जनरल डी बोयने ने महादजी की इच्छानुसार अपने तोपखाने का पुननिर्माण कर लिया। उसने राठौड़ों द्वारा मुगल शैली पर बनाई जाने वाली भारी तोपों के स्थान पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नकल करके, हलकी और छोटी तोपों का निर्माण करवाया और उन्हें ऐसी छोटी गाड़ियों पर रखवाया जिन्हें बैलों द्वारा तथा आवश्यकता होने पर आदमियों द्वारा भी खींचा जा सके। बोयने ने दो-आब के उपजाऊ मैदानों में घूम-घूम कर ग्यारह बटालियनें तैयार कर लीं जिनका प्रशिक्षण यूरोपीय युद्ध पद्धति से किया।
जब यह तैयारी पूरी हो गई तो महादजी ने मराठा सूबेदार तुकोजीराव को भी इस युद्ध के लिये आमंत्रित किया। यह पहला अवसर था जब महादजी ने अपनी सहायता के लिये तुकोजी को निमंत्रण दिया हो। तुकोजी भी वैसे तो महादजी के बढ़ते हुए प्रभाव और नाना साहब द्वारा महादजी को दिये जा रहे समर्थन के कारण मन ही मन महादजी से रुष्ट रहता था किंतु मराठा हितों को देखते हुए वह अपनी सेना लेकर महादजी की सहायता करने के लिये चल पड़ा।
जब महादजी को सूचना मली कि तुकोजी की सेनायें मध्यभारत से मारवाड़ की तरफ चल पड़ीं तो उसने भी अपनी सेनाआंे को मथुरा से रवाना किया। उसने अपनी सेना को दो हिस्सों में बांटा। इनमें से पहली सेना का नेतृत्व जनरल डी बोइने को दिया तथा दूसरी सेना की कमान लकवा दादा को सौंपी। लकवा दादा उस युग में अपनी ही तरह का एक अकेला मक्कार था। उसने मेवाड़ को जी भर कर सूंता था तथा कोटा को कभी चैन से नहीं बैठने दिया था। राजपूतों के साथ उसके पुराने वैर को देखते हुए महादजी ने उसे अपनी आधी सेना का कमान सौंपा था। इस प्रकार महादजी अपने चालीस हजार सैनिकों तथा अत्याधुनिक तोपखाने के साथ मथुरा से राजपूताने की ओर रवाना हुआ।
महाराजा विजयसिंह के गुप्तचरों ने महाराजा को सूचना दी कि मध्यभारत से तुकोजीराव होलकर तथा मथुरा से महादजी की विशाल सेनायें मारवाड़ की तरफ बढ़ रही हैं। यह समाचार पाकर मरुधरानाथ की बांछें खिल गईं। वह तो स्वयं यही चाहता था कि मराठे उस पर चढ़कर आयें ताकि युद्ध आरंभ करने का आरोप मरुधरानाथ पर नहीं आये।