महाराजा रूपसिंह को बलख-बदखशां से लौटे हुए अभी दो माह ही हुए होंगे कि एक बार फिर वहाँ से बुरे समाचार आने लगे। उजबेक पुनः बलख और बदखशां में उधम मचाने लगे थे। वस्तुतः वह समूचा भयानक पहाड़ी प्रदेश सदियों से उजबेकों का ही था। दूसरी ओर बाबर और उसके चगताई-तुर्की पूर्वज फरगाना, समरकंद, ताशकंद और बुखारा आदि प्रदेशों के शासक थे। एक दूसरे की सीमा पर स्थित होने के कारण उजबेकों और चगताई-तुर्कों में सदियों से दुश्मनी चली आ रही थी। यही कारण था कि बाबर ने अपने पूर्वज तैमूर लंगड़े की राजधानी समरकंद पर अधिकार बनाए रखने के लिए अनगिनत प्रयास किए किंतु वह विफल ही रहा।
हुमायूँ ने भी समरकंद पर अधिकार करना चाहा था किंतु वह भी सफल नहीं हुआ। अकबर और जहाँगीर ने भी इन प्रयत्नों को बार-बार दोहराया किंतु सफलता नहीं मिली। शाहजहाँ भी अपनी पिछली चार पीढ़ियों से चली आ रही परम्परा का निर्वहन करते हुए मध्य एशिया को जीतने और उस पर अधिकार जमाए रखने का लगातार प्रयास कर रहा था। हालांकि धन के लालची मुगलों के लिए उनकी मध्य एशिया सम्बन्धी नीति एक घाटे का सौदा थी फिर भी वे करोड़ों रुपये फूंक कर मध्य एशिया पर कब्जा करने का प्रयास जारी रखे हुए थे।
यद्यपि बाबर के तुर्की रक्त में दुर्दान्त मंगोलों के रक्त का और बाबर के पौत्र अकबर के वंशजों में राजपूतों के रक्त का भी पर्याप्त मिश्रण हो चुका था, तथा मुगलों को उस भयानक क्षेत्र से भारत आए सवा सौ साल बीत चुके थे फिर भी शाहजहाँ बलख और बुखारा की घाटियों में रहने वाले उजबेकों से अपनी पुश्तैनी दुश्मनी को भुला नहीं सका था। यही कारण था कि वह ट्रांस-ऑक्सियाना के उन भयानक और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों को अपने अधीन बनाए रखने के लिए लगातार उन पर आक्रमण कर रहा था। सौभाग्य से शाहजहाँ को महाराजा रूपसिंह जैसे प्रबल सेनापति की सेवाएं प्राप्त हो गई थीं जो मध्य एशिया की भयानक पहाड़ियों में युद्ध लड़ने और जीतने में सिद्धहस्त माना जाता था।
जब बलख से उजबेकों के उपद्रव के समाचार आने लगे तो शाहजहाँ ने एक बार फिर नौजवान महाराजा रूपसिंह को दरबार में बुलवाया। शाहजहाँ का संकेत पाकर शहजादे दारा शिकाह ने अपने हाथों से महाराजा रूपसिंह की पगड़ी पर बादशाही पगड़ी की कलंगी एवं तुर्रा लगाए और बादशाह की तलवार महाराजा की कमर में बांधी। शाहजहाँ ने महाराजा का मनसब बढ़ाकर दो हजारी जात और एक हजार सवारों का कर दिया और उसे बलख का स्वतंत्र शासक नियुक्त किया। इसी के साथ बादशाह ने महाराजा को उसी दिन फिर से बलख के लिए प्रस्थान करने के आदेश दे भी दिए।
महाराजा रूपसिंह समझ गया कि उसके भाग्य में जीवन भर उन भयानक पहाड़ियों को रक्त से रंगना ही लिखा है। वह बादशाह का आदेश शिरोधार्य करके पुनः उजबेकों की भुजाएं काटने के लिए चल पड़ा। आगरा से बलख का रास्ता काबुल होकर जाता था। कई माह की यात्रा के बाद वह अपने राजपूत साथियों के साथ काबुल पहुँचा। यहाँ एक नई समस्या ने उसका मार्ग रोका।
