नागौर दुर्ग का प्राचीन नाम अहिच्छत्रपुर था। यह एक प्राचीन दुर्ग था जिसकी नींव गुप्त साम्राज्य का उद्भव होने से पहले नागवंशीय राजाओं ने मिट्टी के दुर्ग के रूप में रखी थी। इसके चारों ओर काफी गहरी और चौड़ी परिघा खुदी हुई थी। परिघा में जल भरा रहता था जिसमें खतरनाक मगरमच्छ पड़े रहते थे। समुद्रगुप्त ने नागों को परास्त करके उन्हें अपने अधीन किया था किंतु यह दुर्ग उनके पास ही रहने दिया था। इस विजय के उपलक्ष्य में उसने चांदी के सिक्के ढलवाये थे। समय का तेज झौंका बड़े-बड़े साम्राज्यों को तिनके की भाँति ढहा देता है। गुप्तों का साम्राज्य भी समय के साथ इतिहास के नेपथ्य में चला गया तो नाग वंश के राजा भी अतीत का विषय होकर रह गये। छठी शताब्दी के आसपास यह दुर्ग चौहानों के हाथों में आया। समय की ठोकर खाकर वे भी न रहे और इस दुर्ग पर पहले बेलीम और फिर बलबन ने अधिकार कर लिया। इसी दुर्ग से बलबन ने लाहौर से लेकर रणथंभौर तक शासन किया और एक दिन भारत का बादशाह बन गया। एक दिन ऐसा भी आया कि बलवान बलबन भी धरती पर न रहा और खानजादों ने इसे अपनी राजधानी बनाया।
राठौड़ के राजा चूण्डा ने नागौर दुर्ग को खानजादों से छीना था। तब से यह दुर्ग राठौड़ों के पास ही रहा था। महाराजा विजयसिंह के पिता राजाधिराज बखतसिंह ने आसपास की सैंकड़ों मस्जिदों को तोड़कर उनके पत्थरों से इस दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाया था। आज वे पत्थर महाराजा विजयसिंह के काम आये और महाराजा दुर्ग में सुरक्षित होकर बैठ गया।
इधर तीनों राठौड़ राजा अपने-अपने मुकाम पर पहुँचे और उधर जयप्पा सिंधिया ने काकड़की से आगे बढ़कर मालकोट को घेर लिया। महाराजा विजयसिंह के आदमी अब भी मालकोट को भीतर से बंद करके बैठे थे। इसलिये काफी देर तक जयप्पा को पता नहीं चल सका कि पंछी तो रात के अंधेरे में ही उड़ चुके, खाली पिंजरा ही बहेलिये को भरमा रहा है। जब उसे वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो उसने क्रोध में भरकर मेड़ता को लूट लिया और वहाँ अपना थाना स्थापित करके नागौर के लिये चल पड़ा। वह महाराजा विजयसिंह को संभलने का अवसर नहीं देना चाहता था।
उधर महाराजा विजयसिंह ने एक भी क्षण व्यर्थ गंवाये बिना, अपने सैनिकों को नागौर दुर्ग की मरम्मत करने पर लगा दिया और जितनी अधिक मात्रा में रसद सामग्री एकत्रित करना संभव हो पाया, उसे दुर्ग में एकत्रित करके भण्डारों में रखवा दिया। उसके आदमी तेजी से गोला बारूद भी जुटाने लगे। महाराजा जानता था कि वह एक लाख सैनिकों के होते हुए भी लड़ाई हार कर आया है। इसलिये इस बार की लड़ाई राठौड़ों का अस्तित्व बचाने के लिये होगी। इस लड़ाई के दूरगामी परिणाम होंगे। या तो राठौड़ राजपूताने की राजनीति के परिदृश्य से सदैव के लिये हट जायेंगे या फिर यहाँ से वे अपनी सफलताओं का नया इतिहास लिखेंगे।
अभी अधिक दिन नहीं बीते होंगे कि जयप्पा सिंधिया का तोपखाना नागौर दुर्ग के बाहर आ धमका। जयप्पा ने नागौर का मैदानी दुर्ग चारों ओर से घेर लिया। अहिच्छत्रपुर के नाम से विख्यात यह दुर्ग राठौड़ों के पास लगभग तब से था जब से मण्डोर और जालौर के दुर्ग उनके अधीन आये थे। यदि जोधपुर दुर्ग राठौड़ों के सिर का मुकुट था तो नागौर दुर्ग राठौड़ों की नाक था। मराठे इसी नाक तक आ पहुँचे थे।
तोपखाना नागौर पहुँच जाने के बाद जयप्पा ने अपनी सेना के चार भाग किये। एक सेना को उसने नागौर दुर्ग तक आने के समस्त रास्तों पर नियत किया जिससे दुर्ग के भीतर रसद, हथियार, गोला-बारूद और सैनिक न पहुँचने पायें। इसके बाद उसने अपने पुत्र जनकोजी के नेतृत्व में मराठों की एक सेना राठौड़ों की राजधानी जोधपुर के लिये रवाना की। जयप्पा ने एक सेना फलौदी के लिये तथा एक सेना जालौर के लिये भी रवाना की ताकि राठौड़ों से ये दुर्ग छीनकर महाराजा को घुटने टेकने के लिये विवश किया जा सके।
यह एक भयानक योजना थी। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि राठौड़ों की राजधानी सहित सारे प्रमुख दुर्ग घेर लिये जायें और राठौड़ों के राजा को राजधानी से दूर, नागौर के दुर्ग में अवरुद्ध कर दिया जाये। इससे सम्पूर्ण राठौड़ प्रभुसत्ता ही खतरे में पड़ गई थी। इस प्रकार दुर्दान्त मराठा सेनापति जयप्पा सिन्धिया ने अपनी चारों सेनाओं को अलग-अलग कामों पर लगा दिया और स्वयं महाराजा विजयसिंह को अहिच्छत्रपुर से बाहर निकालने का उपाय करने लगा।
जयप्पा के पुत्र जनकोजी सिंधिया ने नागौर से निकलकर जोधपुर का गढ़ आ घेरा। उसने गढ़ पर बारूद और अग्नि की बरसात कर दी किंतु गढ़ में मोर्चा संभाल कर बैठे सूरतसिंह चाम्पावत तथा उसके साथियों ने इस अग्नि वर्षा की परवाह नहीं की और जनकोजी जोधपुर गढ़ को हाथ नहीं लगा सका। फिर भी वह गढ़ को घेर कर बैठा रहा।
जालौर की तरफ गई हुई मराठा सेना जालौर नगर पर अधिकार करने में सफल रही किंतु जालौर का गढ़ नहीं ले सकी। वह कनकाचल पहाड़ी की तलहटी में डेरा जमा कर बैठ गई। इस कारण छोटा पंछी भी उस रास्ते से होकर दुर्ग तक नहीं पहुँच सकता था। उधर अजमेर नगर पर मराठों की जो सेना अधिकार किये हुए बैठी थी, कुछ समय बाद वह गढ़ बीठली पर अधिकार करने में सफल रही। महाराजा विजयसिंह के पास अब केवल नागौर और जोधपुर के गढ़ रह गये।
जब दिल्ली में स्थित रघुनाथराव, मल्हारराव होलकर तथा सखाराम बापू आदि मराठा सरदारों ने सुना कि जयप्पा ने नागौर के दुर्ग में राठौड़ों के महाराजा को घेर रखा है तब वे भी बड़ी संख्या में मराठा सैनिकों को एकत्रित करके नागौर के लिये रवाना हो गये। मारवाड़ के लिये ये सचमुच बुरे दिन थे। चारों दिशाओं से शत्रु सेनाएं काले बादलों की तरह उमड़-घुमड़ कर आ रही थीं। दुःख की ये काली बदलियाँ सरलता से मारवाड़ और महाराजा विजयसिंह का साथ छोड़ने वाली नहीं थी।
उदयपुर के महाराणा राजसिंह (द्वितीय) तक भी ये सारे समाचार पहुँचे। उसने सलूम्बर के रावत जैतसिंह चूण्डावत को अपना दूत बनाकर मराठों के पास भेजा ताकि दोनों पक्षों में समझौता करवाया जा सके। जैतसिंह ने नागौर पहुँचकर दोनों पक्षों से सम्पर्क किया। उसके कहने पर महाराजा विजयसिंह ने विजय भारती और राजसिंह चौहान को जयप्पा से संधिवार्त्ता के लिये नियत किया। विजयसिंह ने मराठों के समक्ष प्रस्ताव रखा कि यदि वे मारवाड़ छोड़कर चले जायें तो उन्हें युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिये पचास लाख रुपये दिये जायेंगे तथा अपदस्थ महाराजा रामसिंह को मारवाड़ रियासत में सम्मानजनक जागीर दे दी जायेगी।
मराठों ने महाराजा के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उनकी जिद थी कि वे जोधपुर के अपदस्थ महाराजा रामसिंह को फिर से जोधपुर की गद्दी पर बैठायेंगे। जबकि राठौड़ों की जिद थी कि हमारा राजा विजयसिंह ही होगा, निकम्मा और अयोग्य रामसिंह कदापि नहीं। जब संधिवार्त्ता आगे नहीं बढ़ी तो महाराजा विजयसिंह ने दिल्ली से नागौर की तरफ बढ़े चले आ रहे पेशवा के भाई रघुनाथराव से भी सम्पर्क किया। जब जयप्पा सिंधिया को इस बात का पता चला तो वह महाराजा के दूतों विजय भारती और राजसिंह चौहान पर बुरी तरह बिगड़ा और संधिवार्त्ता की प्रक्रिया बंद कर दी। जब रघुनाथराव और मल्हारराव होलकर को सिंधिया के इस रूखे व्यवहार का पता चला तो वे रुष्ट होकर, मारवाड़ आने की बजाय रूपनगर के लिये मुड़ गये। इससे महाराजा विजयसिंह ने चैन की सांस ली और जयप्पा से छुटकारा पाने का नया उपाय ढूंढने लगा।
महाराजा विजयसिंह को नागौर दुर्ग में आये हुए अब नौ माह हो चुके थे। दुर्ग में रसद सामग्री दिन प्रति दिन कम होते हुए लगभग समाप्त होने को थी। महाराजा की चिंता का पार न था। मारवाड़ हाथ से जाती दिख रही थी और शत्रु के शमन का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था।
जब घर में दरार होती है तो शत्रु उतनी ही आसानी से उसमें घुसपैठ कर लेते हैं जितनी आसानी से इस समय मराठे मारवाड़ में घुसकर बैठ गये थे। अपदस्थ महाराजा रामसिंह और नये महाराजा विजयसिंह की लड़ाई का लाभ दुर्दान्त मराठे उठा रहे थे और मारवाड़ विनाश के कगार पर आ पहुँची थी। यह निश्चित था कि यदि कुछ ही दिनों में कोई चमत्कार नहीं हुआ तो मारवाड़ को मराठों के मुँह में जाने से नहीं बचाया जा सकेगा।