Thursday, November 21, 2024
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राजस्थान में श्रीकृष्णभक्ति

राजस्थान में श्रीकृष्णभक्ति का प्रचलन कब से हुआ, इसके बारे में कोई निश्चित तिथि नहीं बताई जा सकती किंतु श्रीकृष्ण भक्ति की परम्परा अवश्य ही पौराणिक काल में प्रस्फुटि हुई होगी जिन्होंने भगवान विष्णु के दशावतार की संकल्पना प्रस्तुत की एवं श्रीकृष्ण को विष्णु का आठवां अवतार घोषित किया।

महाभारत का युद्ध ई.पू.3100 के लगभग हुआ। इस युद्ध के महानायक यदुवंशी श्रीकृष्ण थे। श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में सर्पप्रथम जानकारी देने वाला ग्रंथ वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत है। वर्तमान समय में महाभारत ग्रंथ का जो स्वरूप है, वह वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत से काफी अलग है। इस ग्रंथ की सामग्री में विगत पांच हजार साल की अवधि में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है।

महाभारत के वर्तमान स्वरूप में श्रीकृष्ण त्रिलोकीनाथ विष्णु के आठवें अवतार के रूप में प्रतिष्ठित हैं किंतु श्रीकृष्ण के लीलाकाल में उन्हें अवतार के रूप में नहीं देखा जाता था। उनका यह रूप पुराणों के अनुसरण में बहुत बाद में सामने आया है।

इस लेख में हम चर्चा करेंगे कि श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार कब माना गया, धरती पर श्रीकृष्ण की पूजा कब से आरम्भ हुई तथा राजस्थान में श्रीकृष्णभक्ति के प्रमाण कब से मिलते हैं।

पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के जीवनकाल में ही द्वारिका नगरी समुद्र में समा गई थी। इस कारण हस्तिनापुर के राजा परीक्षित (अर्जुन के पौत्र) ने भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र प्रद्युम्न को मथुरा मण्डल का राज्य दिया था।

श्रीकृष्ण की प्रतिमाओं का निर्माण

मान्यता है कि श्रीकृष्ण के पौत्र प्रद्युम्न ने भगवान श्रीनाथजी की एक प्रतिमा बनवाकर गोवर्द्धन पर्वत पर लगवाई थी। प्रद्युम्न ने अपनी आंखों से भगवान श्रीकृष्ण को देखा था। उसी आधार पर राजा प्रद्युम्न ने श्रीकृष्ण की प्रतिमा का निर्माण करवाया। भगवान श्रीकृष्ण श्याम रंग के थे जिसके कारण यह प्रतिमा काले पत्थर से बनवाई गई।

जब प्रद्युम्न का पुत्र वज्रनाभ मथुरापति हुआ तो उसने अपने प्रतापी प्रपितामह श्रीकृष्ण की लीला स्थलियों का उद्धार करवाया तथा अपनी माता के मुख से सुने स्वरूप के आधार पर श्रीकृष्ण के तीन विग्रहों का निर्माण करवाया। वज्रनाभ की माता श्रीकृष्ण के पौत्र प्रद्युम्न की रानी थी। उसने भी भगवान श्रीकृष्ण को अपने नेत्रों से देखा था।

वज्रनाभ की माता के द्वारा किए गए वर्णन के आधार पर बने इन तीन विग्रहों में से पहले विग्रह को गोविंददेव, दूसरे विग्रह को गोपीनाथ तथा तीसरे विग्रह को मदनमोहन कहा गया।
वज्रनाभ की माता के अनुसार श्रीगोविंददेव का मुख, श्रीगोपीनाथ का वक्ष एवं श्रीमदनमोहन के चरण भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप से मेल खाते हैं। इन तीनों विग्रहों को मथुरा के मंदिरों में प्रतिष्ठित करवाया गया। इस तथ्य के आधार पर यह माना जा सकता है कि वज्रनाभ के काल में ही श्रीकृष्ण को भगवान के रूप में स्वीकार कर लिया गया था।

श्रीकृष्ण का दशावतार संकल्पना में समायोजन

पुराणों के रचनाकाल के आधार पर कहा जा सकता है कि संभवतः राजा वज्रनाभ के काल तक भगवान विष्णु के दशावतार की संकल्पना अस्तित्व में नहीं आई थी। दशावतार की संकल्पना पुराणों की देन है। अतः बाद के किसी काल में श्रीकृष्ण को विष्णु की दशावतार संकल्पना में आठवें अवतार के रूप में स्वीकार किया गया।

मथुरा पर शकों का शासन

ई.पू.3100 से ई.पू. 325 तक अर्थात् लगभग 2,775 साल तक वज्रनाभ के वंशज मथुरा पर शासन करते रहे। ई.पू. 325 के आसपास इस क्षेत्र पर यक्षों का शासन होना माना जाता है। भारतीय वांगमय में संभवतः शकों को यक्ष कहा गया है जो विदेशी आक्रांता समूह के रूप में भारत में आए थे और उन्होंने भारत के अलग-अलग क्षेत्रों पर अधिकार करके उन क्षेत्रों की संस्कृति को अपनाकर शैव, वैष्णव एवं बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिए।

मथुरा पर शासन करने वाले शक राजा वैष्णव हुए। वे श्रीकृष्ण की पूजा करते थे। शकों के प्रभाव से ही मथुरा एवं उसके आसपास यक्षपूजा भी प्रचलित हो गई। सूरदास ने एक पद में लिखा है-

कोरी मटुकी दही जमायौ, जाख न पूजन पायौ।
तिन्ह घर देव-पितर काहे कौं, जा घर कान्हर आयौ।

इस पद से यह अनुमान होता है कि श्रीकृष्ण ने मथुरा से यक्ष पूजा एवं विभिन्न देवी-देवताओं की पूजाओं का प्रचलन बंद करवाया। भक्ति एवं दर्शन के स्तर पर यह ठीक है क्योंकि श्रीकृष्ण ने वैदिक देवता इन्द्र की पूजा बंद करवाई थी किंतु यक्ष-पूजन की ऐतिहासिक वास्तविकता यह है कि ब्रज में जाख (यक्ष) पूजा श्रीकृष्ण के लीला काल के लगभग तीन हजार साल बाद आरम्भ हुई थी।

श्रीकृष्ण प्रतिमाओं का विलोपन एवं प्राकट्य

जब ई.1018 में महमूद गजनवी ने मथुरा पर आक्रमण किया, तब मथुरा के मंदिरों में प्रतिष्ठित सैंकड़ों देव-विग्रहों को घने जंगलों, तालाबों, कुओं एवं पहाड़ों की कंदराओं में छिपा दिया गया। जब महमूद मथुरा तथा उसके मंदिरों को तहस-नहस करके वापस चला गया, तब मंदिरों की मरम्मत की गई तथा देव-विग्रहों को प्रकट करके पुनः मंदिरों में प्रतिष्ठित किया गया।

बहुत सी ऐसी मूर्तियां थीं जो जंगलों, तालाबों, कुओं एवं कंदराओं से पुनः प्राप्त नहीं की जा सकीं। संभवतः जिन पुजारियों ने इन मूर्तियों को छिपाया था, उन्हें महमूद की सेना ने मौत के घाट उतार दिया। इस कारण उनके द्वारा छिपाए गए देव-विग्रह वहीं छिपे रह गए।

गोवर्धन पर्वत पर प्रतिष्ठित भगवान श्रीनाथजी का विग्रह भी ऐसे ही छिपे रह गए विग्रहों में से एक था। ईस्वी 1500 के आसपास दक्षिण भारत के तैलंग ब्राह्मण वल्लभाचार्य ने इस देवविग्रह को गोवर्धन पर्वत से ही एक गड्ढे से ढूंढ निकाला था। इस विग्रह को पुनः गोवर्द्धन पर्वत पर प्रतिष्ठित कर दिया गया।

गोविंददेव, गोपीनाथ तथा मदनमोहन के विग्रह भी यदि अपने मूल मंदिरों से हटाए गए हों तथा पुनः प्रतिष्ठित किए गए हों तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है किंतु इस सम्बन्ध में कोई इतिहास नहीं मिलता।

शुंगकालीन राजस्थान में श्रीकृष्णभक्ति

मगध में मौर्य साम्राज्य की स्थापना से पहले ही वैष्णव धर्म ने सम्पूर्ण भारत के जनजीवन में गहराई तक स्थान बना लिया था। लोग अपने बच्चों के नाम नाम विष्णुचन्द्र, विष्णुदत्त आदि रखते थे। शुंगकाल की बनी मनुसंहिता में ध्वजदण्ड और प्रतिमाओं को नष्ट करने वालों को दण्डनीय माना है।

