डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा रियासतों में किस प्रकार कलह मची हुई थी। जब इन रियासतों के शासकों ने अपने सामंतों को दबाने के लिए सिंधी, ईरानी, पठान तथा बलूच सिपाहियों को अपनी सेवा में रखा तो ये सिपाही ही इन राज्यों में उपद्रव करने लगे। इस कड़ी में हम अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में कोटा राज्य की स्थति पर विचार करेंगे।
कोटा का राजवंश बूंदी के हाड़ा चौहानों में से ही निकला था। बूंदी का राज्य रणथंभौर के चौहानों में से निकला था। रणथंभौर का राजवंश अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज के वंश में से निकला था। इस प्रकार कोटा के हाड़ा चौहान पृथ्वीराज चौहान के वंशज थे और अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। मुगलों के काल में कोटा एवं बूंदी के हाड़ाओं ने मुगलों के लिए अनेक युद्ध लड़े थे।
अठाहरवीं शताब्दी ईस्वी में कोटा राज्य का दीवान झाला जालिमसिंह था। यह उन्हीं झालाओं का वंशज था जिन्होंने खानवा तथा हल्दीघाटी के युद्धों में महाराणा सांगा एवं महाराणा प्रताप के राज्यचिह्नों को धारण कर उनके प्राणों की रक्षा की थी और स्वयं युद्धक्षेत्र में कट मरे थे।
झाला जालिमसिंह राजपूताने के इतिहास में अद्भुत व्यक्ति हुआ है। उसकी बहिन का विवाह कोटा नरेश गुमानसिंह के साथ हुआ था। इस प्रकार झाला जालिमसिंह, कोटा नरेश गुमानसिंह का साला लगता था। जालिमसिंह कोटा राज्य का सेनापति था।
ई.1764 में जयपुर नरेश माधोसिंह ने कर वसूलने के लिए विशाल सेना लेकर कोटा राज्य पर आक्रमण किया। उस समय गुमानसिंह का पिता शत्रुशाल (द्वितीय) कोटा का महाराव हुआ करता था। फौजदार (सेनापति) जालिमसिंह उस समय मात्र 21 साल का था। उसने जयपुर को कर देने से मना कर दिया तथा भटवाड़े के मोर्चे पर जयपुर राज्य की सेना में जबर्दस्त मार लगाई और भागती हुई सेना का दूर तक पीछा किया।
इस अवसर का लाभ उठाकर मल्हारराव होलकर ने जयपुर राज्य के डेरे लूट लिए। भटवाड़ा की पराजय के बाद फिर कभी जयपुर राज्य ने कोटा राज्य से कर नहीं मांगा।
इतनी कम आयु में इतनी बड़ी विजय प्राप्त करने के कारण झाला जालिमसिंह की पूरे राजपूताने में धाक जम गई। जब गुमानसिंह कोटा का महाराव बना तो वह भी जालिमसिंह पर निर्भर रहने लगा। कोटा राज्य का फौजदार झाला जालिमसिंह किसी स्त्री से प्रेम करता था किंतु दुर्भाग्यवश महाराव गुमानसिंह की भी उस स्त्री पर दृष्टि पड़ गई और महाराव भी उस स्त्री से प्रेम करने लगा।
इस स्त्री के कारण ही गुमानसिंह और जालिमसिंह की खटपट हो गई। गुमानसिंह ने जालिमसिंह को कोटा से निकाल दिया। जालिमसिंह मेवाड़ नरेश भीमसिंह की सेना में चला गया। जालिमसिंह ने मेवाड़ राज्य के बागी जागीरदारों का दमन करके महाराणा की बड़ी सेवा की।
इस दौरान मेवाड़ तथा मराठों में उज्जैन में भारी युद्ध हुआ। जालिमसिंह महाराणा की तरफ से युद्ध में भाग लेने गया तथा वीरता का प्रदर्शन करता हुआ बुरी तरह घायल हो गया। घायल अवस्था में ही वह मराठों द्वारा बंदी बना लिया गया। मराठा सरदार इंगले ने अपने मुखिया को साठ हजार रुपये देकर जालिमसिंह को छुड़वाया। इस बीच अपनी बुद्धि और व्यवहार के बल पर जालिमसिंह ने मराठों से अच्छी मित्रता गांठ ली।
जालिमसिंह को कोटा से अनुपस्थित जानकर मराठों ने कोटा को घेर लिया। महाराव गुमानसिंह ने इतनी बड़ी विपत्ति को सिर पर देखकर जालिमसिंह को फिर से कोटा बुलाया। जालिमसिंह ने महाराव तथा मराठों के मध्य समझौता करवा दिया। इसके कुछ ही दिनों बाद ई.1817 में गुमानसिंह की मृत्यु हो गई। जब महाराव गुमानसिंह मरने लगा तो उसने उसने अपने सारे सरदारों को बुलाया तथा सबके सामने अपने 10 वर्षीय पुत्र उम्मेदसिंह को जालिमसिंह की गोदी में बैठाया और उससे वचन लिया कि वह उम्मेदसिंह तथा कोटा राज्य की रक्षा करेगा।
इसके बाद जालिमसिंह कोटा राज्य का फौजदार, दीवान, न्यायाधीश तथा कोषाध्यक्ष, सब-कुछ बन गया। वह अवयस्क महाराव की ओर से कोटा पर शासन करने लगा। उसने अपने लिए नान्ता में हवेली बना रखी थी। अब उसने दुर्ग के भीतर अपने लिए एक नई हवेली बनवायी। कुछ दिनों बाद जब राजा युवा हो गया तो जालिमसिंह ने अपने क्रिया-कलापों को राजा की दृष्टि से छिपाने के लिए एक हवेली सूरजपोल में बनवा ली।
उन्हीं दिनों कोटा राज्य में पिण्डारियों ने आतंक मचाना आरम्भ किया। जालिमसिंह ने अपनी सेनाएं पिण्डारी नेता कपूर खाँ तथा भीमू खाँ के पीछे भेजीं किंतु पिण्डारियों को काबू में नहीं किया जा सका। जनता त्राहि त्राहि करने लगी तो जालिमसिंह ने पिण्डारियों से मित्रता का मार्ग अपनाया। उसने पिण्डारी नेता अमीर खाँ तथा उसके परिवार को शेरगढ़ के दुर्ग में ला बसाया।
झाला ने साम, दाम, दण्ड तथा भेद नीति अपनाकर जनता को मराठों तथा पिण्डारियों के अत्याचारों से मुक्त रखा। वह मन ही मन पिण्डारियों से छुटकारा पाने की योजनाएं बनाता रहता था तथा अवसर की तलाश में रहता था।
जब महाराणा भीमसिंह तथा मराठों ने मिलकर बेगूं को घेर लिया तब जालिमसिंह ने छः लाख रुपये देकर बेगूं की रक्षा की। बेगूं में महाराव उम्मेदसिंह की ससुराल थी तथा बेगूं का ठिकाणा मेवाड़ राज्य के अंतर्गत ही था किंतु बेगूं का जागीरदार, महाराणा के अनुकूल आचरण नहीं करता था।
जनरल लेक ने दिल्ली को जीत लेने के बाद, जसवंतराव होलकर का पीछा करते हुए ई.1804 में कोटा राज्य में प्रवेश किया। जालिमसिंह ने बदलते हुए समय की आहट को पहचाना तथा जनरल लेक की तरफ मैत्री का हाथ बढ़ाया।
उसने अपनी सेना भी कर्नल मौन्सन के साथ कर दी। चम्बल के तट पर जसवंतराव होलकर तथा अंग्रेजों की सेना के बीच भयंकर संघर्ष हुआ। इस युद्ध में कोटा राज्य के 450 सैनिक मारे गए तथा कई सौ सैनिक मराठों ने कैद कर लिए। इस प्रकार मराठों तथा कोटा राज्य के बीच चला आ रहा सद्भाव समाप्त हो गया।
कोटा राज्य की सेना पलायथा के जागीरदार अमरसिंह के नेतृत्व में लड़ रही थी। अमरसिंह ने अपने प्राण देकर अंग्रेज सेनापति को लज्जित होने से बचाया। अमरसिंह तब तक मराठों को रोके रखने में सफल रहा जब तक कि कनर्ल मौन्सन ने मुकुंदरा घाटी में पहुंचकर अपनी स्थिति मजबूत नहीं कर ली।
अमरसिंह का बलिदान कितना महत्वपूर्ण था, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस घटना के 28 वर्ष बाद जब कोटा महाराव रामसिंह अजमेर दरबार के समय गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक से मिला तो बैंटिक ने महाराव से पूछा कि अमरसिंह का पुत्र कौन है? इस युद्ध में पीपल्या गाँव के पास ही कप्तान लूकन मारा गया था। पीपल्या गाँव के पास महुए का एक वृक्ष लूकन साहब का जुझार कहलाता था। जिस स्थान पर अमरसिंह गिरा था, वहाँ एक घुड़सवार मूर्ति बनाई गई थी।
जब लूकन और अमरसिंह मारे गए तो जसवंतराव होलकर कर्नल मौन्सन के पीछे दौड़ा। मौन्सन ने भाग कर कोटा में छिपना चाहा किंतु जालिम सिंह ने पराजित सेना को कोटा नगर में प्रवेश देने से मना कर दिया तथा उससे कहा कि यदि अंग्रेज चाहें तो कोटा नगर से बाहर पड़ाव डालें। कोटा राज्य उनके लिए रसद का प्रबन्ध कर देगा।
मौन्सन जालिमसिंह का यह रूप देखकर डर गया और सीधा दिल्ली भाग गया। मौन्सन जनरल लेक के सामने रोया कि झाला की सहायता न मिलने से अंग्रेज परास्त हो गए। उधर जसवंतराव होलकर कोटा पर चढ़ आया। झाला ने होलकर को कहलवाया कि सैनिकों का रक्तपात करवाने की बजाय आपस में बैठकर बात करना अधिक अच्छा है। होलकर ने झाला का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस पर चम्बल नदी में एक नाव सजाई गई। उसमें बहुमूल्य कालीन बिछाए गए।
दोनों सरदार चम्बल के बीच गढ़ के नीचे खड़ी हुई नाव तक पहुँचे। नदी के दोनों तटों पर दोनों ओर की सेनाएं तैयार खड़ी थीं। होलकर, झाला को काका कहता था तथा झाला, होलकर को भतीजा। भतीजे ने काका पर दस लाख रुपये का दण्ड धरा। जालिम सिंह ने तीन लाख रुपये देना स्वीकार किया। होलकर तीन लाख रुपये लेकर चला गया तथा जीवन भर जालिमसिंह से सात लाख रुपये मांगता रहा। कहा जाता है कि जब होलकर पागल हो गया, तब भी अक्सर पागलपन में उन सात लाख रुपयों की चर्चा किया करता था।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता