Thursday, July 25, 2024
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100. छल!

 कुँवर भीमसिंह ने होली आने से पूर्व ही गढ़ रिक्त करने का निर्णय लिया। वह सवाईसिंह चाम्पावत को साथ लेकर गढ़ से नीचे उतरा और नगर परकोटा पार करके बालसमंद आया। धड़कते हुए हृदय से उसने बालसमंद के उद्यान में प्रवेश किया और झील के किनारे चलता हुआ मरुधरानाथ के डेरे तक पहुँचा। अंत में डेरे का कपड़ा हटाकर भीतर प्रवेश किया और सीधा वृद्ध पितामह के चरणों में गिर पड़ा।

उदार मरुधरानाथ ने अपने पौत्र को हृदय से लगते हुए उलाहना दिया-‘एक गढ़ पाने के लिये अपने दादा को भूल गया!’

-‘इस सेवक को क्षमा कर दें घणीखम्मा! मुझसे भारी भूल हुई।’ कुँवर ने अपने किये पर खेद जताया।

-‘बाप दादों का राज अपना ही होता है, इसमें पश्चाताप करने जैसी कोई बात नहीं है। एक न एक दिन तो यह गढ़, नगर और राज्य तुम लोगों को मिलने ही वाले हैं।’

लज्जित कुँवर अपने वृद्ध पितामह की इस बात का कोई जवाब नहीं दे सका। उसने दृष्टि धरती पर गढ़ा ली।

दादा पोते ने उस दिन कई वर्षों बाद एक साथ बैठकर भोजन किया। भोजन के तुरंत पश्चात् कुँवर वृद्ध पितामह को मुजरा करके सवाईसिंह चाम्पावत के साथ सिवाना की ओर प्रस्थान कर गया। कुँवर की सुरक्षा की जमानत देने वाले ठाकुर भी अपने-अपने सिपाही साथ लेकर कुँवर को सिवाना तक पहुँचाने के लिये उसके साथ हो लिये।

उधर कुँवर सिवाना की ओर रवाना हुआ और इधर मरुधरानाथ ने भी जोधाणे का मार्ग पकड़ा। इस समय उसके हृदय में केवल एक ही लालसा थी कि किसी तरह उड़कर अपनी गुलाब के पास पहुँच जाये। डेढ़ वर्ष हो गया उसका चेहरा देखे हुए। एक होली निकल गई और दूसरी आने को है। उम्र के इस ढलान पर भी महाराजा का हृदय जोर से धड़कता था। मन कल्पना के पंखों पर बैठकर जोधाणे पहुँच जाना चाहता था। मन की गति उस अश्व से कई लाख गुना अधिक तीव्र थी जिस अश्व पर बैठकर वह जोधाणे की ओर जा रहा था। अंततः वह नगर में प्रविष्ठ हुआ। चारों ओर से जय-जयकार होने लगी। नगर के पेड़-पौधे और निर्जीव पत्थर तक अपने स्वामी को फिर से आया देखकर बोल उठे-‘जय मरुधरानाथ। जय-जय मरुधरानाथ।’

नगाड़े बजने लगे। फूल बरसने लगे। उसका स्वागत ठीक वैसा ही हो रहा था जैसा युद्ध में विजय प्राप्त कर लौटने वाले उसके पुरखों का होता रहा था। मरुधरानाथ ने अपना अश्व गुलाब के उद्यान की ओर मोड़ लिया।

-‘बापजी! मुझे आदेश दिया गया है कि श्रीजी को पहले गढ़ पर ले जाया जाये।’ ड्यौढ़ीदार ने मरुधरानाथ को अपना अश्व उद्यान की ओर मोड़ते हुए देखा तो उसने निकट आकर निवेदन किया।

-‘पासवान कहाँ है?’ मरुधरानाथ ने उससे उलटकर पूछा।

-‘मुझे सरदारों ने यह आदेश दिया है कि महाराज को गढ़ पर पधराया जाये।’ ड्यौढ़ीदार ने एक बार फिर वही वाक्य दोहराया।

-‘मैं जो पूछता हूँ, उसका जवाब दे।’

-‘सेवक को ज्ञात नहीं प्रभु।’ ड्यौढ़ीदार ने हाथ जोड़कर निवेदन किया। वह भी तब से मरुधरानाथ के साथ था जब मरुधरानाथ सरदारों को मनाने के लिये बीसलपुर गया था। इसलिये उसे सचमुच पता नहीं था कि पासवान कहाँ है।

-‘तो ठीक है, पहले गढ़ पर ही चल।’ मरुधरानाथ को लगा कि गुलाब गढ़ में होगी इसीलिये सरदारों ने ड्यौढ़ीदार को यह आदेश दिया है किंतु जाने क्यों एक अज्ञात आशंका से मरुधरानाथ भयभीत हो गया। उसने इधर-उधर देखा ताकि सवाईसिंह से बात हो सके। महाराजा को भले ही ज्ञात नहीं हो कि गुलाब कहाँ है किंतु वह तो अच्छी तरह जानता था! महाराज को सवाईसिंह दिखाई नहीं दिया, दिखता भी कैसे? वह तो कुँवर के साथ सिवाना के लिये रवाना हो गया था।

वृद्ध मरुधरानाथ ने अश्व को और वेग से भगाया ताकि वह अपनी गुलाब के पास शीघ्र पहुँच सके। उसे अब एक क्षण का वियोग भी भारी पड़ रहा था। गढ़ पहुँचकर मरुधरानाथ ने अश्व त्यागने से पहले एक बार फिर वही प्रश्न दोहराया-‘गुलाब कहाँ है?’

किसी में साहस न था जो इस प्रश्न का उत्तर दे सकता। वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति को जैसे साँप सूंघ गया। सबकी दृष्टि सवाईसिंह चाम्पावत को ढूंढने लगीं। जब मरुधरानाथ गढ़ छोड़कर गया था तब सवाईसिंह ही राज्य का प्रधान था। वही पहले गुलाब का और बाद में भीमसिंह का प्रधान रहा था। इसलिये सारे उत्तर उसे ही देने थे किंतु वह तो सिवाना चला गया था।

-‘सवाईसिंह कहाँ है?’ मरुधरानाथ ने पूछा।

-‘वे तो कुँवर के साथ सिवाना चले गये।’ भड़ैत सेना के सेनापति इमाम अली ने अदब से सिर झुकाकर उत्तर दिया।

-‘पता लगाओ कि पासवान कहाँ है?’ महाराजा ने ड्यौढ़ीदार को आदेश दिया।

-‘होकम अन्नदाता।’ ड्यौढ़ीदार मरुधरपति के सम्मान में धरती तक झुक गया।

-‘आखिर हमें कोई उत्तर क्यों नहीं देता?’ मरुधरानाथ के स्वर में व्यग्रता थी।

-‘महाराज महल में पधारें, वहीं सब ज्ञात हो जायेगा।’ इमाम अली ने सिर झुकाकर कहा।

-‘क्या ज्ञात हो जायेगा……. और खीची कहाँ है?’ अचानक मरुधरानाथ को गोवर्धन खीची का ध्यान आया।

-‘ठाकुर साहब जोधाणे में ही हैं बापजी।’ महाराज के प्रश्नों के उत्तर जिन सरदारों के पास थे, वेएकदम चुप थे। इमाम अली जिसे कुछ आधी-अधूरी बातें ही ज्ञात थीं, महाराजा के प्रश्नों के उत्तर दे रहा था

-‘आप इस प्रश्न का उत्तर तो दे सकते हैं किंतु पासवानजी के बारे में क्यों नहीं बताते?’

-‘बापजी महल में पधारें, वहीं सब बातें विस्तार से होंगी।’ इमाम अली ने एक बार पुनः वही जवाब दिया। मरुधरानाथ समझ गया कि महल में जाये बिना उसके किसी सवाल का जवाब नहीं मिलेगा।

-‘गोवर्धन हमारे स्वागत के लिये क्यों नहीं आया?’ मरुधरानाथ ने अपने महल की तरफ बढ़ते हुए पूछा।

-‘ठाकुर साहब को सूचना दे दी गई है, वे आते ही होंगे।’ इमाम अली ने मरुधरानाथ के पीछे चलते हुए उत्तर दिया।

-‘अब बताओ हमारी महारानी गुलाबराय कहाँ हैं?’ मरुधरानाथ ने महल की ड्यौढ़ी पर पाँव रखते ही सवाल दोहराया।

-‘हुजूर! वो तो….।’ इमाम अली की जीभ तालू से चिपक गई। उसे लगा कि वह अपनी बात पूरी नहीं कर पायेगा।

-‘वो तो क्या?’ मरुधरानाथ ने लगभग चीख कर पूछा। उसका धैर्य चुक रहा था।

-‘वे अब संसार में नहीं रहीं। ऊपर वाले को यही मंजूर था।’ इमाम अली ने किसी तरह जवाब पूरा किया।