ईस्वी पूर्व चौथी शताब्दी में चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य के हाथों मगध साम्राज्य की स्थापना करवाई थी। मौर्य शासक ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे किंतु बाद में बौद्ध धर्म को मानने लगे तथा अनाचारी हो गए। इस कारण ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दी में मौर्य शासक बृहद्रथ को मारकर ब्राह्मणों द्वारा मगध में शुंग राजवंश की स्थापना की गई।

शुंग राजाओं ने मगध साम्राज्य में ब्राह्मण धर्म का पुनरुद्धार किया तथा बड़े जोर-शोर से विष्णु भक्ति को बढ़ावा दिया। इस कारण पूरे देश में भगवान विष्णु के विविध अवतारों की मूर्तियां बननी आरम्भ हुईं।

राजस्थान में कुछ स्थलों से शुंग कालीन देव-प्रतिमाएं मिली हैं। पकी हुई मिट्टी से बनी हुई इन देव-प्रतिमाओं में विष्णु, श्रीकृष्ण एवं शिव-पार्वती प्रमुख हैं। बीकानेर में रंगमहल आदि से कृष्ण-लीलाओं की शुंगकालीन मृण-मूर्तियाँ मिली हैं। इस काल में राजस्थान में कई यज्ञस्तूप तथा कृष्ण-बलराम के मन्दिर भी बने थे।

राजस्थान में श्रीकृष्णभक्ति का केन्द्र मध्यमिका

श्रीकृष्ण भक्ति का संदेश मथुरा से ही सम्पूर्ण भारत में प्रसारित हुआ। राजस्थान मथुरा की सीमा से लगता हुआ है तथा गोवर्द्धन पर्वत तो अब आधा उत्तर प्रदेश में तथा आधा राजस्थान में है। इसलिए स्वाभाविक ही है कि राजस्थान में श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचलन ईसा पूर्व की शताब्दियों में ही हो गया था।

राजस्थान में श्रीकृष्ण भक्ति का प्रसार कब हुआ, इसकी कोई निश्चित तिथि नहीं दी जा सकती किंतु मध्यमिका से मिले प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह घटना शुंगकाल से पहले ही हो गई होगी, जब मध्यमिका पर वैदिक काल की प्राचीन शिबि जाति ने पंजाब से आकर मध्यमिका में निवास करना आरम्भ किया था।

डा. वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि भागवत आन्दोलन का एक प्रवाह मथुरा से राजस्थान की ओर मुड़ा जो मेवाड़ की मध्यमिका में केन्द्रित हो गया। मध्यमिका भारत की एक अत्यंत प्राचीन नगरी थी जिसे अब नगरी कहा जाता है। मध्यमिका के ध्वंसावशेष चित्तौड़ से सात मील की दूरी पर स्थित हैं।

अजमेर जिले के बर्ली गांव से मिले एक शिलालेख में मध्यमिका का उल्लेख है। यह शिलालेख वीर संवत् 84 अर्थात् ई.पू.443 का है। अर्थात् ईसा के जन्म से पांच सौ साल पहले भी, मौर्यों के अस्तित्व में आने से लगभग 200 साल पहले भी राजस्थान में मध्यमिका नगरी अस्तित्व में थी और यहाँ भगवान श्रीकृष्ण की पूजा होती थी।

ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दी में हुए महर्षि पतन्जलि ने अपने व्याकरण ग्रंथ में मध्यमिका का उल्लेख किया है। पतन्जलि ने ही मगध के शुंगवंशी ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग का अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करवाया था।

जैनों और बौद्धों के प्राचीन शास्त्रों में मध्यमिका का बहुत वर्णन आया है। इन ग्रंथों के आधार पर कुछ विद्वानों ने मध्यमिका को जैनों और बौद्धों की नगरी बताया है किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से मध्यमिका भागवत धर्म अथवा वैष्णव धर्म में विश्वास रखने वाले राजाओं द्वारा बसाई गई थी।

मध्यमिका के पास घोसुन्डी ग्राम में मिले एक शिलालेख में कहा गया है कि राजा सर्वतात ने भगवान श्रीकृष्ण और वासुदेव की पूजा के निमित्त मध्यमिका में एक शिला-प्राकार बनवाया था। शिलाप्राकार का आशय पत्थरों से बने परकोटे से होता है। गौरीशंकर ओझा का मानना है कि मध्यमिका में विक्रम सम्वत् पूर्व की दूसरी शताब्दी से पहले से मूर्ति-पूजा का प्रचार था और विष्णु की पूजा प्रचलित थी।

डा. वासुदेव शरण ने मध्यमिका से मिले पत्थरों के अंकन के आधार पर माना है कि मध्यमिका के शिला-प्राकार पर श्रीकृष्ण वासुदेव की मूर्तियों का अंकन था।

मध्यमिका के शिलालेख में नारायण वाहक-देवभवन का भी उल्लेख है। इससे सिद्ध होता है कि शुंग काल में राजस्थान में नारायण की पूजा प्रचलित थी और देव मन्दिर बनते थे। मध्यमिका के उभदीवल को डा. भण्डारकर ने गरुड़ध्वज माना है जो वैष्णव पूजा का एक अंग है।

यदि यह माना जाए कि शिला-प्राकार का आशय मंदिर के परकोटे से है और नारायणवाहक का आशय मन्दिर के गरुड़ध्वज से है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इस स्थान से मिले पत्थरों की बनावट से स्पष्ट जो जाता है कि भागवत धर्म का उदय ईसा पूर्व की शताब्दियों में ही मध्यमिका में भी हो गया था। इसी मध्यमिका से मिले एक शिलाखण्ड पर ‘सर्वभूतों के दया के निमित्त’ लेख उत्कीर्ण है।

भागवत धर्म अर्थात् वैष्णव धर्म प्राचीन वैदिक धर्म का सरल संस्करण है तथा वैदिक धर्म की तरह पूर्ण अहिंसात्मक है। भक्ति का अर्थ है भगवत्-प्रेम और प्रेम का आधार ‘सर्वभूतहितेरता’ है। यह लेख भागवत धर्म के ‘अहिंसा’ अर्थात् ‘जीवमात्र से प्रेम’ के द्वारा उसके उत्कर्ष को इंगित करता है।

मध्यमिका से मिले पांचवीं शताब्दी ईस्वी के एक शिलालेख में भी मध्यमिका में एक विष्णु मंदिर बनवाए जाने का उल्लेख है। इस समय के एक यूनानी इतिहासकार ने मथुरा में एक हजार मन्दिरों का उल्लेख किया था। मध्यमिका में यद्यपि इस समय उस काल का एक भी मन्दिर नहीं है किन्तु वहाँ कोसों दूर तक मन्दिरों के फैले खण्डहरों से अनुमान होता है कि राजस्थान में मध्यमिका तथा कई अन्य स्थानों पर वैष्णव मन्दिर रहे होंगे जिनमें श्रीकृष्ण की भी पूजा होती होगी।

भक्ति का दक्षिण भारत में प्रसार

भक्ति साहित्य का इतिहास लिखने वालों ने ‘भक्ति द्राविड ऊपजी, लाए रामानंद’ उक्ति के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि विष्णु-भक्ति की संकल्पना दक्षिण भारत से उत्तर भारत में आई किंतु ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह धारणा सही नहीं है। विष्णु भक्ति का उदय तो वेदों की रचना भूमि पर ही हुआ था जो कि निःसंदेह उत्तर भारत है। भागवत् धर्म का उदय ब्रजक्षेत्र में हुआ और वहाँ से चलकर मध्यमिका होते हुए दक्षिण भारत तक गया होगा।

इसी क्रम में सातवीं से नौवीं शताब्दी ईस्वी तक दक्षिण में आलवार संत हुए और दसवीं शताब्दी में रामानुजाचार्य का आविर्भाव हुआ जिनकी शिष्य परम्परा में पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी में हुए रामानंदाचार्य ने उत्तर भारत में मानव समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुलभ विष्णु भक्ति का प्रचार किया जिनकी परम्परा में कबीर, नरहरि, पीपा, धन्ना आदि संत हुए। इसी से लोगों को भ्रम हो जाता है कि भक्ति दक्षिण से उत्तर में आई।

निःसंदेह भक्ति उत्तर भारत में जन्मी, उत्तर से दक्षिण में गई और वहाँ से नया रूप धरकर पुनः उत्तर भारत में आई। उत्तर भारत में जन्मी ब्राह्मणों एवं विशिष्ट जनों के लिए थी जबकि दक्षिण भारत में नया रूप धारण करने वाली विष्णुभक्ति समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिस थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दक्षिण का भक्ति आन्दोलन उत्तर के भागवत धर्म का पुनर्जागरण था।

गुप्तकाल में वैष्णव धर्म का प्रसार

चौथी शताब्दी ईस्वी से छठी शताब्दी इस्वी तक अस्तित्व में रहे विशाल गुप्त साम्राज्य में भागवत धर्म का बड़े स्तर पर उत्कर्ष हुआ। गुप्तों ने पूरे भारत में विष्णु के दशावतारों के विग्रह बनवाकर लगवाए तथा विशाल मंदिरों का निर्माण करवाया। राजस्थान के भीनमाल एवं मण्डोर आदि क्षेत्रों में विष्णु के मंदिर अस्तित्व में थे।

गुप्तों द्वारा बनवाए गए विष्णु मंदिरों में शेषशायी विष्णु, मेदिनी का उद्धार करने वाले वराह रूपधारी विष्णु, दशरथनंदन राम एवं यशोदानंदन श्रीकृष्ण के मंदिर प्रमुख थे। इस काल में विष्णु के परशुराम अवतार के के भी मंदिर भी बने।

इस काल में सूर्य मंदिरों के निर्माण की परम्परा भी आरम्भ हुई क्योंकि सूर्य को भी विष्णु की तरह बारह आदित्यों में से एक माना जाता है। इस काल के वैष्णव मंदिरों में त्रिदेव के रूप में विष्णु, शिव एवं सूर्य की संयुक्त प्रतिमा बनती थी।

राजपूत राजाओं के काल में राजस्थान में श्रीकृष्णभक्ति

गुप्त साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर राजस्थान में राजपूत राजाओं का उदय हुआ। शुंगों एवं गुप्तों की तरह राजपूत राजा भी विष्णु भक्ति को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध हुए। मेवाड़ क्षेत्र के कुड़ा ग्राम के शिलालेख में विष्णु पूजा और मन्दिरों का उल्लेख मिलता है। यह शिलालेख मेवाड़ के गुहिल राजा अपराजित के समय का है। मेवाड़ के आयड़, नगरी एवं नागदा तथा मारवाड़ क्षेत्र के ओसियां आदि नगरों में उस समय वैष्णव मन्दिरों के अवशेष आज भी पाये जाते हैं। गुहिलों ने चित्तौड़, मेनाल, उदयपुर आदि स्थानों पर बड़ी संख्या में विष्णु मंदिर बनवाए।

इसी काल में सांभर झील एवं अजमेर के आसपास चौहानों का उत्कर्ष हुआ। वे भी विष्णु-भक्ति को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध हुए। अजमेर में स्थित ढाई दिन का झौंपड़ा वस्तुतः चौहान काल में निर्मित विष्णु मंदिर ही था। दिल्ली में लाल किले के निकट एक अत्यंत विशाल विष्णु मंदिर भी संभवतः इसी काल में बना था जिसे मुसलमानों ने जामा मस्जिद में बदल दिया।
राजस्थान के प्रतिहार शासकों ने सातवीं-आठवीं शताब्दी ईस्वी में विष्णु भक्ति का प्रसार पूरे उत्साह के साथ किया।

तिहारों ने विष्णु के विविध अवतारों एवं श्रीकृष्ण को समर्पित मंदिर बड़ी संख्या में बनवाए। उनके काल में बने मंदिरों की एक अलग शैली विकसित हुई जिसे नागर शैली एवं महामारू शैली कहा जाता है। उत्तर भारत में आज तक विष्णु मंदिरों के लिए इसी शैली को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इस कारण अयोध्या का नवनिर्मित रामजन्मभूमि मंदिर भी नागर शैली में ही बनाया गया है।

