जैसा कि पहले ही लिखा जा चुका है कि किशनगढ़ का राजवंश मारवाड़ के राजकुल में से ही निकला था। यह एक छोटी सी रियासत थी जिसके राजाआंे ने तलवार के बल पर पूरे हिन्दुस्थान में अच्छा नाम कमाया था। जब मेवाड़ का महाराणा हम्मीरसिंह गोकुलस्थ गोस्वामी का विवाद उठ खड़े होने के कारण अपने ही महलों में सुरक्षित नहीं रहा तो राजमाता ने मरुधरानाथ से महाराणा की सुरक्षा करने की गुहार लगाई। इससे पहले भी महाराणा अड़सी की सुरक्षा मरुधरानाथ के राठौड़ सैनिक करते आये थे। इस बार महाराजा विजयसिंह ने किशनगढ़ नरेश बिड़दसिंह को यह दायित्व सौंपा। नौ साल पहले महाराजा बिड़दसिंह का पिता बहादुरसिंह मरुधरानाथ विजयसिंह और जंगलधर बादशाह गजसिंह के साथ मेवाड़पति अड़सी से मिलने नाथद्वारे की यात्रा पर गया था।
इससे पहले की कई पीढ़ियों से किशनगढ़ रियासत के मेवाड़ के महाराणाओं के साथ अच्छे सम्बन्ध चले आ रहे थे। इसलिये महाराजा बिड़दसिंह ने मरुधरानाथ द्वारा सौंपे गये इस दायित्व को सहर्ष स्वीकार कर लिया। वैसे भी मेवाड़ के महाराणा पूरे भारत वर्ष में सर्वाधिक आदरणीय और बड़े माने जाते रहे थे, इस कारण महाराणाओं के प्राणों की रक्षा करना भारत के किसी भी राजा के लिये किसी पवित्र कर्म करने से कम महत्व नहीं रखता था। यूं गुंसाई लोग न केवल मारवाड़ नरेश के अपितु किशनगढ़ नरेशों के भी गुरु होते थे, इस कारण हर दृष्टि से बिड़दसिंह ने मेवाड़ में जाकर अपनी सेवाएं देने का निर्णय लिया।
मरुधरानाथ विजयसिंह की आज्ञा से किशनगढ़ नरेश बिड़दसिंह मेवाड़ में व्यवस्था बनाये रखने के लिये अठारह मास तक मेवाड़ में रहा। अंत में गोकुलस्थ गोस्वामी का विवाद समाप्त होने पर वह मेवाड़ से लौटकर जोधपुर आया। महाराजा विजयसिंह उसका स्वागत करने के लिये उसके सामने डेड़ कोस तक उसके मार्ग में गया तथा उसे अपने महल में लेकर आया। बिड़दसिंह ने देखा कि मरुधरानाथ उस पर पूरी तरह प्रसन्न हैं तो उसके मन में बरसों पुरानी एक लालसा जागी। वह चाहता था कि उसकी पैतृक रियासत में कुछ वृद्धि हो। चूंकि मरुधरानाथ ने स्वयं ने भी महाराणा अड़सी की सुरक्षा के बदले में गोड़वाड़ का परगना ले रखा था इसलिये बिड़दसिंह ने विचार किया कि उसे भी मेवाड़ में की गई सेवा के बदले में मारवाड़ रियासत से एक परगना मिलना चाहिये।
इस विचार से उत्साहित होकर महाराजा बिड़दसिंह ने मेवाड़ में की गई सेवा के बदले महाराजा विजयसिंह से किशनगढ़ रियासत से लगता हुआ परबतसर का परगना मांगा। वह इसलिये भी महाराजा से पुरस्कार पाना चाहता था कि उसके पिता बहादुरसिंह ने भी काकड़की के भयानक युद्ध में मराठों के विरुद्ध मरुधरानाथ की प्राण-पण से सहायता की थी।
मरुधरानाथ को बिड़दसिंह की यह मांग अच्छी नहीं लगी। वह तो स्वयं अपने राज्य का विस्तार करता हुआ अपने पुरखों की रियासत को फूलते-फलते और फैलते हुए देखना चाहता था। इसीलिये उसने जयपुर से सांभर और मेवाड़ से गोड़वाड़ परगने दबा लिये थे। इतना ही नहीं वह तो दिन-रात अजमेर का दुर्ग भी अपने अधिकार में लेने के स्वप्न देखता रहा था। यदि उसने परबतसर की तरफ का परगना किशनगढ़ को दे दिया तो पुष्कर और अजमेर की तरफ का उसका मार्ग निर्बाध नहीं रह जायेगा। यह सब सोचकर मरुधरानाथ ने महाराजा बिड़दसिंह के प्रस्ताव को हँसी में टाल दिया।
महाराजा बिड़दसिंह उस समय तो चुप लगा गया किंतु कुछ दिन बाद महाराजा का अच्छा व्यवहार देखकर एक बार फिर परबतसर परगना देने की बात चलाई। मरुधरानाथ ने इस बार बात को हँसकर तो नहीं टाला किंतु चुप लगा गये। उन्होंने बिड़दसिंह को कोई जवाब नहीं दिया। जब महाराजा विजयसिंह वहाँ से उठने लगा तो महाराजा बिड़दसिंह ने एक बार फिर से सेवा के बदले में पुरस्कार पाने का अनुरोध दोहराया। मरुधरानाथ बिना कोई उत्तर दिये वहाँ से उठ गया।
मरुधरानाथ को महाराजा बिड़दसिंह की यह ढिठाई अच्छी नहीं लगी। उसने बिड़दसिंह के कक्ष से बाहर आकर गोवर्धन खीची से पूछा-‘लोग इस तरह से परगनों के लिये पीछे ही पड़ जाते हैं, बताइये क्या करें?’
-‘आपको कुछ करने की आवश्यकता नहीं है अन्नदाता! मैं ही आपकी कृपा से कुछ करता हूँ। गोवर्धन खीची ने सिर झुका कर उत्तर दिया और महाराजा से विदा लेकर चला गया।
गोवर्धन खीची सामंती राजनीति का चतुर और अनुभवी खिलाड़ी था। उसने किशनगढ़ महाराजा को इस गुस्ताखी का दण्ड देने के लिये महाराजा विजयसिंह के भाईयों को अपनी हवेली में बुलाकर कहा- ‘किशनगढ़ वालों से आपका पुराना वैर है और उन्होंने आपके पाँच-सात गाँवों पर पहले से ही अधिकार कर रखा है। इसलिये आप सचेत रहें।’
उस युग के सामंतों के लिये इतना संकेत भर पर्याप्त था। उसी रात जोधों ने रात में आक्रमण करके अपने गाँव छुड़ा लिये तथा किशनगढ़ के चार-पाँच गाँवों को लूट कर तहस-नहस कर दिया।
अगले दिन जब महाराजा बिड़दसिंह को ये समाचार मिले तो वह सारा माजरा समझ गया और महाराजा विजयसिंह से विदा लेकर अपने राज्य को चला गया। मेवाड़ में की गई अठारह मास की सेवा का यह प्रतिफल देखकर बिड़दसिंह मन ही मन महाराजा विजयसिंह का विरोधी हो गया। एक तरफ तो मरुधरानाथ महादजी जैसे दुर्दांत शत्रु को ललकार रहा था तो दूसरी ओर अपनी ही गलती से वह किशनगढ़ जैसे विश्वस्त सहायक को नाराज कर बैठा था। इसकी क्षति उसे आने वाले समय में उठानी ही थी। उधर किशनगढ़ के राजा ने मराठों से सहायता मांगी।