनोर और दूसरी ओर भागल गांव है।[3]
डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव स्वयं तीन बार इस स्थान की जांच करने आये थे। एक बार उनके साथ सुप्रसिद्ध इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार भी थे। उन्होंने इस प्रश्न का विवेचन करते हुए लिखा है- ‘हल्दीघाटी एक हल्दी के रंग का ही पीला पहाड़ी दर्रा है। यह दक्षिण से उत्तर पूर्व की ओर डेढ़ मील तक फैला हुआ है, और खमनौर गांव के ठीक दक्षिण में आकर समाप्त होता है। इसलिये अबुल फजल ने हल्दीघाटी के युद्ध को खमनोर का युद्ध कहा है।
यद्यपि बदायूनी द्वारा दिये गये विवरण के अनुसार यह युद्ध गोगूंदा या खमनोर में न होकर दर्रे में ही कहीं भीतर की ओर हुआ था, जो इतना संकरा है कि चार सौ वर्ष बाद अभी भी इसके अधिकांश भागों में से केवल दो आदमी ही कठिनाई से साथ-साथ इसमें गुजर सकते हैं। हल्दीघाटी के भीतर बादशाहबाग नाम से प्रसिद्ध एक मैदान अवश्य है पर युद्ध इसमें भी नहीं हो सकता। कम से कम अनुमान करने पर भी दोनों सेनाओं में कुल मिलाकर 8000 सैनिक और इतने ही मिले-जुले घोड़े और हाथी थे। इतनी सेना के लिये बादशाहबाग बहुत ही छोटा युद्धक्षेत्र है। बदायूनी सैनिकों के जिस फैलाव और युद्ध की जिन चालों की चर्चा करता है, वे सब इस सीमित क्षेत्र में सम्भव नहीं थीं।’
बदायूनी निश्चित रूप से कहता है कि मुगल सेना का बायां पक्ष घाटी के मुहाने पर रखा गया था। घाटी का यह मुहाना खमनोर से 2-3 मील दक्षिण-पूर्व में है। इससे प्रतीत होता है कि मुगलों का मध्य और दाहिना पक्ष पूर्व में घाटी के मुहाने से लेकर पश्चिम में बनास नदी के तट तक फैला हुआ था। बदायूनी आगे लिखता है कि राणा की सेना दर्रे के पीछे से आई थी और हकीम सूर के अधीन हरावल पहाड़ों के पश्चिमी भाग से निकला था। जबकि स्वयं राणा हकीम सूर के पीछे दर्रे के कमर जैसे सकरे भाग से बाहर आया था।
इस प्रकार यह निश्चित किया जा सकता है कि हल्दीघाटी का युद्ध हल्दीघाटी के मुहाने पर दर्रे और खमनोर गांव के बीच के मैदान में हुआ था। बदायूनी ठीक लिखता है कि भूमि कठोर तथा दुर्गम थी और पत्थरों से जड़ी एवं कांटेदार झाड़ियों से ढंकी थी। (आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने भी इसे इसी तरह पाया था।) दोनों सेनाओं के हरावली दस्तों की मुठभेड़ यहीं हुई थी और शेष युद्ध खमनोर के दक्षिण-पश्चिम के मैदान में हुआ था, जो बनास नदी के दक्षिण तट तक फैला हुआ है।[4]
जेम्स टॉड ने उन्नीसवीं शताब्दी में यह समस्त प्रदेश स्वयं देखा था। वह इस प्रदेश की प्राकृतिक बनावट के वर्णन में लिखता है कि इस सारे प्रदेश में पर्वत, जंगल, घाटी और झरने हैं, इसमें ऐसे खुले स्थान भी थे जहाँ बड़ी सेनाएं अपने पड़ाव डाल सकें। टॉड लिखता है कि हल्दीघाटी का मैदान पहाड़ की गर्दन के निचले भाग में था जिसने घाटी को बंद कर रखा था और उसमें पहुँचना प्रायः असंभव था। ऊपर और नीचे राजपूत तैनात किये गये थे और पहाड़ों के किनारों और चोटियों पर जहाँ से लड़ाई का मैदान नीचे की ओर दीखता था, वफादार आदिवासी भील, अपने तीर कमान तथा लड़ाकू शत्रु पर लुढ़काने के लिये बड़े-बड़े पत्थरों के साथ तैनात किये गये थे।
इस दर्रे पर प्रताप डटा था, ‘मेवाड़ के फूलों के साथ।’ इसकी रक्षा के लिये युद्ध भी बड़ा गौरवशाली हुआ। अपने राजा के साहस का अनुसरण करते हुए जो केसरिया झण्डे के आगे-आगे वहीं जा पहुँचता था जहाँ युद्ध सबसे भयानक हो रहा था। वंश के वंश प्रचण्ड निर्भीकता के साथ आगे बढ़े जाते थे।[5] जेम्स टॉड पर इस युद्ध को ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ के नाम से प्रसिद्ध करने का दायित्व है। वीर विनोद में भी इस युद्ध को ‘हल्दीघाटी की लड़ाई’ कहा गया है।[6] जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी को हल्दीघाट लिखा है इस कारण सर यदुनाथ सरकार, श्रीराम शर्मा आदि आधुनिक इतिहासकारों ने भी ‘हल्दीघाट’ शब्द का ही प्रयोग किया है।[7]
[1] राजेन्द्रशंकर भट्ट, उदयसिंह, प्रतापसिंह, अमरसिंह, मेवाड़ के महाराणा और शांहशाह अकबर, पृ. 223-224.
[2] ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 432-33.
[3] गोपीनाथ शर्मा, मेवाड़, पृ. 86.
[4] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, पूर्वोक्त, पृ. 200.
[5] राजेन्द्रशंकर भट्ट, पूर्वोक्त, पृ. 225.
[6] श्यामलदास, पूर्वोक्त, पृ. 150.
[7] राजेन्द्रशंकर भट्ट, पूर्वोक्त, पृ. 223-24.