प्रतिहार काल के विष्णु मंदिर आज भी पूरे उत्तर भारत में बड़ी संख्या में मिलते हैं। इस काल में जैसलमेर के पीले पत्थर से निर्मत वराहश्याम का एक विग्रह आज भी भीनमाल के वराहश्याम मंदिर में प्रतिष्ठित है। कोटा क्षेत्र के बाडौली में शेषशायी विष्णु की मूर्ति दसवीं शताब्दी से पहले की है। यह प्रतिमा प्रतिहार कालीन मानी जाती है।

परमारों ने भी विष्णु भक्ति की इस परम्परा को आगे बढ़ाया। राजा भोज द्वारा धारा नगरी में बनाई गई संस्कृत पाठशाला उस काल में प्रचलित विष्णु भक्ति के प्रमाण के रूप में देखी जा सकती है। बाड़मेर के किराडू में बने विष्णु एवं शिव मंदिर इसी काल में बने हैं जिन्हें बाद में मुसलमानों ने तोड़ डाला।

जब देश में मुसलमानों के अत्याचार बढ़ने लगे तब भारत में एक बार फिर भागवत धर्म ने जोर पकड़ा। पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी में महाराणा कुम्भा का उदय परम भागवत के रूप में हुआ। चितौड़ दुर्ग में कुम्भश्याम का विशाल मन्दिर बना। इस काल में राजस्थान में अन्य स्थानों में भी वैष्णव मन्दिरों का बड़ी संख्या में निर्माण हुआ। इनमें भगवान श्रीकृष्ण के मंदिरों की संख्या सर्वाधिक थी।

महाराणा कुम्भा ने चित्तौड़ दुर्ग के विजय स्तम्भ बनवाया। इस स्तम्भ को कुंभा ने तेतीस करोड़ देवी-देवताओं के संग्रहालय के रूप में बनवाया। इस स्तम्भ के भीतर एवं बाहर देवी-देवताओं के विग्रहों का बड़ी संख्या में अंकन हुआ है जिसके कारण इसे हिन्दू देवी-देवताओं का कोश कहा जाता है। इस स्तम्भ में भवागन विष्णु एवं उनके अवतारों से सम्बन्धित प्रसंगों का अंकन किया गया है। इन प्रसंगों में श्रीकृष्ण की लीलाओं का अंकन भी बड़ी संख्या में हुआ है।

भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप की पूजा

भगवान श्रीकृष्ण को विविध रूपों में पूजा जाता है किंतु जब तैलंग ब्राह्मण वल्लभाचार्य ने पुष्टि मार्ग की स्थापना की तब उन्होंने भगवान के बाल रूप की पूजा का प्रचलन किया। सूरदास ने वल्लभाचार्य के आदेश से श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप की भक्ति में पद लिखे। ये भजन शीघ्र ही ब्रजभूमि से निकलकर करोड़ों-करोड़ भारतवासियों की जिह्वा पर शासन करने लगे।

भगवान श्रीकृष्ण के भक्त भगवान श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप को इतना कोमल मानते हैं कि वे कभी कठोर पत्थरों की माला नहीं पहनते, अपितु रुई के फूंदे या रुई के फूल बनाकर उनकी माला पहनते हैं। तुलसी का भगवान श्रीकृष्ण की प्रिया माना जाता है, इसलिए बहुत से श्रीकृष्ण भक्त हर समय गले में तुलसी की माला धारण करते हैं।

राजपूत योद्धाओं की कृष्णभक्ति

श्रीकृष्ण की पूजा में गंगाजल एवं तुलसी दल का बड़ा महत्व है। जब राजपूत योद्धा मुसलमानों की सेना से लड़ने के लिए अपने किले से बाहर निकलकर समरांगण में उतरते थे तो अपने मुख में गंगाजल एवं तुलसीदल रखते थे, गले में तुलसी की माला धारण करते थे और सिर पर धारण की गई केसरिया पगड़ी में भगवान श्रीकृष्ण का एक छोटा चित्र रखते थे। इन राजपूत योद्धाओं का विश्वास था कि ऐसा करने से वे युद्ध में देह छूटने पर श्रीकृष्ण के परमधाम को प्राप्त होंगे।

