Thursday, December 5, 2024
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6. काकड़की

मरुधरानाथ विजयसिंह ने अपदस्थ महाराजा रामसिंह, मराठा सेनापति जयप्पा सिन्धिया तथा जयपुर के कच्छवाहों की सम्मिलित सेनाओं को जोधपुर से लगभग साठ मील दूर मेड़ता में रोकने का निर्णय लिया। उसने अपनी सहायता के लिये बीकानेर और किशनगढ़ के राठौड़ राजाओं को भी बुलावा भेजा तथा अजमेर नगर में नियुक्त राठौड़ सेना को भी मेड़ता पहुँचने के आदेश भिजवाये। उसके आदेश के अनुसार राठौड़ सेना ने अजमेर नगर खाली कर दिया और बीठली गढ़ को भीतर से बंद करके बैठ गई।

जयप्पा सिंधिया ने राठौड़ों द्वारा रिक्त किये गये अजमेर नगर पर अधिकार करके पुष्कर में आकर अपने डेरे जमाये ताकि घोड़ों और ऊँटों को पानी की कमी नहीं रहे। जब रामसिंह का दूत विजयसिंह से वार्त्ता करके बिना किसी परिणाम के लौट आया तब सिंधिया अपने विशाल सैन्य के साथ तेज गति से मेड़ता की ओर बढ़ा।

जब ये तैयारियाँ चल ही रही थीं कि मरुधरानाथ विजयसिंह को समाचार मिले कि जैतारण में भी मराठों की एक वाहिनी भरतसिंह ऊदावत के नेतृत्व में इकट्ठी हो रही है। इस पर मरुधरानाथ ने डेवढ़ी के दरोगा अणदू को एक सेना देकर जैतारण की तरफ रवाना किया ताकि भरतसिंह उस सेना को लेकर मेड़ता नहीं पहुँच सके। अणदू अपने साथ चुने हुए सैनिकों की एक छोटी सी फौज लेकर तेज गति से जैतारण पहुँचा। उसने जैतारण पहुँचते ही बिना कोई समय गंवाये मराठों पर धावा बोल दिया। मराठे इस आक्रमण से हैरान रह गये। उनके पाँव उखड़ने में अधिक समय नहीं लगा। बहुत से मराठा सैनिक और उनके राजपूत साथी मारे गये। डेवढ़ी का दरोगा अणदू आंधी की तरह आया था और तूफान की तरह मराठा सेना को तितर बितर करके मेड़ता की ओर चल दिया।

उधर गांगरड़ा गाँव के निकट मरुधरानाथ और मराठों में छोटी सी मुठभेड़ हुई जिसमें राठौड़ों को नुक्सान उठाना पड़ा। जब जयप्पा की सेनाएं मेड़ता के निकट पहुँची तो महाराजा विजयसिंह ने मेड़ता से आगे बढ़कर काकड़की गाँव के निकट तलवारों की धार पर मराठों का स्वागत करने का निश्चय किया। महाराजा स्वयं सेना के हरावल में रहा और उसने अपने दोनों बंधु राठौड़ राजाओं को अपने दायें-बायें रखा।

14 सितम्बर 1754 की दोपहर में जब इतनी भीषण गर्मी पड़ रही थी कि सफेद हिरण भी झुलसकर काले पड़ चुके थे, हिरणखुरी गाँव के पास मराठों को राठौड़ों का तोपखाना दिखाई दिया। इस विशाल तोपखाने को देखकर मराठों के प्राण सूख गये। उन्होंने तुरंत राठौड़ों के सामने का मार्ग खाली कर दिया और अपनी घुड़सेना को दो भागों में बांटकर राठौड़ों के दायें-बायें हो गये। सामने का मार्ग खाली देखकर विजयसिंह तेजी से आगे बढ़ा। उसे पता नहीं था कि मराठे उसकी सेना को दोनों पार्श्वों से घेर रहे हैं। इधर महाराजा युद्ध की चाह में आगे बढ़ा जा रहा था और उधर उसके तोपखाने को लेकर चल रहे तोपगाड़ी वालों ने मार्ग में एक तालाब को देखकर, महाराजा को सूचित किये बिना अपने बैल, तोपगाड़ियों से खोल दिये और बैलों को पानी पिलाने के लिये रुक गये।

