सवाई जयसिंह का राज्य सवाई जयसिंह का राज्य सदा एक सा नहीं रहा। मुगल बादशाहों के सम्बन्धों के उतार-चढ़ाव के साथ-साथ जयसिंह का राज्य फूलता और सिकुड़ता रहा। हालांकि जोधपुर के राजा अजीतसिंह की सहायता से जयसिंह ने अपने खोए हुए राज्य पर अधिकार किया था किंतु सवाई जयसिंह का राज्य विस्तार सबसे अधिक अजीतसिंह की गतिविधियों से ही प्रभावित हुआ।
मुगल बादशाह बहादुरशाह ने जयसिंह को आमेर राज्य के अधिकार से वंचित करके केवल दौसा का जागीरदार बना दिया था किंतु जयसिंह ने मेवाड़ और मारवाड़ नरेशों की सहायता से अपने भाई और उसके समर्थक मुगल अधिकारियों को परास्त करके आमेर को पुनः हस्तगत किया।
धीरे-धीरे मुगल दरबार में उसका प्रभाव बढ़ता गया और उसी के साथ आमेर राज्य का विस्तार भी होता गया। 1714 ई. में भानगढ़, 1716-17 ई. में मलेरना और अमरसर, इसके बाद झाले, उनियारा, बरबड़ और नारायणा उसके राज्य में सम्मिलित हो गये। उसने कायमखानियों से शेखावाटी के 51 परगने 25 लाख रुपये इजारे पर लिये। ये सभी बाद में जयपुर राज्य में मिला लिये गये। शेखावत सरदारों को मुगल सेवा में मनसब मिल गये।
शेखावाटी क्षेत्र में खण्डेला का ठिकाना बहुत शक्तिशाली था। खण्डेला पर अधिकार करने के बाद सवाई जयसिंह ने इसको निर्बल बनाने की दृष्टि से उसका दो भाइयों में विभाजन कर दिया। 1729 ई. में उदयपुर से रामपुरा का परगना माधोसिंह के नाम से मिल गया। इस प्रकार, जयसिंह के समय में आमेर राज्य का विस्तार अपने चरम पर पहुंच गया।
जयपुर राज्य का राजस्व
जिस समय जयसिंह आमेर राज्य का राजा बना, उस समय आमेर राज्य की वार्षिक आय 5 लाख रुपये थी। जयसिंह के समय आमेर राज्य की आय 1 करोड़ रुपये हो गई। भानगढ़ के परगने से 48,350 रुपये, मलारना परगने से 3,33,273 रुपये, अमरसर के परगने से 80 हजार रुपये, झिलाय, उनियारा और बरवाड़ा से ढाई लाख रुपये, नारायणा परगने तथा अमरसर की सरकार (जिला) से 80,413 रुपये, मनोहरपुरा परगने से 27,525 रुपये की आय होती थी।
31 जनवरी 1727 को जयसिंह की अमरसर, नारायणा और मनोहरपुर की जगीरों की आय 2,30,030 रुपये कूंती गई। 20 अगस्त 1728 से अमरसर परगने की 12,500 रुपये की और आय भी जयसिंह को मिलने लगी। झुंझुनूं के कायम खाँ से जो 51 परगने छीने गये थे,उनके एवज में जयसिंह 25 लाख रुपये वार्षिक इजारे के रूप में मुगलों के खजाने में जमा करवाता था।
जयपुर राज्य की सेना
प्रारम्भ में जयसिंह की सेना बहुत कम थी जो कि बाद में बहुत बढ़ गई। जदुनाथ सरकार के अनुसार जयसिंह की नियमित सेना 40 हजार सैनिकों से अधिक कभी नहीं रही जिसका वार्षिक व्यय 60 लाख रुपये प्रतिवर्ष था। उसकी वास्तविक शक्ति उसकी तोपसेना में थी।
जयसिंह ने अपनी सेना में परम्परागत तलवारों और ढाल वाले राजपूत सैनिकों की बजाय बंदूकचियों को अधिक प्राथमिकता दी। वह सेना को युद्ध सामग्री की आपूर्ति पर विशेष ध्यान देता था। इस कारण वह हर समय युद्ध के लिये तैयार रहता था। शेखवाटी क्षेत्र पर अधिकार कर लेने के बाद जयसिंह को मजबूत सैनिकों की कमी नहीं रही। आगे चलकर टीपू सुल्तान, महादजी सिंधिया तथा मिर्जा नजफ खां ने भी जयसिंह के अनुकरण पर अपनी सेना में बंदूकों और तोपों को अधिक महत्त्व दिया।
अश्वमेध यज्ञ
राजा जयसिंह ने वाजपेय यज्ञ, राजसूय यज्ञ, पुरुष मेध यज्ञ तथा धर्म सम्मत कई यज्ञ किये। इन यज्ञों के अवसरों पर प्रजा में विपुल धन वितरित किया गया। 1740 ई. में राजा जयसिंह ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। यह यज्ञ लगभग सात शताब्दियों से किसी राजा ने नहीं किया था। इस यज्ञ का घोड़ा जयपुर नगर में छोड़ा गया। इसे सुवर्ण पट्टिका बांधकर घुमाया गया।
कुंभाणी राजपूतों ने इस घोड़े को रोककर अपने वंश गौरव का परिचय दिया। जयपुर सेना ने उनसे युद्ध करके घोड़े को छुड़ाया। इस यज्ञ में हवन सामग्री में एक लाख रुपया तथा दान-दक्षिणा में दो लाख रुपया व्यय हुआ। यज्ञ की चिर स्मृति बनाये रखने के लिये यूप स्तम्भ की स्थापना की गई। पुण्डरीक रत्नाकर इस यज्ञ का प्रधान पुरोहित था। माना जाता है कि जयसिंह अंतिम भारतीय राजा था जिसने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया।