उधर मरुधरानाथ ने अपने सरदारों को मनाकर लाने के विचार से मालकोसणी जाने के लिये जोधाणे से बाहर घोड़ा निकाला और इधर गोवर्धन खीची ने पासवान को उसीके बगीचे में बंदी बनाकर बगीचे के बाहर अपनी चौकी बैठा दी। पंछी अपने ही बनाये पिंजरे में कैद हो गया। मरुधरानाथ को इस प्रकरण की भनक तक नहीं हुई। सरदार जोधपुर से आने वाले किसी आदमी को महाराजा तक फटकने ही नहीं देते थे। जब भी मरुधरपति जोधपुर के समाचार पूछता तो सरदार उसे अपनी ओर से झूठे सच्चे समाचार बनाकर सुना देते। उनकी योजना थी कि वे कुँवर भीमसिंह को नगर में प्रवेश करवाकर उसका गढ़ पर अधिकार करवा दें और गुलाब को कैद में ही मार डालें। इस समस्त कार्य को वे महाराज के गढ़ में लौटने से पूर्व सम्पूर्ण कर लेना चाहते थे।
13 अप्रेल 1792 की सुबह अभी ठीक से हुई भी नहीं थी कि जोधपुर की तंग गलियाँ सैंकड़ों घोड़ों की टापों से गूँज उठीं। उन्होंने आँखें मलते हुए, घरों से बाहर निकलकर देखा तो भय से टांगें वहीं जम गईं। सैंकड़ों घोड़े गढ़ की ओर सरपट दौड़ते हुए जा रहे थे। हे ईश्वर! जाने क्या होने वाला है! प्रजा को यह ज्ञात था कि मरुधरानाथ इन दिनों अपने सरदारों को मनाने के लिये बीसलपुर गया हुआ है। तो क्या मरुधरानाथ लौट आया? लोगों ने स्वयं से प्रश्न किया। इससे पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ कि महाराजा के लौटने पर सैंकड़ों घुड़सवार गलियों में दौड़ते हुए गढ़ की ओर जाते हुए दिखाई दें! तो क्या सरदारों ने महाराज को बंदी बना लिया और वे अब जोधपुर में घुसकर गढ़ पर अधिकार करने जा रहे हैं! कहीं ऐसा तो नहीं कि महाराजा अब दुनिया में रहा ही नहीं हो! क्या ये पासवान के घोड़े हैं जो गढ़ पर हमला बोलने जा रहे हैं? हजारों जीभें थीं और सैंकड़ों सवाल थे, जिनके जवाब किसी के पास नहीं थे।
जिस समय नगर की संकरी गलियों में घोड़ों की टापें गूंजी, गुलाब अपने बगीचे में भगवान मुरली मनोहर की आरती कर रही थी। इतनी सवेरे घोड़ों की टापें सुनकर वह हैरत में पड़ गई। क्या महाराज लौट आये! कहीं हरामखोर कोतवाल ने कुँवर भीमसिंह को तो नगर में नहीं घुसा लिया? या फिर गोवर्धन आज कोई नया कौतुक रचने वाला है! उसने स्वयं से प्रश्न किये। जैसे-तैसे आरती पूरी करके वह मंदिर से बाहर आई।
अभी वह पता लगाने का प्रयास कर ही रही थी कि गढ़ की प्राचीर पर रखी तोपें गरज उठीं और कुछ गोले गुलाब के उद्यान महल के बिल्कुल निकट आकर गिरे। गढ़ से गोले छूटते देखकर गुलाब के पसीने छूट गये। ठीक इसी समय एक पीनस उसके बाग में आकर रुकी। पीनस के पीछे-पीछे पाली का ठाकुर सरदासिंह रूपावत घोड़े पर सवार था। वह घोड़े से उतर कर पासवान के निकट आया।
-‘पासवानजी! आप शीघ्रता से पीनस में विराजें। एक क्षण का भी विलम्ब न करें।’
-‘क्यों?’ गुलाब ने आशंकित होकर पूछा।
-‘ठाकुर सवाईसिंह चाम्पावत और ठाकुर जवानसिंह ने मुझे कहा है कि मैं आपको लेकर तत्काल गढ़ में पहुँचूं।’
-‘किंतु क्यों?’ दोनों ठाकुरों के नाम सुनकर गुलाब घबरा गई।
-‘हुकम! कुँवर भीमसिंह अपने पाँच सौ घुड़सवार को लेकर नगर में घुस गये हैं और वे गढ़ में घुसकर गोले बरसा रहे हैं। सवाईसिंह और जवानसिंह का कहना है कि यदि आप गढ़ में आ जायें तो आपके और कुँवर के बीच समझौता करवा दिया जायेगा।’
रूपावत की बात सुनकर गुलाब काँप उठी! तो उसकी आशंका सही सिद्ध हुई। हरामखोर कोतवाल ने भीमसिंह को गढ़ में घुसा ही लिया। किंतु यह रूपावत? यह कितना विश्वसनीय है? कहीं कोई धोखा तो नहीं कर रहा है? गुलाब के मन में प्रश्नों के कांटे उग आये। प्रश्न अपनी जगह महत्वपूर्ण थे किंतु इनके उत्तर गुलाब के पास न थे।
-‘किंतु बाहर तो खीची का पहरा है?’ गुलाब ने प्रतिवाद किया।
-‘वे भी चाहते हैं कि आपको कुँवर से समझौता कर लें।’
-‘ओह! तो तुम यह कार्य खीची के आदेश से कर रहे हो?’ गुलाब के स्वर में अविश्वास उभरा।
-‘खीचीजी के आदेश से नहीं, आपके प्रधान सवाईसिंह चाम्पावत के अनुरोध पर।’
-‘चम्पावत खुद क्यों नहीं आये?’