महाराजा रूपसिंह को ज्ञात हुआ कि अफगान विद्रोहियों ने मुगल किलेदार को काबुल के किले में घेर रखा है। इन विद्रोहियों से निबटे बिना महाराजा बलख की ओर नहीं बढ़ सकता था। इसलिए उसने कुछ दिन काबुल में रुकने और मुगल किलेदार को विद्रोही अफगानों से मुक्त करवाने का निश्चय किया।
काबुल के किलेदार को तो जैसे मुँहमांगी मुराद मिल गई। रूपसिंह के राठौड़ों ने अफगान विद्रोहियों को मार भगाया। इस बार रूपसिंह ने काबुल में नई प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की। उसने अफगान अधिकारियों को काबुल के शासन तंत्र से बिल्कुल अलग कर दिया तथा अपने साथ भारत से आए मुसलमानों को विभिन्न ओहदों पर लगाया। यहाँ तक कि उसने काबुल के बाजार से भी अफगान अधिकारियों को हटाकर हिन्दुस्तानी अधिकारियों को नियुक्त किया।
महाराजा ने व्यापारियों के लिए मुगल माप-तौल को व्यवहार में लाना अनिवार्य कर दिया। जिन अफगान व्यापारियों ने महाराजा के इस आदेश को मानने से मना किया, महाराजा ने उन व्यापारियों के सिर काटकर काबुल के बाजार में लटका दिए। विद्रोही अफगान, महाराजा के ऐसे कड़े रुख को देखकर भयभीत हो गए। धीरे-धीरे न केवल काबुल के बाजारों में अपिुत दूर-दूर तक शांति छा गई।
काबुल से निबट कर महाराजा उन विशाल नंगे पहाड़ों की खाक छानता हुआ बलख की ओर बढ़ा। इन दिनों बादशाह नजर मुहम्मद विचित्र स्थिति में फंसा हुआ था। उसकी राजधानी समरकंद में सैंकड़ों मौलवी और उलेमा उसकी जान के दुश्मन हो गए थे। ख्वारिज्म में भी बादशाह नजर मुहम्मद के खिलाफ विद्रोह हो गया था।
इस विद्रोह को दबाने के लिए नजर मुहम्मद ने शहजादे अब्दुल अजीज को खींवा भेजा किंतु उसने ख्वारिज्म पर अधिकार करके अपने बाप के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंकते हुए स्वयं को ख्वारिज्म और बुखारा का बादशाह घोषित कर दिया। समरंकद, ख्वारिज्म और बुखारा की बगावतों से घबराकर बादशाह नजर मुहम्मद अपनी राजधानी समरकंद को छोड़कर इन दिनों बलख में डेरा जमाए बैठा था।
महाराजा रूपसिंह काबुल से आगे बढ़ा और तारिन जा पहुँचा। यहाँ उसका प्रतिरोध करने वाला कोई नहीं था। तारिन के बाद कुन्दूज में भी उजबेगों ने महाराजा रूपसिंह का सामना नहीं किया। अब काहमर्द का दुर्ग सामने था जो इन दिनों बादशाह नजर मुहम्मद के अधिकार में था और काबुल से बलख जाने के मार्ग पर स्थित था। महाराजा ने यहाँ से अपना विजय अभियान आरंभ किया। सर्दियां आरंभ हो चुकी थीं। चारों तरफ भारी बर्फ गिरने लगी। बर्फ की मोटी-मोटी दीवारों ने उन पहाड़ी रास्तों को छिपा दिया था जिन पर चलकर महाराजा की सेना को बलख तक पहुँचना था।
बर्फ ने केवल रास्तों को ही नहीं छिपाया था अपितु उन बहुत से पहाड़ी दर्रों को भी बंद कर दिया था जिनसे होकर सेना को आगे जाना था। फिर भी महाराजा ने अपना अभियान जारी रखा। उसके स्थान पर और कोई होता तो इस बर्फ से डरकर ही वापास हिन्दुस्तान भाग आता किंतु वह रणबंके राठौड़ों का राजा था। पीछे लौटना उसके लिए मृत्यु से भी अधिक कष्टप्रद था इसलिए वह निरंतर आगे बढ़ता रहा।
अंततः काहमर्द का दुर्ग दिखाई देने लगा। नजर मुहम्मद ने सपने में भी नहीं सोचा था कि राठौड़, बर्फ को भेदकर काहमर्द तक आ पहुँचेंगे। रूपसिंह ने काहमर्द पर जबरदस्त धावा बोला। काहमर्द का दुर्ग उसके लिए जीवन-मरण के प्रश्न के समान था। हिन्दुस्तान की जमीन यहाँ से हजारों कोेस पीछे रह गई थी। आगरा में बैठा बादशाह चाहकर भी राठौड़ों को कोई सहायता नहीं पहुँचा सकता था। यदि काहमर्द का दुर्ग हाथ नहीं आया तो समूची राठौड़ वाहिनी मृत्यु के गाल में समा सकती थी।
महाराजा रूपसिंह ने उजबेकों को कोई समय दिए बिना, दुर्ग का मुख्य द्वार जा घेरा। दिन भर चली लड़ाई में राठौड़ों ने काहमर्द का दुर्ग तोड़ लिया। यह एक बड़ी विजय थी। इस दुर्ग को राठौड़ अपना आधार शिविर बना सकते थे जहाँ से आगे की लड़ाइयों को जारी रखा जा सकता था।
जब बादशाह नजर मुहम्मद ने सुना कि काहमर्द का पतन हो गया, तो वह घबरा उठा। उसने शहजादे अब्दुल अजीज के पास दूत भेजकर उससे संधि कर ली ताकि उजबेकों की पूरी शक्ति को एकत्रित किया जा सके। उधर जब आगरा में काहमर्द की विजय के समाचार पहुँचे तो शाहजहाँ स्वयं भी औरंगज़ेब को साथ लेकर काबुल के लिए चल पड़ा।
एक बार, किसी भी तरह वह बलख, बुखारा और समरकंद को अपने अधिकार में लेकर मुगल बादशाहों की पांच पीढ़ियों का सपना साकार होते हुए देखना चाहता था। शाहजहाँ स्वयं तो काबुल में डेरा डालकर बैठ गया और शहजादे औरंगज़ेब को उसने बलख की तरफ बढ़ने के आदेश दिए।
जब जून का महीना आरंभ हुआ और बर्फ पिघल कर बह गई तो रास्ते साफ हो गए और पहाड़ी दर्रे खुल गए। ठीक इसी समय औरंगज़ेब अपनी सेना लेकर आगे बढ़ा और तारिन तथा कुंदुज होता हुआ काहमर्द के दुर्ग में महाराजा रूपसिंह से जा मिला। अब औरंगज़ेब तो काहदर्म में रुक गया और महाराजा रूपसिंह बलख की तरफ चढ़ दौड़ा। बादशाह नजर मुहम्मद ने सुना कि महाराजा रूपसिंह आ रहा है तो उसने घबरा कर बलख खाली कर दिया और घोषणा की कि वह सल्तनत छोड़कर मक्का जा रहा है। जब महाराजा ने बलख में प्रवेश किया तो औरंगज़ेब की दुर्दांत सेना बलख की अपार सम्पत्ति को लूटने के लिए आ पहुँची। जिस समय औरंजेब की सेना बलख को लूटने में व्यस्त थी, उस समय महाराजा रूपसिंह अपने राठौड़ों को साथ लेकर, बादशाह नजर मुहम्मद का पीछा करते हुए तिरमिज तक जा पहुँचा था। नजर मुहम्मद तिरमिज को छोड़कर शिवाराधन चला गया। रूपसिंह उसके पीछे लगा रहा। नजर मुहम्मद के पास और कोई उपाय शेष नहीं रहा कि वह शिवाराधन में रहकर रूपसिंह का मुकाबला करे।
महाराजा रूपसिंह ने शिवाराधन में नजर मुहम्मद को जा घेरा। नजर मुहम्मद ने सोचा तो यह था कि वह शिवाराधन में रुककर राठौड़ों का सामना करेगा किंतु जब राठौड़ों के घोड़े नगर की सीमा पर दिखाई देने लगे तो उसका धैर्य चुक गया। वह बिना लड़े ही मोर्चा छोड़कर मर्व भाग गया। यहाँ से अगला पड़ाव फारस ही था। नजर मुहम्मद का विचार था कि यदि वह फारस चला जाए तो राठौड़ या मुगल उसका पीछा छोड़ देंगे। जब उसने सुना कि रूपसिंह शिवाराधन से मर्व के लिए चल पड़ा तो नजर मुहम्मद अपनी अनगिनत बेगमों और शहजादों को लेकर फारस भाग गया।