मरुधरानाथ को लगा जैसे सैंकड़ों तोपें एक साथ उसके कानों पर फूट पड़ी हों। वही हुआ जिसकी आशंका उसे मन ही मन होने लगी थी। मरुधरानाथ वहीं धरती पर बैठ गया। उसे चक्कर आ गया था। इमाम अली ने उसे सहारा देकर उठाना चाहा किंतु मरुधरपति ने संकेत से मना कर दिया।

मरुधरानाथ धरती पर बैठा रहा। उसने आगे कोई सवाल नहीं पूछा। उसके आसपास का मौन गहरे सन्नाटे में बदलता जा रहा था। आसपास खड़े चेहरे बिंदुओं में बदलते जा रहे थे। धीरे-धीरे चारों ओर वीराना उग आया था। किसी में साहस न था जो इस वीराने में प्रवेश करके मरुधरानाथ के मन का सन्नाटा भंग कर सकता। लगभग दो घड़ी तक मरुधरानाथ वहीं बैठा रहा। इसके बाद चुपचाप उठकर अपने महल की तरफ बढ़ गया।

तो सरदारों ने हमसे झूठ बोला कि कुँवर पासवान को नगर से बाहर नहीं आने दे रहा? क्या हुआ था पासवान कोे? कैसे मृत्यु हुई उसकी? क्या कुँवर ने मार डाला? या दुष्ट सवाईसिंह ने प्राण ले लिये उसके? मरुधरानाथ का मन सवाल पर सवाल करने लगा। महल के भीतर पहुँच कर मरुधरानाथ ने सबको वहाँ से दूर चले जाने का संकेत किया और स्वयं द्वार भीतर से बंद करके ढोलिये पर पौढ़ गया।

मरुधरानाथ को लग रहा था जैसे सैंकड़ों जहरीली चीटिंयाँ उसकी देह पर रेंग रही हैं और जहाँ-तहाँ जोरों से काट रही हैं। उसका मस्तिष्क सुन्न होता जा रहा था। उसे पता नहीं चला कि कब वह बेसुध हो गया। पूरा दिन बीत गया और रात होने को आई किंतु मरुधरानाथ ने द्वार नहीं खोला। जब रात गहराने लगी तो ड्यौढ़ीदार की चिंता का पार नहीं रहा। उसने कई बार बाहर से अर्गला खटखटाई किंतु भीतर से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया।

ड्यौढ़ीदार ने भड़ैत सेना के मुखिया इमाम अली को बुलावाया। वह भी काफी देर तक द्वार पीटता रहा किंतु द्वार नहीं खुला। इमाम अली की समझ में नहीं आया कि क्या करना चाहिये! द्वार तोड़ देना चाहिये अथवा प्रातः होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिये! काफी देर तक सोच विचार के बाद उसने निर्णय लिया कि प्रातः होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिये।

अर्द्धरात्रि के लगभग मरुधरानाथ की चेतना लौटी। उसका पूरा शरीर दर्द कर रहा था। सिर पीड़ा से फटा जा रहा था। हलक में प्यास के मारे नागफनी उग आये थे। उसने दासी को आवाज दी। ड्यौढ़ीदार इस समय द्वार के पास ही बैठा था। जैसे ही उसने मरुधरानाथ की आवाज सुनी, सतर्क होकर खड़ा हो गया और बोला-‘द्वार भीतर से बंद है अन्नदाता।’

कक्ष में अंधेरा था। मरुधरानाथ ने बड़ी कठिनाई से उठकर द्वार खोला-‘जल पिलाओ।’ इतना कहकर वह फिर से अपने ढोलिये पर जा गिरा। ड्यौढ़ीदार ने दीपक लाकर कक्ष में रखा। दासी जल ले आई। जल की बूंदें हलक में जाने से राजा की दशा कुछ ठीक हुई। उसने कक्ष में चारों तरफ दृष्टि दौड़ाई। दीपक के मंद प्रकाश में महल भयावह प्रतीत हो रहा था। अचानक उसे कुछ ध्यान आया-‘गुलाब की डावड़ियों को बुलाओ।’

-‘हुकुम अन्नदाता।’ ड्यौढ़ीदार ने जवाब दिया और उसी समय सिपाही पासवान के उद्यान की ओर दौड़ाये गये। लगभग दो घड़ी बाद गुलाब की दोनों दासियाँ मरुधरानाथ के समक्ष थीं। उन्हें देखते ही महाराज के प्राण कण्ठ में आ गये। वह बच्चों की तरह बिलख उठा। मरुधरानाथ को अपने समक्ष रोता हुआ देखकर दोनों दासियांे को भी रुलाई आ गई। वे करुण क्रंदन करती हुईं महाराज के चरणों में गिर पड़ीं। काफी देर तक राजा भी रोता रहा और दासियाँ भी।