-‘वे बस आ ही रहे हैं।’
अभी ये लोग बात कर ही रहे थे कि सवाईसिंह भी आ पहुँचा।
-‘ सवाईसिंहजी! मैं कुँवर भीमसिंह से समझौता करने के लिये गढ़ में नहीं जाऊँगी।’
-‘किंतु यहाँ रहना तो किसी भी तरह ठीक नहीं है। किसी भी समय दगा हो सकती है।’
-‘इससे तो अच्छा है कि मैं महाराज के पास बीसलपुर चली जाऊँ।’
-‘हाँ, यह ठीक रहेगा।’ सवाईसिंह ने कुछ सोचकर जवाब दिया।
-‘मेरे साथ कौन चलेगा?’ गुलाब ने पूछा।
-‘मेरा जाना तो ठीक नहीं है, मैं चला तो कुँवर पीछे आदमी भेजेगा। इसलिये आप संध्या समय में सरदारसिंहजी रूपावत के साथ नगर से बाहर निकल जायें और रात में यात्रा करके प्रातःकाल तक महाराज के पास पहुँच जायें।’ सवाईसिंह ने उत्तर दिया।
-‘क्या इस समय नहीं निकल सकते?’ गुलाब ने पूछा।
-‘दिन में यदि कुंवर को पता लग गया तो उसके आदमी बंदी बनायंेगे। इसलिये रात में जाना ही ठीक रहेगा। संध्या होते ही चल देंगे।’ रूपावत ने जवाब दिया।
गुलाब सरदारों की योजना से सहमत हो गई। दिन भर में उसने अपनी यात्रा की तैयारी की। उसने अपने कीमती हीरे, जवाहर, मोती, आभूषण आदि कीमती चीजों की पोटली बना ली। संध्या समय सरदारसिंह रूपावत फिर से पीनस लेकर आया।
-‘तुम्हारा भरोसा करके तुम्हारे साथ चल रही हूँ। दगा तो नहीं होगी?’ पीनस में पाँव धरते हुए गुलाब ने पूछा।
-‘यदि दगा ही करनी होती तो आपको लेने क्यों आता? यहीं पर…..।’ रूपावत ने अपनी मूंछों पर मरोड़े देते हुए कहा।
रूपावत को मूंछें मरोड़ते हुए देखकर गुलाब के मन में संदेह का कीड़ा फिर कुलबुलाया। इस नमक हराम पर भरोसा करना चाहिये कि नहीं! अभी गुलाब सोच ही रही थी कि पीनस चल पड़ी।
पीनस में बैठी गुलाब अपने भविष्य को लेकर चिंतित हो उठी। जाने क्यों उसे बारबार यही लग रहा था कि रूपावत पर भरोसा करके उसने उचित नहीं किया। फिर भी उसे लग रहा था कि एक बार मरुधरानाथ के पास पहुँच जाये तो कुँवर शेरसिंह को भी वहीं बुला लेगी।
जालौरी दरवाजे को एक तरफ छोड़ती हुई पीनस, सोजती दरवाजे की तरफ बढ़ने लगी। जैसे-जैसे पीनस आगे बढ़ती जाती थी, गुलाब के हृदय की धड़कनें तेज होती जाती थीं। यद्यपि अंधेरा बढ़ता जा रहा था जिससे पीनस दूर से दिखाई देनी बंद हो गई थी तथापि गलियां रिक्त थीं। इस कारण कभी भी पकड़े जाने का भय था। धीरे-धीरे सोजती दरवाजा दिखाई देने लगा। गुलाब को लगा कि कुछ ही क्षणों में पीनस दरवाजे से बाहर निकल जायेगी किंतु पीनस सोजती दरवाजे से बाहर न निकलकर नागौरी दरवाजे की तरफ बढ़ने लगी।
-‘कहाँ जा रहे हो?’ गुलाब ने पर्दे से मुँह बाहर निकाल कर पूछा।
-‘यहाँ सख्त पहरा है, इसलिये यहाँ से बाहर नहीं निकल कर नागौरी दरवाजे से बाहर निकलेंगे।’ रूपावत ने जवाब दिया। वह घोड़े पर सवार होकर पीनस के पीछे-पीछे चल रहा था।
