मरुधरपति ने महादजी के विरुद्ध जयपुर में पच्चीस हजार राठौड़ों और कच्छवाहों की सम्मिलित सेना खड़ी कर ली। इसमें जयपुर के सात-आठ हजार सैनिक थे। इस सेना के डेरे जयपुर से पन्द्रह कोस की दूरी पर थे। मिर्जा इस्माइल के साथ महाराजा विजयसिंह की पाँच हजार सेना रखी गई जबकि मिर्जा के साथ उसके स्वयं के पाँच हजार घुड़सवार, चौदह हजार पैदल सैनिक तथा एक सौ दस तोपें भी थीं। मरुधरपति ने पाँच-सात हजार की सेना अपनी सीमा पर सुरक्षा के लिये खड़ी की। मरुधरपति के मुत्सद्दी गंगाराम भण्डारी ने भी चार हजार राठौड़ों के साथ जयपुर में मोती डूंगरी में अपने डेरे डाल दिये। शाहमल लोढ़ा भी पाँच हजार की सेना लेकर मर्जा इस्माईल से कुछ दूर पाटन में जा बैठा। सामोद का नाथावत ठाकुर भी अपने पाँच हजार सैनिक लेकर पाटन में जा डटा।
विजयचंद सिंघी पाँच हजार सवारों के साथ मिर्जा इस्माइल से अठारह कोस की दूरी पर पड़ाव डालकर बैठ गया। गुलाम कादिर का भाई चौदह-पन्द्रह हजार सवारों के साथ हरियाणा में आकर बैठ गया ताकि आवश्यकता होने पर वह तुरंत मिर्जा इस्माइल को सहायता पहुँचा सके। और भी कई छोटे-बड़े सेनापति एवं लड़ाके गुप्त रूप से इस संगठन के साथ हो गये। भरतपुर का राजा रणजीतसिंह भी पाटीलबाबा का विश्वास नहीं करता था। वह भीतर से मरुधरपति के साथ था किंतु मराठा सरदार अली बहादुर ने किसी तरह जाटों को अपने साथ कर रखा था।
महादजी की तरफ से सबसे पहले गोपालराव भाऊ अपनी सेना लेकर पाटन के निकट पहुँचा। जब उसने देखा कि राजपूतों ने मिर्जा इस्माईल बेग को केन्द्र में रखकर दूर-दूर तक अपने डेरे जमा रखे हैं तो उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह ततैयों के बिल में हाथ डाले। राजपूत भी उसे दूर-दूर से लाल आँखें दिखाते रहे। इस तरह तीन माह बीत गये। जब महादजी को पता चला कि गोपालराव हाथ पर हाथ धर कर बैठा है तो उसने गोपालराव को कड़ी फटकार भेजी तथा जनरल डी बोयने को आगे बढ़ने के आदेश दिये।
जनरल बोयने ने प्रस्थान करने से पहले अपनी सेना को नये सिरे से जमाया। उसने स्वयं को तोपखाने के निकट रखा और अपने दो मजबूत साथियों मेजर हण्डर और अशरफबेग को तोपखाने के दायें-बायें नियुक्त किया। इसके बाद वह स्वयं तो तोपखाने को लेकर मंथर गति से आगे बढ़ा किंतु अपने कुछ फुर्तीले सैनिकों के दस्तों को तेजी से आगे भेज दिया। जैसे ही ये फुर्तीले दस्ते मिर्जा इस्माईल के सैनिकों को दिखाई दिये, मिर्जा के सेनापतियों अलाहयारखां तथा मुत्तलब खां ने अपने तोपखाने का मुँह खोल दिया। एक ही झटके में बोयने के ढाई सौ फुर्तीले सैनिक राख के ढेर में बदल गये। इस पर बोयने को भी तेजी से आगे बढ़कर अपने तोपखाने को चालू करना पड़ा। गोपालराव भाऊ को भी आगे बढ़ना पड़ा किंतु मिर्जा इस्माईल बेग ने उसे रोकने का प्रबंध पहले ही कर रखा था इसलिये उसने गोपालराव के सैनिकों को पलक झपकते ही अपनी तोपों की मार में ले लिया। इस पर तुकोजीराव होलकर की सेना आगे बढ़ी। विजयसिंह के नागा सैनिक भूखे शेरों की तरह होलकरों पर टूट पड़े।
राठौड़ों, कच्छवाहों और मिर्जा इस्माइल बेग की संयुक्त शक्ति ने मराठों की यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित सेना के छक्के छुड़ा दिये और वे भाग कर अपने डेरों की ओर लौट चले। जनरल बोयने शाम होने तक मैदान में टिका रहा और सूर्यास्त के साथ ही अपने डेरे को लौटने से पहले मिर्जा इस्माइल बेग के दो सौ सैनिकों का चूरा कर गया। जब सारे मराठा सेनापति रात्रि बैठक के लिये एकत्रित हुए तो अम्बाजी इंगले ने सूचना दी कि उसने मिर्जा इस्माई के प्रधान सेनापति अब्दुल मुत्तलब को डेढ़ लाख रुपये में खरीद लिया गया है और इसकी सूचना इस्माईल बेग तक पहुँचाने का भी प्रबंध कर लिया गया है ताकि मुत्तलब न घर का रहे न घाट का।
एक दिन की लड़ाई का स्वाद चखने के बाद पूरे एक महीने तक दोनों पक्षों के सेनापति अपनी-अपनी रणनीति सुधारने में लगे रहे। 20 जून 1790 को एक बार पुनः पाटन का मैदान धूल, धुंए, बारूद और गंधक की तेज गंध, तोपों और बंदूकों की आवाजों से भर गया। इस बार डी बोयने ने अपने तोपखाने को सबसे आगे रखा जैसा कि मुगल बादशाह किया करते थे। उसने तोपखाने के ठीक पीछे गोपालराव भाऊ तथा जीवा दादा को नियुक्त किया। इसके बाद अम्बाजी इंगले तथा होलकर को दांयी तरफ तथा शेष पलटनों को अपने बांयी तरफ खड़ा किया।
उधर राजपूतों का मित्र संगठन दांयी ओर तथा मिर्जा इस्माईल बांयी ओर खड़ा हुआ जिससे वह अम्बाजी इंगले के ठीक सामने आ खड़ा हुआ। अब्दुल मुत्तलब को कच्छवाहा घुड़सवारों के सबसे दांयी तरफ तथा नागा साधुओं को सबसे बांयी तरफ खड़ा किया गया। मित्रों की सेना में मिर्जा इस्माईल बेग, अब्दुल मुत्तलब तथा नागा साधुओं की खंदकों के आगे तोपों की तीन-तीन पंक्तियां लगाई गईं।
डी बोयने ने गोपालराव भाऊ पर जिम्मेदारी रखी थी कि वह तोपखाने का संचालन करेगा किंतु वह तोपों को आग दिखाने की हिम्मत नहीं कर सका जबकि मित्र सेना अपनी ओर से पहल करके अपनी व्यूह रचना को खतरे में नहीं डालना चाहती थी। उसकी योजना थी कि पहले मराठों की तरफ से आक्रमण हो ताकि उनके तोपखाने की गति, दिशा और मारक क्षमता का अनुमान हो सके। इस तरह दोनों पक्षों के सिपाही प्रातःकाल से लेेकर दो प्रहर और तीसरे प्रहर तक खड़े रहे। यहाँ तक कि दिन निःशेष होने में केवल एक प्रहर शेष रह गया।
उन दिनों जब भी बड़े युद्ध हुआ करते थे तो पिण्डारियों के दल युद्ध के मैदान के पास आकर बैठ जाते थे ताकि जब सिपाही युद्ध में व्यस्त हो जायें तो पिण्डारी उनके डेरे लूट सकें। पिण्डारियों की आजीविका का यह एक बड़ा साधन था। इसीलिये पिण्डारियों के दल पूरे चार माह से पाटन के आसपास मण्डरा रहे थे किंतु उन्हें सैनिकों के डेरे लूटने का अवसर नहीं मिल पाया था। आज भी जब उन्होंने देखा कि युद्ध आरंभ होने का नाम नहीं ले रहा तो पिण्डारियों के एक बड़े दल ने धैर्य खोकर मिर्जा इस्माईल की सेना के चंदावल पर हमला किया। इससे मित्र सेनाओं का ध्यान उस तरफ बँट गया। जब मिर्जा इस्माईल के घुड़सवार इन पिण्डारियों को भगाने के लिये उन पर झपटे तो मराठा सरदार बालाजी इंगले ने इसे अपने लिये अच्छा अवसर समझा और दो हजार घुड़सवार लेकर आगे से मिर्जा इस्माईल पर टूट पड़ा।
बालाजी इंगले को आगे बढ़ते देखकर मिर्जा इस्माईल स्वयं तलवार चलाता हुआ आगे बढ़ा। इस प्रकार लूट खसोट से आरंभ हुआ झगड़ा भयानक युद्ध में बदल गया। मिर्जा के भयानक प्रहार से मराठे पीछे की ओर खिसके। राठौड़ों के तोपखाने ने आग उगलनी आरंभ की तो गोपालराव भाऊ ने भी तोपों को तीली दिखाई जिससे राठौड़ कुछ पीछे सरके। अब डी बोयने ने अपने तोपखाने को आगे सरकाया। जब तोपखाना आगे सरका तो राठौड़ समझ गये कि इस बार नया क्या है! उन्होंने थोड़ा सा घूमकर मराठों को दबाना शुरु किया। इससे मराठे सीधे ही राठौड़ों की तलवारों की परिधि में आ गये। थोड़ी देर के प्रतिरोध के बाद मराठे डेरों की ओर भाग लिये। उनमें राठौड़ों के प्रबल वेग का सामना करने का साहस नहीं बचा।
गोपालराव, जो अब तक कायरता दिखाता आया था, मराठों के इस भीषण रक्तपात को देखकर उसका रक्त उबला और उसने अपने तोपखाने का मुँह मोड़कर राठौड़ों पर निशाना साधा। तोपों की इस मार से राठौड़ सैनिकों को मोर्चा छोड़कर पाटन की ओर भाग जाना पड़ा। मराठा अश्वारोहियों ने उनका पीछा किया। इस पर राठौड़ सैनिक पाटन शहर में घुस गये। उधर डी बोयने ने अपनी पूरी सेना जयपुर के नागा एवं जमातिया सैनिकों पर झौंककर उनका लगभग सफाया कर दिया। तब तक रात घिर आई और हाथ को हाथ सूझना बंद हो गया। राठौड़ सैनिक पाटन में घुस तो गये किंतु वे मार्गों, भवनों, गलियों आदि से परिचित नहीं थे। इसलिये किंकर्त्तव्यविमूढ़ अवस्था में शहर के भीतर भागते फिरे। उन्हें पता नहीं था कि कहाँ जाना है, क्या करना है। गंगाराम भण्डारी ने अपने सैनिकों को निर्देश दिये कि शहर के दूसरी तरफ से बाहर निकलो और सांभर की तरफ कूच करो। कोई सिपाही रात्रि में पाटन में न रुके। इसके विपरीत सिंघवी बनेचन्द ने पाटन में ही रुकने का निर्णय लिया। उसने अपने सिपाहियों को निर्देश दिये कि खुले में भागने से मराठे पीछा करके मारंगे, इसलिये रात को शहर में ही रुको। दिन निकलने पर शहर में मोर्चा बांध कर बैठ जायेंगे।
यद्यपि आज का युद्ध समाप्त हो चुका था फिर भी डी बोयने ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि डेरों में जाने की बजाय पाटन को घेर कर मोर्चा बांधो क्योंकि आज की रात हम पर भारी पड़ सकती है। राठौड़ रात में भी हमला बोल सकते हैं। जब तक मराठों की सेना पाटन को चारांे ओर से घेरती तब तक भण्डारी गंगाराम और उसके सैनिक पाटन की दूसरी तरफ से बाहर निकल चुके थे जबकि सिंघवी बनेचंद और उसके सैनिक पाटन में ही घिर गये।
दिन निकलते ही डीबोयने की सेना पाटन में घुस गई। राजपूत सैनिक, मराठों का विशेष प्रतिरोध नहीं कर सके। मराठों ने सिंघवी बनेचंद के बारह हजार राठौड़ सैनिकों को बंदी बना लिया। स्वयं बनेचंद बड़ी कठिनाई से अपने दो हजार सैनिकों के साथ पाटन से बाहर निकल पाया। राजपूतों की एक सौ पाँच तोपें, इक्कीस हाथी, आठ हजार बंदूकें, तेरह हजार ऊँट, पाँच सौ तिहत्तर घोड़े और तीन हजार बैल मराठों के हाथ लगे। तीन हजार राठौड़ घुड़सवार मारे गये। इस क्षति के सामने मराठों की क्षति नहीं के बराबर थी। मिर्जा इस्माइल की पूरी सेना नष्ट हो गई। वह कुछ सैनिकों के साथ किसी तरह युद्ध के मैदान से जीवित भाग निकलने में सफल रहा। उसने सीधे जयपुर का मार्ग पकड़ा।
पाटन लूट लिया गया। माचेड़ी के राव प्रतापसिंह ने महादजी से पाटन की मांग की किंतु अम्बाजी इंगले ने उसे पाटन देने नहीं दिया। महादजी पाटन पर अधिकार करके वहीं रुकने की स्थिति में नहीं था। किसी न किसी को तो पाटन सौंपनी ही थी इसलिये महादजी ने खण्डनी के पचास हजार रुपये लेकर तुंवरों को पाटन बेच दिया।