-‘महाराज! कल दोपहर से आपके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। भोजन तैयार है।’ ड्यौढ़ीदार ने महाराज का ध्यान भंग किया।

-‘जिनके घर में कोई मर जाता है, उनके घर में भोजन नहीं बनता ड्यौढ़ीदार।’ मरुधरानाथ ने उसी तरह बिलखते हुए जवाब दिया।

-‘घणीखम्मा! पासवानजी को गये हुए तो दस महीने हो गये।’

-‘यही तो कष्ट की बात है, यही तो! कैसा राजा हूँ मैं, मेरे चाकर मुझसे धोखा करते हैं, मुझे सही बात नहीं बताते!’

-‘एक न एक दिन जाना तो सबको है बापजी।’ ड्यौढ़ीदार ने हाथ जोड़कर निवेदन किया।

-‘लेकिन किसे पहले जाना है और किसे बाद में!’

-‘जिसकी पहले बारी आती है, वही पहले जाता है बापजी।’ ड्यौढ़ीदार ने साहस करके अपनी बुद्धि से जवाब दिया।

-‘तो क्या गुलाब की बारी पहले आ गई?’

-‘ऐसा ही हुआ अन्नदाता।’

-‘कैसा हुआ?’ महाराजा ने चौंककर पूछा।

-‘क्या महाराज?’ ड्यौढ़ीदार सवाल समझ नहीं पाया।

-‘गुलाब की मृत्यु कैसे हुई?’

-‘उन्हें सरदारों ने दगा करके मार डाला स्वामी।’ दोनों दासियाँ एक साथ बिलख कर बोलीं।

-‘क्या?????’ मरुधरानाथ के मुँह से चीख निकल गई।

-‘हाँ अन्नदाता, ठाकुर गोरधन खीची ने पासवान को बंदी बनाया, ठाकुर सरदारसिंह रूपावत उन्हें पीनस में बिठाकर ले गये और गढ़ के नीचे तलवार से सिर काटकर मार डाला।’ पहली दासी ने रोते हुए कहा।

-‘ठाकुर सवाईसिंह चाम्पावत और जवानसिंह ऊदावत ने महल में घुसकर सारे हीरे जवाहरात और बरतन भाण्डे सब लूट लिये।’ दूसरी दासी ने बिलख कर कहा।

दासियों के जवाब सुनकर मरुधरानाथ की दशा एक बार फिर खराब हो गई। एक चक्कर आया और वह पुनः बेसुध होकर ढोलिये पर एक ओर को लुढ़क गया। ड्यौढ़ीदार ने मरुधरानाथ की देह को संभाला। मुँह पर पानी के छींटे भी मारे किंतु सब व्यर्थ गया, मरुधरानाथ की चेतना नहीं लौटी। ड्यौढ़ीदार ने महाराज की देह ढोलिये पर सीधी की और वहीं फर्श पर बैठकर महाराज की सुधि लौटने की प्रतीक्षा करने लगा। उसने एक सिपाही राजवैद्य को ले आने के लिये भेज दिया।

प्रातः होने पर मरुधरानाथ की चेतना पुनः लौटी। इमाम अली अभी महल में ही था। मरुधरानाथ ने उसे अपने निकट बुलाया-‘इमाम अली! तेरे पास ऊभ घड़ी कितने सैनिक तैयार हैं?’

-‘तीन हजार अन्नदाता।’

-‘अपने तीन हजार सैनिकों को इसी समय कुँवर भीमसिंह के पीछे भेज और तू कुँवर जालिमसिंह को अपने साथ लेकर दूसरी तरफ से कुँवर भीमसिंह को घेर। कुँवर जालिमसिंह पाँच हजार सैनिकों के साथ जोधपुर से पाँच कोस की दूरी पर बैठा है। उसे कहना कि यदि भीमसिंह को जीवित पकड़कर लायेगा तो राज्य तेरा। जा शीघ्रता कर।’

-‘जो होकम अन्नदाता।’

-‘एक बात का ध्यान रखना, कुँवर को हर हाल में जीवित ही पकड़कर लाया जाये। दुष्ट सवाईसिंह, जवानसिंह और रूपावत के कटे हुए सिरों को देखकर हमारे हृदय को संतोष होगा।’

-‘आपके आदेश की पालना होगी अन्नदाता।’ इमाम अली मुजरा करके चला गया।

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