जायल नागौर से 53 किलोमीटर पूर्व में नागौर-डीडवाना मार्ग पर स्थित है। सुप्रसिद्ध पुरातत्व विज्ञानी डॉ. वीरेन्द्रनाथ मिश्र के अनुसार जायल से वींठड़ी ऊंचायड़ा तक का 20′ 10 किलोमीटर का क्षेत्र पाषाण युगीन मानव की कर्मस्थली था।
जायल को प्राचीन ख्यातों में जायलवाड़ा, जायलवाटक तथा जायलवाटी भी कहा गया है। यह क्षेत्र पहले चौहान साम्राज्य के अधीन तथा बाद में राठौड़ों के अधीन रहा। यहाँ के सामन्त सपादलक्ष के चौहानों के अधीन थे।
जायल के चौहान सामन्त गूंदल राव की पृथ्वीराज चौहान से खटपट हो गई जिसके कारण गूंदलराव को जायल छोड़कर मालवा जाना पड़ा। 13वीं शताब्दी के मध्य में यहाँ का सामंत सांरगदेव था। सारंगदेव के बाद जिन्दराव सामन्त हुआ।
जिन्दराव का विवाह धांधल राठौड़ की पुत्री से हुआ था। जिन्दराव के साले पाबूजी और जिन्दराव में देवलदेवी नामक चारण स्त्री से एक घोड़ी प्राप्त करने को लेकर झगड़ा हो गया। जिन्दराव से गोधन को छुड़ाने के प्रयास में पाबूजी एवं बूड़ा वीर गति को प्राप्त हुए। यह वैर कई पीढ़ियों तक चलता रहा।
जायल का गोरधन खींची जोधपुर नरेश बख्तसिंह एवं विजयसिंह के विश्वस्त सामन्तों में से था। गोरधन खींची का लगभग ढाई सौ वर्ष पुराने महल के खण्डहर आज भी मौजूद हैं। इस महल में कुछ भित्तिचित्र भी बने हुए हैं।
स्थानीय भाटों के अनुसार तोषीना गांव से आये खींची जोधाराव ने जायल बसाई (यह तथ्य सही नहीं है) उसके साथ 17 परिवार आये थे जिनमें कालू, कुम्हार, काथड़िया, पुरोहित, धौलिया जाट, रेगर, भील एवं नायक थे।
लोककिवंदन्ती के अनुसार जायल का चौधरी गोपाल तथा खियालां का जाट धरमो बिडियासर एक बार राजस्व की राशि ऊंटों पर लादकर दिल्ली जाते सम, यमार्ग में हरमाड़ा गांव के पास विश्राम के लिए ठहरे। हरमाड़ा गांव के तालाब पर पनिहारिनें पानी भरने आईं।
एक पनिहारिन उदास होकर देर तक तालाब की पाल पर खड़ी रही। यह दृश्य देखकर दोनों चौधरियों ने पनिहारिन से उसकी उदासी का कारण पूछा। पनिहारिन ने कहा कि आज मेरी बेटी का विवाह है किंतु भाई मायरा लेकर नहीं आया। घर में सभी लोग मुझे ताना मार रहे हैं।
चौधरियों ने पनिहारिन से कहा कि हम तेरे धर्म के भाई हैं। तू घर जा, हम मायरा लेकर आते हैं। पनिहारिन लिछमा गूजरी अपने घर चली गई। दोनों चौधरियों ने राजस्व का सारा रुपया मायरे में दे दिया तथा स्वयं सुल्तान के सामने जाकर उपस्थित हो गये।
सुल्तान उन दोनों चौधरियों की सत्यनिष्ठा से प्रसन्न हुआ और उसने चौधरियों को क्षमा कर दिया। तब से जायल और उसके आसपास चौधरियों की दानशीलता के गीत गाये जाते हैं। यह कथा तुगलक शासनकाल की बताई जाती है। जायल में आजादी से पहले बनियों के कई घर थे जिनके कारण जायल एक समृद्ध गांव था।
जब देश में बहुत कम शिक्षण संस्थायें थीं, तब ई.1932 में जायल के सेठ रामगोपाल जाखोटिया ने जायल में संस्कृत पाठशाला खोली। ई.1954 में जायल के नागरिकों ने एक सार्वजनिक पुस्तकालय खोला तथा उसी वर्ष जायल को तहसील मुख्यालय बनाया गया।
जायल में श्री चारभुजा मंदिर, बंशीवाला मंदिर, वेंकटेश्वर मंदिर, रघुनाथ मंदिर, व्यास मंदिर, नृसिंह मंदिर, माताजी का मंदिर, दो शिवालय, तीन हनुमान मंदिर तथा एक रामदेव मंदिर है। जायल में कई प्राचीन स्मारक हैं। कवलेसर तालाब के पास देवल एवं कलात्मक छतरियां बनी हैं। हर्षनाथ का स्थल दर्शनीय है। यहाँ नाथ संप्रदाय के योगी ने जीवित ही समाधि ली थी।
यहीं पर ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णों की सती स्त्रियों के स्मारक भी बने हुए हैं। जायल में तीज का मेला निशानेबाजी प्रतियोगिताओं के लिए प्रसिद्ध है। तीज के दिन सभी ग्रामवासी गांव के बाहर स्थित तालाब पर एकत्र होते हैं। तालाब में नारियल डाल दिया जाता है। लहरों पर उछलते-तैरते नारियल पर बन्दूक से निशाना साधा जाता है।
पंचायत समिति द्वारा एक पशु मेला भी आयोजित किया जाता है। जायल के छीपे दूर-दूर तक प्रसिद्ध हैं। ओढ़नी एवं साड़ियों की छपाई का अच्छा काम होता है। चून्दड़ी का साफा भी तैयार किया जाता है। यहाँ के पीले पोमचे अन्य नगरों को जाते हैं।
इस ब्लॉग में प्रयुक्त सामग्री डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ग्रंथ नागौर जिले का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से ली गई है।



