ब्रजभूमि के चौरासी कोस परिक्रमा मार्ग में गोवर्धन से डीग आते समय बहज गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा बहज की महाभारतकालीन सभ्यता खोजी गई है। कालीबंगा के उत्खनन के कई दशकों बाद राजस्थान में वृहद स्तर पर ऐसा उत्खनन हुआ है।
भरतपुर जिले के नोह गांव तथा डीग जिले के बहज की महाभारतकालीन सभ्यता से मिले पुरातात्विक अवशेष इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि महाभारत काल से लेकर उसके बाद कई शताब्दियों तक ब्रजभूमि में आर्य-सभ्यता निवास करती थी।
बहज की महाभारतकालीन सभ्यता चौरासी कोस परिक्रमा मार्ग से सटे बहज गांव के ऊंचे टीले पर मिली है। इस सभ्यता की खुदाई अक्टूबर 2024 में पुरातत्ववेत्ता डॉ विनय गुप्ता के निर्देशन में आरम्भ की गई है। पुरातत्वविद् पवन सारस्वत भी इस उत्खनन में संलग्न रहे हैं।
बहज की महाभारतकालीन सभ्यता से प्राप्त पुरानिधियों को 8 मई 2025 को संग्रहालय दिवस पर जनसाधारण के लिए प्रदर्शित किया गया। बहज से विभिन्न स्तरों पर किए गए उत्खनन में कई प्रकार की पुरानिधियां प्राप्त हुई हैं। इन पुरावशेषों से ज्ञात होता है कि ब्रज क्षेत्र विभिन्न कालखण्डों में धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से अत्यंत उन्नत अवस्था में था।
इस टीले के आधार में किसी विलुप्त नदी की धारा का प्रवाह दृष्टिगोचर होता है। इस नदी के जल में आखेट के लिए मछलियाँ उपलब्ध थीं। यहाँ से प्राप्त गैरिक मृदभांड संस्कृति के जमाव से मछली पकड़ने के कांटे मिले हैं।
बहज टीले के सबसे निचले स्तर पर गैरिक मृदभांड संस्कृति के सुव्यस्थित जमाव मिले हैं जिसमें कई स्तरों की पहचान की गई है। यहाँ से सेलखड़ी के सूक्ष्म मनके तथा उन्नत भवन स्थापत्य के प्रमाण मिले है। सााि ही कार्नेलियन एवं लैपिज-लेजुली जैसे अर्धमूल्यवान पत्थरों के मनके भी इसी जमाव से मिले हैं।
गैरिक मृदभांड संस्कृति के जमाव के ऊपर एक मोटा पुरातात्विक जमाव चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति का है जिससे मिट्टी की सीलिंग (मुहर-मुद्रण) प्राप्त हुआ है जो सम्पूर्ण भारतवर्ष में एकमात्र यहीं से प्राप्त हुआ है। बहज से प्राप्त पकी मिट्टी के बने शिव-पार्वती का अंकन भी शिव पूजा का प्राचीन पुरातात्विक प्रमाण है।
चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति का पुरातात्विक जमाव प्रायः महाभारत में वर्णित स्थलों से प्राप्त होता है। इसलिए पुरातत्वविद बहज की संस्कृति को महाभारत कालीन संस्कृति मान रहे हैं।
बहज टीले से ऊपरी सतह अर्थात् परवर्ती कालखंड में प्राक-मौर्य सामग्री प्राप्त हुई है जिसमें यज्ञकुंड तथा उसमें अर्पित सिक्कों के प्रमाण मिलना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसी काल के चांदी एवं तांबे के पंचमार्क सिक्कों की प्राप्ति इस क्षेत्र में बसने वाले समुदाय की सुहृढ़ आर्थिक स्थिति की परिचायक है। बहज टीले से वर्तुल कूप (रिंगवेल), मिले हैं जो उन्नत भवन स्थापत्य के परिचयक हैं।
टीले के उपरी जमाव में शुंग-कुषाण कालीन औद्योगिक नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। इस जमाव में हड्डियों से निर्मित अत्यंत तीक्ष्ण औजार यथा- सुई, लेखनी प्वाइंट, मनके और कंघे इत्यादि बनाने का उद्योग प्राप्त हुआ है।
इसी कालखंड के अर्धमूल्यवान पत्थर के मनके बनाने के उद्योग का भी पता चला है। इस स्थल से अलंकृत कार्नेलियन और अगेट इत्यादि के तैयार उत्पाद और कच्चा माल दोनों यहाँ से मिले हैं। अनेक देवी-देवताओं की पत्थर और टेराकोटा की मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं।
बहज की महाभारतकालीन सभ्यता से चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति का सबसे बड़ा सांस्कृतिक जमाव मिला है। मिट्टी से बनी अश्विनी कुमार की प्रतिमा भी प्राप्त हुई है। बहज से शिव-पार्वती के अंकन के प्राचीनतम अवशेष मिले हैं। ब्राह्ी लिपि की मुहर एवं यज्ञ कुंड की भी प्राप्ति हुई है। मातृदेवियों की मूर्तियों के साथ हड्डियों व मनकों से सामग्री बनाने का उद्योग भी मिला है।
बहज के टीले की खुदाई में मिली कार्यशालाओं को देखकर सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि इतनी बड़ी संख्या में उत्पादित सामग्री का उपयोग स्थानीय स्तर पर किया जाना संभव नहीं था। अवश्य ही यह सामग्री दूर-दूर तक भेजी जाती होगी और तत्कालीन व्यापार का मुख्य अंग रही होगी।
बहज की महाभारतकालीन सभ्यता के उत्खनन में सबसे निचले स्तर से प्राप्त गैरिक मृदभांड संस्कृति का जमाव गंगा-यमुना दोआब में प्राचीन नगरीकरण, ग्रामीणीकरण का प्रमाण है। इस स्तर पर पकी हुई मिट्टी की ईटों के आवास बनाए जाने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। इस जमाव में मनके, मछली पकड़ने के कांटे, हड्डियों के औजार, तांबे की चूड़ियां मिलना भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
बहज टीले के उत्खनन में कई उद्योग स्तरों की पहचान की गयी है। इनमें हड्डियों से औजार बनाने की कार्यशाला के साथ अन्यत्र कालखंडों यथा- शुंग-कुषाण काल में यहाँ मनके बनाने, शंख से आभूषण और हड्डियों के औजार बनाने के साथ-साथ धातु से विभिन्न औजार बनाने की भट्टी के भी प्रमाण मिले हैं।
हिन्दू पुराणों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र का नाम वज्रनाभ था। मान्यता है कि बहज गांव का नामकरण राजा वज्रनाभ के नाम पर हुआ। किसी समय बहज गांव को बज्रनाव का खेड़ा भी कहा जाता था। बहज की महाभारतकालीन सभ्यता से शिव-पूजा, सूर्य-पूजा तथा मातृदेवियों की पूजा हेतु निर्मित मृण-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
बहज की महाभारतकालीन सभ्यता से विभिन्न कालखण्ड की टेराकोटा एवं जेस्पर से निर्मित ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपि की मुहरें प्राप्त हुई हैं जो अत्यंत महत्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य हैं।