महाराजा यही समझता रहा कि तोपखाना उसके पीछे चल रहा है और मराठे सामने से आ रहे हैं जबकि तोपखाना पीछे रह गया था और मराठे उसे दोनों पार्श्वों से घेर चुके थे। मराठा घुड़सवार पार्श्व से सारी गतिविधियों को सावधानी पूर्वक देख रहे थे। जैसे ही तोपखाने और महाराजा के बीच दूरी अधिक हुई, मराठा घुड़सवार दोनों पार्श्वों से निकलकर तेजी से राठौड़ों के तोपखाने पर झपटे।

मराठों को सन्निकट देखकर तोपगाड़ी हांकने वालों ने चाहा कि वे अपने बैलों को तोपगाड़ी में जोतकर आगे बढ़ें किंतु मराठों ने फुर्ती से तोपखाने पर अधिकार कर लिया। यह देखकर राठौड़ों की चंदावल सेना मराठों पर झपटी। उधर महाराजा विजयसिंह को अपने आदमियों की मूर्खता और मराठों की कारस्तानी का पता चला किंतु परिस्थिति पर शोक करने का समय न जानकर वह अपनी हरावल सेना के साथ पीछे मुड़कर तेजी से मराठों पर झपटा।

इस प्रकार दोनों पक्षों में तोपखाने पर अधिकार करने को लेकर भयानक संघर्ष छिड़ गया। राठौड़ों ने प्रचण्ड वेग से आक्रमण करके मराठों को दूर तक खदेड़ दिया किंतु तब तक काफी संख्या में तोपगाड़ियों को खींचने वाले बैल मारे गये और तोपों को खींचकर ले जाना कठिन हो गया।

उसी समय जयप्पा सिन्धिया ने महाराजा की मुख्य सेना को आ घेरा। अब स्थिति यह बन गई कि चारों तरफ मराठे थे और बीच में तोपखाने को घेर कर राठौड़ों की सेना खड़ी थी। इस कारण तोपखाने को काम में लेना संभव नहीं रह गया। मुश्किल से हाथ आये इस अवसर को मराठे हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। राठौड़ वीर भी युद्ध भूमि में एक साथ तीन राठौड़ राजाओं को शत्रुओं से घिरा हुआ देखकर मरने मारने पर उतारू हो गये। भयानक रक्तपात हुआ। पूरी भूमि लोथों से भर गई और आकाश में चीलें मण्डराने लगीं। पूरा आकाश घोड़ों की टापों से उठी धूल से भर गया। देखते ही देखते गीदड़ों की टोलियाँ मृत सैनिकों के शवों को खाने के लिये जंगल से निकल आईं।

काफी देर तक चले भीषण रक्तपात के बाद राठौड़ों ने मराठों को पीछे खदेड़ना आरंभ किया। बड़ी संख्या में मराठे मारे गये। ऐसा लगने लगा कि सिन्धिया किसी भी समय मैदान छोड़कर भाग खड़ा होगा। राठौड़ों ने अपना वेग और भी प्रबल कर दिया। मराठे और पीछे खिसक गये। यहाँ तक कि मराठे सात कोस पीछे तक खिसकते चले गये। यह देखकर राठौड़ सेनाओं ने मोर्चा अपने हाथ में करने के लिये आखिरी चोट करने की तैयारी की।

युद्ध क्षेत्र की यह स्थिति देखकर सिन्धिया ने जोधपुर के अपदस्थ राजा रामसिंह और किशनगढ़ के अपदस्थ राठौड़ राजा सावंतसिंह के पुत्र सरदारसिंह को अपने पास बुलाकर कहा-‘ऐसा लगता है कि आप दोनों का भाग्य ही खराब है। हम क्या कर सकते हैं? जीता हुआ युद्ध हारकर जा रहे हैं।’

सरदारसिंह किसी भी कीमत पर अपना खोया हुआ राज्य चाहता था। वह नहीं चाहता था कि मराठे यह युद्ध हारें अथवा इतनी शीघ्र मोर्चा छोड़कर भाग जायें। इसलिये उसने कुछ सोचकर कहा- ‘एक घड़ी और टिके रहो, मैं कुछ करता हूँ।’

जिस स्थान पर ये लोग खड़े हुए बात कर रहे थे, उसके ठीक पास में महाराजा विजयसिंह का माईनोत सरदार मोर्चा संभाले हुए था। सरदारसिंह ने अपने एक होशियार राठौड़ सिपाही को समझा बुझा कर माईनोत सरदार के पास भेजा। सरदारसिंह की योजना के अनुसार उस सिपाही ने माइनोत सरदार से कहा-‘उस तरफ तो महाराजा विजयसिंह मराठों की गोली से मारा गया है। अब किसके लिये युद्ध होगा?’

माइनोत सरदार ने राठौड़ सिपाही को देखकर समझा कि यह मेरा ही सिपाही है। इसलिये वह घबरा गया और अधीर होकर युद्ध के मैदान से बाहर की तरफ भागने लगा। उसने अपने सिपाहियों को भी जोर जोर से चिल्लाकर कहा-‘प्राण प्यारे हैं तो जोधपुर की तरफ भागो।’

माईनोत सरदार के सिपाहियों ने जब अपने सरदार को भागते हुए देखा तो वे भी विजयलक्ष्मी का मोह त्यागकर अपने सरदार के पीछे भाग लिये। देखते ही देखते मैदान के उस हिस्से में अच्छी खासी भगदड़ मच गई। सरदारसिंह का दाँव सही पड़ा था।

मैदान के जिस भाग में मरुधरानाथ विजयसिंह स्वयं घोड़े पर बैठकर जी जान से तलवार चला रहा था, उस भाग तक यह अफवाह नहीं पहुँच सकी, इसलिये वह इस अफवाह के बारे में नहीं जान सका। थोड़ी ही देर में भगदड़ का असर मैदान के इस हिस्से पर भी दिखाई देने लगा।

राठौड़ों में मची भगदड़ से जोधपुर की सेना हतप्रभ रह गई। उनके हाथ शिथिल पड़ने लगे। यह देखकर मराठे दूने उत्साह के साथ मैदान में लौट आये। अब वे राठौड़ों पर भारी पड़ने लगे। निराशा और असमंजस ने जोधपुर की सेना के पाँव उखाड़ कर रख दिये। वे बड़ी संख्या में अपने साथियों को खोने लगे। फिर भी वे लड़ते रहे। अंततः स्थिति ऐसी विकट हो गई कि जोधपुर की सेना ने रणक्षेत्र से हटना आरंभ कर दिया।

मरुधरानाथ इस युद्ध में एक लाख सिपाही लेकर आया था इसलिये वह अपनी विजय के प्रति पूरा आश्वस्त था। जब उसने सुना कि जोधपुर की सेना भाग रही है तो उसके आश्चर्य का पार न रहा। जब मराठों का दबाव उस क्षेत्र में भी पड़ने लगा जहाँ मरुधरानाथ स्वयं तलवार चला रहा था तो मरुधरानाथ के लिये भी मैदान में टिके रहना संभव नहीं रह गया। वह भी मैदान छोड़ने के बारे में सोचने लगा।

अंततः वह स्थिति भी आ गई जब राठौड़ सिपाही मैदान से इस तरह भाग छूटे जैसे मधमक्खियाँ शहद के छत्ते पर पत्थर मारने से भाग छूटती हैं। सिंधिया को इसी क्षण की प्रतीक्षा थी। उसने अपनी घुड़सवार सेना का एक भाग केवल इसी कार्य के लिये सुरक्षित रखा हुआ था कि जब राठौड़ सैनिक मैदान से हटने लगें तो मराठा सैनिक दूर तक उनका पीछा करें तथा यथा संभव उनका संहार करें। मराठों की रक्षित सेना भूखे श्वानों की तरह मरुधरानाथ के सैनिकों पर टूट पड़ी।

महाराजा विजयसिंह मराठों की रक्षित अश्व सेना का प्रतिरोध नहीं कर पाया। उसके लिये भी अब रणक्षेत्र में टिके रहना प्रतिपल भारी होता जा रहा था। अंततः उसने अपने बंधु राठौड़ राजाओं और सामंतों के साथ रणक्षेत्र छोड़ने का निर्णय लिया और मेड़ता की ओर खिसकना आरंभ किया। उसकी योजना थी कि मालकोट पहुँच कर युद्ध की समीक्षा की जाये।

मराठों की रक्षित अश्व सेना ने युद्ध क्षेत्र से निकल रहे राठौड़ राजाओं पर पीछे से भयानक आक्रमण किया। महाराजा के प्राण संकट में पड़ गये। इस पर पाली का ठाकुर प्रेमसिंह चाम्पावत अपने स्वामी के नमक का मूल्य चुकाने के लिये सामने आया। उसने अपनी सेना की सहायता से महाराजा विजयसिंह और मराठों के बीच तलवारों की अभेद्य दीवार खड़ी कर दी। मराठों के लिये इस दीवार को पार करना सहज नहीं था।

विजयसिंह और उसके साथी राठौड़ राजा सुरक्षित रूप से मेड़ता की ओर बढ़ने लगे। इसी दौरान उन्हें डेवढ़ी के दरोगा अणदू की सेना जैतारण की तरफ से विजय की प्रसन्नता में ढोल नगाड़े बजाती हुई आती दिखाई दी। उन्होंने इस ढोल नगाड़े बजाती हुई सेना को मराठों की सेना समझा और वहीं ठहर कर उन पर गोले बरसाने आरंभ कर दिये। अणदू की सेना अचानक तोप के गोलों की मार में फंस गई। उसके पास तोपखाना नहीं था इसलिये उसकी सेना का बहुत नुक्सान हुआ। काफी देर बाद दोनों तरफ के लोगों को वास्तविकता का पता चला। तब तक बहुत देर हो चुकी थी और सैंकड़ों राठौड़ सिपाहियों के साथ अणदू भी मारा जा चुका था।

तीनों राठौड़ राजा अपनी इस भूल पर पछता ही रहे थे कि पीछे से खबर आई कि प्रेमसिंह चाम्पावत भी वीर गति को प्राप्त हो चुका है। अब तीनों राठौड़ राजाओं के पास दौड़कर मालकोट तक पहुँचने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं बचा था।

आदमी जब भयभीत होता है तो लघु मार्ग भी अत्यंत दीर्घ जान पड़ता है। राठौड़ राजाओं के साथ इस समय यही हो रहा था। वे पूरी शक्ति से अपने अश्वों को मालकोट की ओर दौड़ा रहे थे किंतु मालकोट था कि आने का नाम ही नहीं लेता था। यहाँ तक कि रात घिर आई और पथ सूझना कठिन हो गया। फिर भी किसी तरह मालकोट तक पहुँच ही गये।

मालकोट पहुँच कर भी महाराजा विजयसिंह निश्चिंत नहीं हो सका। उसका तोपखाना काकड़की के पास छूट चुका था। उसके लगभग सारे बड़े सरदार मारे जा चुके थे। मराठे अब उससे केवल एक रात दूर रह गये थे। प्रातः होते ही उनका फिर से आ धमकना निश्चित था। मालकोट राठौड़ों की रक्षा करने में असमर्थ था। इसलिये महाराजा विजयसिंह ने निर्णय लिया कि वह मालकोट के स्थान पर नागौर दुर्ग में मराठों के विरुद्ध अगला मोर्चा बांधा जाये।

रात्रि के अंतिम प्रहर में तीनों राठौड़ राजाओं ने मालकोट छोड़ दिया। राठौड़ महाराजा बहादुरसिंह ने तो वहीं से अपनी राजधानी किशनगढ़ की राह ली जबकि बीकानेर का महाराजा गजसिंह, ताऊसर तक महाराजा विजयसिंह के साथ चला। यहाँ से नागौर का दुर्ग केवल तीन मील दूर रह गया था। यहाँ से महाराजा गजसिंह अपनी राजधानी बीकानेर की तरफ चला गया। वह चाहता तो था कि वह भी नागौर दुर्ग में रुककर महाराजा विजयसिंह का साथ दे किंतु उसे भय था कि ईश्वर न करे, यदि दुर्दान्त मराठे नागौर का दुर्ग भी गिरा दें तो कम से कम बीकानेर के दुर्ग की छत तो राठौड़ों के सिर पर बनी रहे।

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