अलाउद्दीन खिलजी का पुत्र खिज्रखां ई.1313 से 1315 के बीच किसी समय, चित्तौड़ छोड़कर दिल्ली चला गया। इस पर अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर के मृत राजा कान्हड़देव के भाई मालदेव सोनगरा को चित्तौड़ दुर्ग पर नियुक्त किया। मालदेव सात साल तक चित्तौड़ पर शासन करता रहा। ई.1322 के लगभग चित्तौड़ दुर्ग में ही उसका निधन हुआ। मालदेव के निधन के बाद उसके पुत्र जेसा (जयसिंह) चित्तौड़ का दुर्गपति हुआ।
चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार
चित्तौड़ दुर्ग पर शासन करने वाली गुहिलों की रावल शाखा का अंत हो चुका था और चित्तौड़ दुर्ग पर दिल्ली सल्तनत के अधिकार को लगभग 20 वर्ष का समय हो चुका था। इस बीच दिल्ली में खिलजी वंश का सफाया हो चुका था किंतु गुहिलों का राज्य दीपक अब भी सीसोदा की जागीर में जगमगा रहा था। एक दिन सिसोदिया शाखा के राणा हमीर ने चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण किया। उसके सैनिकों ने, मुस्लिम तथा चौहान सैनिकों को पत्थरों से बांध-बांधकर दुर्ग की दीवारों से नीचे गिरा दिया और दुर्ग पर अधिकार कर लिया।
चित्तौड़ से निकाल दिये जाने के बाद जेसा दिल्ली पहुंचा। उस समय दिल्ली सल्तनत पर मुहम्मद तुगलक का शासन था। मुहम्मद तुगलक ने जेसा को अपनी सेना देकर पुनः चित्तौड़ के लिये रवाना किया। हमीर ने इस सेना को नष्ट कर दिया। चित्तौड़ दुर्ग में महावीर स्वामी के मंदिर में महाराणा कुम्भा का एक शिलालेख लगा है जिसमें हमीर को असंख्य मुसलमानों को रणखेत में मारकर कीर्ति संपादित करने वाला कहा गया है।
मेवाड़ राज्य के पुराने क्षेत्रों पर अधिकार
हमीर ने मेवाड़ राज्य के समस्त क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने जीलवाड़ा, गोड़वाड़, पालनपुर तथा ईडर पर भी अधिकार कर लिया। उसने भीलों के विरुद्ध कार्यवाही करके पहाड़ी भीलों के दल को मारा। हमीर ने मीणों के विरुद्ध कार्यवाही करके हाड़ा देवीसिंह को बूंदी का राज्य दिलवाया।
इस प्रकार छोटी सी सीसोदा जागीर का सामंत हमीर, चित्तौड़ का पराक्रमी राजा बन गया। सीसोदा के राणा, चित्तौड़ को पाकर महाराणा बन गये। गुहिलों की महाराणा शाखा में एक से बढ़कर एक प्रतापी राजा हुआ जिसने भारत भूमि पर चढ़ कर आये शत्रुओं से लोहा लिया, हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की रक्षा की तथा राष्ट्रीय राजनीति का नेतृत्व किया।
महाराणा क्षेत्रसिंह द्वारा चित्तौड़ राज्य की प्रतिष्ठा
महाराणा हमीर के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र क्षेत्रसिंह (ई.1364-1382) चित्तौड़ का महाराणा हुआ। वह इतिहास में ‘खेता’के नाम से प्रसिद्ध है। उसने अपनी तलवार के बल से युद्धक्षेत्र में मालवा के सुल्तान अमीशाह को जीता, उसकी अशेष यवन सेना को नष्ट किया और उसका सारा खजाना तथा असंख्य घोड़े अपनी राजधानी में ले आया। क्षेत्रसिंह ने चित्रकूट (चित्तौड़) के निकट यवनों की सेना का संहार कर उसको पाताल पहुंचाया। मालवा का स्वामि शकपति उससे ऐसा पिटा कि स्वप्न में भी उसी को देखता था।
सर्परूपी उस राजा (क्षेत्रसिंह) ने मेंढक के समान अमीशाह को पकड़ा था। क्षेत्रसिंह ने अमीसाहिरूपी बड़े सांप के गर्वरूपी विष को निर्मूल किया। क्षेत्रसिंह ने हाडावटी (हाड़ौती) के स्वामियों को जीतकर उनका मण्डल अपने अधीन किया और उनके करांतमण्डल मण्डलकर (मांडलगढ़) को तोड़ा तथा हाड़ाओं को मारकर उन्हें अपने अधीन बनाया।
मेनाल से प्राप्त बंबावदे के हाड़ा महादेव के ई.1389 के शिलालेख में कहा गया है कि उसकी (हाड़ा महादेव की) तलवार शत्रुओं की आंख में चकाचौंध उत्पन्न कर देती थी। उसने अमीशाह (दिलावरखां गोरी) पर अपनी तलवार उठाकर मेदपाट (मेवाड़) के स्वामी खेता (क्षेत्रसिंह) की रक्षा की और सुल्तान की सेना को अपने पैरों तले कुचलकर नरेंद्र खेता को विजय दिलवाई। इससे स्पष्ट है कि अमीशाह के साथ क्षेत्रसिंह की लड़ाई से पहले ही हाड़े, महाराणा के अधीन हो गये थे और उनकी सेना में रहकर लड़ते थे।
क्षेत्रसिंह ने ईडर के राजा रणमल्ल को कैद कर लिया तथा उसका सारा खजाना छीनकर उसका राज्य उसके पुत्र को दे दिया। कुंभलगढ़ की प्रशस्ति में लिखा है कि उसकी सेना की रज से सूर्य भी मंद हो जाता था। उसके सामने सादल आदि राजा अपने-अपने नगर छोड़कर भयभीत हुए तो क्या आश्चर्य है? सादल, संभवतः जयपुर राज्य के टोडा का राजा था।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता