मरुधरानाथ को बालसमंद के बगीचे में रहते हुए दस माह बीत गये। न तो कुँवर भीमसिंह ने गढ़ खाली किया और न मरुधरानाथ ने सरदारों से यह कहा कि वे गढ़ को बलपूर्वक खाली करवा लें। वह जानता था कि उसके वंशजों और गढ़ के भाग्य में जो होगा, नियति उन्हें वह अपने आप प्रदान कर देगी। वह आयु के उस सोपान पर पहुँच चुका था जहाँ उसे किसी बात की चिंता नहीं रह गई थी। वह तो केवल और केवल गुलाब को अपने पास बुला लेना चाहता था किंतु सरदार मरुधरानाथ के आदेश को यह कहकर टाल देते थे कि कुँवर भीमसिंह पासवान को नगर से बाहर नहीं निकलने दे रहा। मरुधरानाथ उनकी बात का विश्वास करके चुप हो जाता था। यही कारण था कि दस माह की दीर्घ अवधि बीत जाने पर भी मरुधरानाथ यह नहीं जान पाया था कि उसकी गुलाब अब इस नश्वर संसार में नहीं रही थी। वह तो कब की ठाकुरों के षड़यंत्र का शिकार होकर किसी अजाने अदेखे अनंत लोक की यात्रा पर जा चुकी थी।
जब कुँवर गढ़ में डेरा जमाये बैठा रहा और सरदारों ने गढ़ पर पुनः अधिकार लेने के लिये कोई कार्यवाही नहीं की और न गुलाब को बुलाने का प्रबंध किया तो मरुधरानाथ का धैर्य चुक गया। उसने अपने गुप्तचरों को जालौर में बैठे शाहमल लोढ़ा, शिवचंद सिंघी और मेहकरण सिंघवी के पास भेजकर कहलवाया कि वे कुँवर भीमसिंह के समर्थक ठाकुरों की जागीरों में लूटमार करें। संदेश पाते ही शाहमल और मेहकरण, भीमसिंह के समर्थक ठाकुरों की जागीरों पर चढ़ दौड़े और वहाँ भारी लूटमार मचा दी। इस लूटमार से भीमसिंह के समर्थक ठाकुरों में बेचैनी उत्पन्न हुई।
इस कार्य की सफलता को देखते हुए मरुधरानाथ ने कुँवर जालिमसिंह को संदेश भेजा कि यदि नागौर चाहिये तो उस तरफ की जागीरों पर अधिकार कर लो। मरुधरानाथ ने अपनी निजी सेना को भी नागौर की तरफ लूटमार मचाने भेजा। इससे गढ़ में बैठे कई जागीरदार अपनी जागीरों की रक्षा करने के लिये गढ़ छोड़कर भाग खड़े हुए। कई सामंतों ने मरुधरानाथ के पास आकर उससे शाहमल, शिवचंद, मेहकरण और कुँवर जालिमसिंह की ज्यादतियों की शिकायत की। महाराजा चुप लगाये रहा। ठाकुरों के अपनी जागीरों को चले जाने से भीमसिंह के पास गढ़ में सवाईसिंह चाम्पावत अकेला रह गया। शाहमल और मेहकरण ने सवाईसिंह की जागीर पोकरण को बुरी तरह उजाड़ा। इस कार्यवाही से घबराकर सवाईसिंह ने मरुधरपति से समझौता करने का विचार किया।
सब दिन एक से नहीं होते। हर दिन आदमी का व्यवहार भी एक सा नहीं होता। चाण्डाल से चाण्डाल आदमी को भी अपने किये पर पछतावा होता ही है। फिर ये तो राठौड़ सरदार थे जो झूठ बोलकर महाराजा को उसके राज्य से वंचित किये हुए थे। वे सब के सब महाराजा के साथ होने का प्रदर्शन करते थे किंतु वास्तव में वे कुँवर से मिले हुए थे। उन्हीं की इच्छा से कुँवर गढ़ और नगर पर अधिकार जमाये बैठा था।
रीयां, कुचामन, मीठड़ी, बलूंदा और चण्डावल के ठाकुरों ने देखा कि उन्होंने जो कुछ भी किया उसका परिणाम केवल इतना निकला है कि गढ़ में विजयसिंह और उसकी पासवान के स्थान पर कुँवर भीमसिंह और सवाईसिंह चाम्पावत राज कर रहे हैं, शेष स्थितियाँ वैसी ही हैं जैसी पासवान के मारे जाने से पहले थीं। सहज विश्वासी मरुधरानाथ केवल इतना चाहता है कि पासवान उसके पास आ जाये। राज्य और गढ़ से उसे कोई लेना-देना तक नहीं है। वह तो इसी बात से प्रसन्न है कि राज्य के लिये कुँवरों में कोई रक्तपात नहीं हुआ तथा राज्य के उत्तराधिकारी का प्रश्न सरलता से हल हो गया। मरुधरानाथ की यह सरलता देखकर ठाकुरों के मन में ग्लानि भाव जागा। उनका मन उन्हें धिक्कारने लगा। बार-बार उनके चित्त में एक ही बात आती, स्वामी से छल करके उसे राज्य, कोष और गढ़ से वंचित करके उन्होंने पुरखों की कीर्त्ति को कलंक लगाया है। इस कलंक को धोना चाहिये। इसलिये उन सबने एकत्रित होकर विचार विमर्श किया तथा निश्चय किया कि एक बार फिर से मरुधरानाथ को गढ़ में ले जाकर राज्य, कोष और गढ़ पर स्थापति करना चाहिये। एक दिन सारे ठाकुर मिलकर गढ़ में गये और सवाईसिंह को समझाया-‘महाराज के रहते उसका पौत्र गढ़ पर अधिकार करके बैठ जाये, यह अच्छा नहीं लगता। कुँवर से कहो कि पासवान को मारने का उद्देश्य पूरा हो गया है इसलिये वह गढ़ खाली कर दे।’
-‘महाराज ने गढ़ हाथ में आते ही कुँवर की हत्या करवा दी तो!’ सवाईसिंह ने शंकित होकर पूछा।
-‘हम महाराज से कुँवर को वचन दिलवा देते हैं और पाँच ठाकुरों की जमानत दिलवा देते हैं।’
-‘ठीक है, मैं कुँवर से बात करता हूँ।’ सवाईसिंह ने ठाकुरों का अनुरोध स्वीकार कर लिया। उसे भी कुछ आनंद नहीं आ रहा था। भीमसिंह जबसे गढ़ पर अधिकार जमा कर बैठा था, अपनी मर्जी से ही काम कर रहा था। इसलिये वह भी चाहता था कि भीमसिंह को एक झटका लगे। इसलिये उसने भीमसिंह को ठाकुरों की इच्छा बताई। भीमसिंह ने सपने में भी नहीं सोचा था कि हाथ आया हुआ गढ़, कोष और पुर फिर से छोड़ने की बात चलेगी। इसलिये उसने स्पष्ट मना कर दिया- ‘अब तो जीते जी गढ़ छोड़ना संभव नहीं है।’
-‘कुँवर मत भूलिये कि इस समय तो सारे सरदार आपके पक्ष में हैं, यदि ये बिगड़ कर विरोध में खड़े हो गये तो मारवाड़ को जालिमसिंह की झोली में जाते देर नहीं लगेगी। हमारे पास गढ़ और पुर तो हैं किंतु सेना कहाँ है! जालिमसिंह पाली में पाँच हजार आदमी लेकर बैठा है। सरदारों के पास बालसमंद में भी सात-आठ हजार सैनिक तो होंगे ही। शाहमल भी पांच हजार आदमी लिये घूम रहा है।’
-‘तो सरदार क्या चाहते हैं?’ इस धमकी से कुँवर नरम पड़ा।
-‘उनका कहना है कि आप जोधपुर का गढ़ खाली करके सिवाना के गढ़ में चले जायें। जब महाराज के सौ साल पूरे हो जायेंगे तब आपको गढ़ और जोधपुर नगर ही नहीं, पूरा मारवाड़ ससम्मान दिया जायेगा।’
-‘क्या भरोसा?’
-‘भरोसा तो अपनी भुजाओं और अपने भाग्य पर ही करना होगा।’
जब सवाईसिंह भाग्य पर भरोसा रखने की बात करने लगा तो कुँवर का रहा सहा साहस भी टूट गया, बोला-‘हम सिवाना गढ़ में तो चले जायेंगे किंतु हमारे खर्च का प्रबन्ध कहाँ से होगा?’
-‘मैं सरदारों से कहूंगा कि वे महाराज से आपको सिवाना की जागीर दिलवा दें।’
-‘तो ठीक है, करो सरदारों से बात।’ कुँवर दुर्ग छोड़ने पर सहमत हो गया।
सवाईसिंह राजनीति का कच्चा खिलाड़ी नहीं था। उसने मरुधरानाथ और कुँवर के बीच मध्यस्थता का कार्य सरदारों पर नहीं छोड़कर स्वयं सीधे मरुधरानाथ से संधि की शर्तें तय करने का निश्चय किया। क्योंकि यह निश्चित था कि यदि कुँवर के भाग्य में आग लगी तो उसमें सवाईसिंह को भी जलकर नष्ट होना होगा! मरुधरानाथ ने सवाईसिंह द्वारा रखी गई अधिकांश शर्तों को स्वीकार कर लिया और वचन दिया कि यदि कुँवर गढ़ खाली करके सिवाना चला जाये तो उसके साथ मार्ग में कोई धोखा नहीं किया जायेगा। यदि वह सिवाना जाने से पहले मरुधरानाथ की सेवा में उपस्थित होकर अपने किये के लिये क्षमा मांगेगा तो उसे सिवाना की जागीर बख्श दी जायेगी। आखिर कुँवर महाराजा का सबसे बड़ा पौत्र था, उसके हित की बातें मानने में महाराजा को क्या आपत्ति हो सकती थी!
कुचामण ठाकुर सूरजमल मेड़तिया, मीठड़ी ठाकुर रिड़मलसिंह मेड़तिया, बलूंदा ठाकुर फतहसिंह, रीयां ठाकुर विदड़सिंह और चण्डावल ठाकुर हरिसिंह ने मरुधरानाथ की ओर से इस बात की जमानत दी कि वे स्वयं कुँवर को सुरक्षित रूप से सिवाना तक पहुँचाने जायेंगे। कुँवर ने मरुधरानाथ की शर्तें और ठाकुरों की जमानतें स्वीकार कर ली।