मीराबाई के भजनों द्वारा कृष्णभक्ति का प्रसार

16वीं शताब्दी में मीराबाई ने भगवान् श्रीकृष्ण को अपना पति मानकर उनकी पूजा की। मीराबाई के भजनों द्वारा समस्त ब्रज, मालवा, गुजरात, राजस्थान और सौराष्ट्र तक कृष्णभक्ति का प्रसार किया गया। मानो गोप-गोपियों का समस्त प्रेम मीरा के भजनों में प्रकट होकर पूरे भारत में कृष्णभक्ति की सरिता बहाने लगा। आज भी मीरा के पद भारत भर के वैष्णव मंदिरों में प्रभातियों एवं रतजगों में गाए जाते हैं।

श्रीकृष्ण की मूर्तियों का राजस्थान में आगमन

ई.1667 में औरंगजेब ने ब्रजक्षेत्र के समस्त मंदिरों को तोड़ने के आदेश दिए। इस कारण मथुरा और वृंदावन के मंदिरों से सैंकड़ों कृष्ण-मूर्तियाँ निकाल कर एक बार फिर से कुओं, तालाबों एवं जंगलों में छिपा दी गईं। इन प्रतिमाओं को मुगल सेनाओं से आंख बचाकर राजस्थान में ले आया गया।

राजा पद्मनाभ द्वारा बनवाई गई श्रीनाथजी की मूर्ति ने मेवाड़ में आकर विश्राम किया जहाँ वे आज भी विराजमान हैं। गोविंददेव, गोपीनाथ एवं मदनमोहन जयपुर चले आए। इनमें से मदनमोहन बाद में करौली चले गए जहाँ वे आज भी विराजमान हैं। गोविंददेव को जयपुर के राजा ने जयपुर राज्य का राजा घोषित किया एवं स्वयं उनके दीवान के रूप में शासन करने लगा।

मथुरा के निकट कर्नवाल गांव से मथुराधीश की मूर्ति प्राप्त हुई जिसे वल्लभाचार्य की संतानें कोटा में ले आईं। मथुराधीश आज भी कोटा में विराजमान हैं। मथुरा के द्वारिकाधीश को वल्लभाचार्य की संतानें मेवाड़ में ले आईं जिन्हें महाराणा ने आसोतिया गांव में विराजमान किया और बाद में कांकरोली में भव्य मंदिर बनवाकर उसमें प्रतिष्ठित किया।

मेवाड़ के गढ़बोर में प्रतिष्ठित चारभुजानाथ भी एक तालाब से प्रकट हुए जिनका मंदिर मुसलमानों ने तोड़ डाला था। गंगदेव ने चारभुजा नाथ को मेवाड़ के गढ़बोर में लाकर विराजमान किया।

अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में जोधपुर का राजा विजयसिंह अपनी पासवान गुलाबराय के कहने से गोकुलिए गुसाइयों का शिष्य हो गया। उसके काल में मारवाड़ राज्य में पूरे उत्साह के साथ कृष्णभक्ति होती थी। बीकानेर के राठौड़ शासक तो अपनी स्थापना के कुछ समय बाद से ही लक्ष्मीनाथजी को बीकानेर राज्य का स्वामी मानने लगे थे। किशनगढ़ के राठौड़ों ने निम्बार्क सम्प्रदाय को अपनाया तथा भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति को जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि माना।

कहा जाता है कि किशनगढ़ के राजा रूपसिंह को भगवान श्रीकृष्ण ने साक्षात् दर्शन दिए थे। किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमती भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थी। जब औरंगजेब ने उससे विवाह करने के लिए दिल्ली से डोला भिजवाया तो चारुमती ने मेवाड़ के राजा राजसिंह प्रथम से गुहार लगाई कि आप ही मेरे धर्म की रक्षा करें। राजसिंह ने मेवाड़ से किशनगढ़ आकर चारुमती से विवाह किया और उसे उदयपुर ले गया।

पोकरण के निकट तोमर राजा अजमाल के पुत्र रामदेव को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है। आज पूरे देश में करोड़ों लोग रामदेवजी की पूजा करते हैं तथा प्रतिवर्ष लाखों लोग उनके धाम रामदेवरा की यात्रा करते हैं।

इस प्रकार सदियों से राजस्थान में श्रीकृष्णभक्ति हो रही है। आज भी राजस्थान के गांव-गांव में भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्रीकृष्ण की पूजा बड़े स्तर पर होती है तथा गांव-गांव में उनके मंदिर बने हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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