गुलाब का हृदय जोर-जोर से धड़कने लगा। इस समय वह गढ़ से दूर भागना चाहती थी किंतु रूपावत पीनस को गढ़ के निकट ले जा रहा था। फिर भी चुपचाप बैठे रहने के अतिरिक्त गुलाब को और कोई उपाय नहीं सूझा। अंततः नागौरी दरवाजा भी आ पहुँचा। पूरी तरह सुनसान गलियाँ गाढ़े अंधेरे से भर गई थीं। अचानक पीनस ने फिर दिशा बदली। अब वह सीधे गढ़ की तरफ बढ़ रही थी।
-‘तुम कहाँ ले जा रहे हो मुझे?’ गुलाब ने घबराकर पूछा।
रूपावत की तरफ से कोई उत्तर नहीं आया। गुलाब ने पीछे का पर्दा हटाकर देखा कि रूपावत साथ में चल रहा है कि नहीं। उसकी आशंका के विपरीत रूपावत का अश्व पीनस के ठीक पीछे ही था।
-‘हम कहाँ जा रहे हैं?’ गुलाब ने एक बार फिर पूछा।
कहीं से कोई उत्तर नहीं आया और पीनस उसी गति से आगे बढ़ती रही। यहाँ तक कि गढ़ की मशालें दिखाई देने लगीं और गढ़ तेजी से निकट आने लगा। जैसे-जैसे गढ़ निकट आता जाता था, गुलाब के हृदय की धड़कनें भी बढ़ती जाती थीं। उसे वह पुरानी स्मृति फिर से हो आई थी जब वह पहली बार गढ़ पर आई थी। कैसे मशालों के प्रकाश में पूरी रात वह गाती रही थी। कैसे फिर वह गढ़ की ही होकर रह गई थी। कैसे कुँवर भीमसिंह के कारण वह पट्टराणी शेखावतजी से लड़ पड़ी थी और क्रोध में भरकर गढ़ छोड़कर चली गई थी। यह गढ़ और कुँवर भीमसिंह जीवन भर उसकी आँखों में कांटे की तरह गड़े थे। आज एक बार फिर गढ़ उसे बलपूर्वक खींच रहा था और कुँवर उसके पैर में शूल की तरह आ गड़ा था। जाने क्यों…….? अभी गुलाब अपनी विचार तरंगों में उलझी ही हुई थी कि अचानक पीनस रुक गई।
-‘क्या हुआ, पीनस क्यों रोकी?’ गुलाब ने बेचैन होकर कर पूछा।
-‘आपकी यात्रा पूरी हो गई।’ रूपावत ने हँसकर उत्तर दिया। वह घोड़े से उतर पड़ा।
-‘यात्रा पूरी हो गई!’ गुलाब ने हैरान होकर रूपावत के शब्द दोहराये।
-‘हाँ दुष्ट औरत तेरे भाग्य में यहीं तक यात्रा करनी लिखी थी।’ दुष्ट रूपावत ने क्रोध से चीखकर कहा और म्यान में से तलवार खींच ली। इससे पहले कि गुलाब संभल पाती, रूपावत की तलवार का भरपूर वार उसक गर्दन पर पड़ा और गुलाब का सिर कटकर किले की घाटी में एक ओर को लुढ़क गया। जब पिंजरा टूटा और पंछी फड़फड़ाकर बाहर निकला तो उसके मुँह से जोरों की चीख निकल पड़ी जो गढ़ की ऊँची दीवारों से टकारकर पुनः वहीं लौट आई। ये वही दीवारें थीं जो कभी गुलाब के कण्ठ से निःसृत स्वर लहरियों को सुनकर झूम-झूम उठती थीं। आज वे दीवारें अंधेरे में लपलपाती मशालों के मनहूस उजाले में शोक से सिर धुन रही थीं।
किसी को कानों कान भनक नहीं हुई कि गुलाब अब इस असार संसार में नहीं रही। यहाँ तक कि गढ़ में बैठे कुँवर भीमसिंह को भी नहीं। जैसे ही गुलाब का सिर घाटी में लुढ़का, उसी समय अंधेरे में से निकलकर दुष्ट सवाईसिंह और जवानसिंह प्रकट हुए। उन्होंने पीनस में रखी हीरे मोती और जवाहरों से भरी हुई पोटली उठा ली तथा गुलाब की शेष रही सम्पत्ति को लूटने के लिये उद्यान महल की ओर बढ़ गये। रूपावत सरदार उन्हें ठगा हुआ सा देखता ही रह गया।