‘मंगोल, चीन के उत्तर में स्थित ‘गोबी के रेगिस्तान’में रहने वाली घुमंतू एवं अर्द्धसभ्य जाति थी जिसका मुख्य पेशा घोड़ों और अन्य पशुओं का पालन करना था। वे बहुत गंदे रहते थे और सभी प्रकार का मांस खाते थे। एक मंगोल निरंतर 40 घण्टे तक घोड़े की पीठ पर बैठकर यात्रा कर सकता था। उनमें स्त्री सम्बन्धी नैतिकता का सर्वथा अभाव था किंतु वे माँ का सम्मान करते थे। वे विभिन्न कबीलों में बंटे हुए थे जिनमें परस्पर शत्रुता रहती थी।
बारहवीं शताब्दी ईस्वी में उन्हीं कबीलों में से एक कबीले का सरदार येसूगाई था जिसने एक अन्य कबीले के सरदार की औरत को छीन लिया। इस औरत के पेट से ई.1163 में तेमूचिन नामक बालक का जन्म हुआ। जब येसूगाई मर गया तब उसकी औरत एवं बच्चों को मजदूरी करके पेट भरना पड़ा किंतु जब तेमूचिन बड़ा हुआ तो उसने विश्व के सबसे बड़े मंगोल साम्राज्य की नींव रखी और वह इतिहास में चंगेजखां के नाम से जाना गया।
उसने चीन का अधिकांश भाग, रूस का दक्षिणी भाग, मध्य एशिया, टर्की (तुर्की), पर्शिया (ईरान), और अफगानिस्तान के प्रदेशों को जीत लिया। इस काल में मंगोल, इस्लाम से घृणा करते थे। इस कारण तुर्किस्तान का ख्वारिज्म साम्राज्य एवं बगदाद के खलीफा का राज्य, मंगोलों द्वारा धूल में मिला दिये गये।
मंगोलों की सेना एक रात्रि में 20 मील से अधिक का मार्ग तय कर लेती थी। वे तेजी से दौड़ते हुए घोड़े की पीठ पर बैठकर अपने शत्रुओं को तीरों से मार डालते थे। मंगोल जहाँ-कहीं गये, उन्होंने वहाँ की सभ्यता के समस्त चिह्नों को नष्ट कर दिया। बारहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण एशिया एवं यूरोप में मंगोल आक्रमणों का भय एवं आतंक व्याप्त रहा।
भारत पर उनका पहला आक्रमण ई.1221 में हुआ। उस समय इल्तुतमिश, दिल्ली का शासक था। चंगेजखाँ, ख्वारिज्म के शाह के पुत्र जलालुद्दीन का पीछा करते हुए भारत आ पहुँचा तथा उसका पीछा करते हुए उसी गति से लौट गया किंतु इसी शताब्दी में मंगोलों ने सिन्धु नदी को पार करके सिन्ध तथा पश्चिमी पंजाब में अपने शासक नियुक्त कर दिये। उस समय दिल्ली सल्तनत पर बलबन का शासन था।
उसके लिये यह संभव नहीं था कि वह मंगोलों को निष्कासित कर सके। इसलिये उसने मंगोलों को व्यास-रावी के दोआब में रोके रखने की व्यवस्था की तथा लाहौर दुर्ग की मरम्मत करवा कर उसमें एक सुसज्जित सेना रख दी। ई.1271 में बलबन स्वयं लाहौर गया और उन किलों की मरम्मत करवाई जिन्हें मंगोलों ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। बलबन ने सीमान्त प्रदेश को तीन भागों में विभक्त किया और प्रत्येक भाग में एक सेनापति नियुक्त किया।
इन समस्त क्षेत्रों में चुने हुए सैनिक रखे गये। राजधानी में भी एक विशाल सेना मंगोलों से निबटने के लिये सदैव विद्यमान रहती थी। मंगोलों ने कई बार व्यास को पार करके आगे बढ़ने का प्रयत्न किया किंतु बलबन के सेनापति उन्हें रोके रहे। ई.1285 में मंगोलों ने तिमूर खाँ के नेतृत्व में आक्रमण किया। बलबन के पुत्र मुहम्मद ने मंगोलों का रास्ता रोका। मंगोल पराजित होकर भाग गये किंतु बलबन का पुत्र मुहम्मद मारा गया। पुत्र की मृत्यु से बलबन को करारा आघात लगा और उसके शोक में ई.1287 के मध्य में बलबन की भी मृत्यु हो गई।
बलबन के सेनापति जलालुद्दीन खिलजी ने सीमांत प्रदेश पर नियुक्ति के दौरान मंगोलों के विरुद्ध युद्धों में सफलताएं प्राप्त करके ही नाम कमाया था। ई.1292 में डेढ़ लाख मंगोलों ने हुलागूखां के पौत्र अब्दुल्ला के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। उस समय जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान था। जलालुद्दीन खिलजी ने सिन्धु नदी के तट पर दु्रतगति से आक्रमण करके मंगोलों को परास्त किया तथा सहस्रों मंगोलों को बन्दी बना लिया।
मंगोलों का सरदार अब्दुल्ला, अपने अधिकांश मंगोल सैनिकों के साथ लौट गया परन्तु चंगेजखाँ के पौत्र उलूगखाँ तथा कई अन्य मंगोल सरदारों ने जलालुद्दीन की नौकरी कर ली तथा इस्लाम स्वीकार कर लिया। वे बहुत से मंगोल सैनिकों सहित दिल्ली के निकट बस गये जिसे मंगोलपुरी कहा जाने लगा।
अलाउद्दीन खिलजी (ई.1296-1320) के समय में मंगोलों ने भारत पर कई आक्रमण किये परन्तु अलाउद्दीन ने धैर्य पूर्वक उनका सामना किया। ई.1296 में उसने जालंधर के निकट मंगोलों के नेता कादर को परास्त किया। ई.1297 ई. में उसने, देवा तथा साल्दी के नेतृत्व में आये मंगोलों को परास्त करके 2000 मंगोल बंदी बनाये। मंगोलों का सबसे भयानक आक्रमण ई.1299 में दाऊद के पुत्र कुतुलुग ख्वाजा के नेतृत्व में हुआ।
उसने दो लाख मंगोलों के साथ बड़े वेग से आक्रमण किया तथा तेजी से दिल्ली के निकट पहुँच गया। मंगोलों के भय से हजारों लोग दिल्ली में आकर शरण ले चुके थे। इससे दिल्ली में अव्यवस्था फैल गई। मंगोलों द्वारा दिल्ली की घेराबंदी कर लिये जाने के बाद तो स्थिति और भी खराब हो गई। अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति जफरखाँ को मंगोलों से लड़ने का अनुभव था, इसलिये उसे अग्रिम पंक्ति में रखकर शाही सेना ने मंगोलों का सामना किया। जफरखाँ तथा उसकी सेना ने हजारों मंगोलों का वध किया। मंगोलों ने घात लगाकर जफर खाँ को मार डाला।
उस समय अलाउद्दीन तथा उसका भाई उलूगखाँ पास में ही युद्ध कर रहे थे किंतु उन्होंने जफरखाँ को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया। रात होने पर मंगोल अंधेरे का लाभ उठाकर भाग गये। ई.1302 में मंगोल सरदार तुर्गी ने 1,20,000 सैनिकों के साथ भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली के पास यमुना तट पर आ डटा। इन दिनों अलाउद्दीन, चितौड़ अभियान पूरा करके दिल्ली लौटा ही था। वह घबरा गया और दिल्ली छोड़कर सीरी के दुर्ग में बंद हो गया। तीन महीने तक दिल्ली में लूटपाट एवं कत्लेआम मचाने के बाद मंगोल वापस चले गये।
ई.1305 में 50 हजार मंगोलों ने अलीबेग की अध्यक्षता में दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण किया। वे अमरोहा तक पहुँच गये। अलाउद्दीन का सेनापति गाजी तुगलक उन दिनों दिपालपुर में था। उसने मंगोलों से भीषण युद्ध किया। असंख्य मंगोलों का संहार हुआ और वे भारत की सीमा के बाहर खदेड़ दिये गये। अलबेग तथा तार्तक को कैद करके दिल्ली लाया गया जहाँ उनका कत्ल कर दिया गया और उनके सिरों को सीरी दुर्ग की दीवार में चिनवा दिया गया।
ई.1307 में मंगोल सरदार इकबाल मन्दा ने विशाल सेना लेकर भारत पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन खिलजी ने इस विपत्ति का सामना करने के लिए मलिक काफूर तथा गाजी मलिक तुगलक के नेतृत्व में विशाल सेना भेजी। मलिक काफूर ने रावी नदी के तट पर कबक को परास्त करके उसे बीस हजार मंगोलों सहित कैद कर लिया। इन्हें दिल्ली लाकर हाथियों के पैरों तले कुचलवाया गया। बदायूं दरवाजे पर उनके सिरों की एक मीनार बनाई गई।
ई.1307 में ही दिल्ली के निकट मंगोलपुरी में रह रहे मंगोलों ने विद्रोह किया तथा सुल्तान की हत्या करने का षड्यन्त्र रचा। अलाउद्दीन खिलजी को इस षड्यन्त्र का पता लग गया। उसने अपनी सेना को आज्ञा दी कि वे नव-मुसलमानों को समूल नष्ट कर दें। बरनी का कहना है कि इस आज्ञा के पाते ही लगभग तीन हजार ‘नव मुस्लिम’ तलवार के घाट उतार दिये गये और उनकी सम्पत्ति छीन ली गई।
ई.1324 में सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के शासन काल में मंगोलों ने ‘समाना’पर आक्रमण किया। गयासुद्दीन तुगलक ने समाना के हाकिम अलाउद्दीन की सहायता के लिए दिल्ली से एक सेना भेजी। इस सेना ने पहली बार शिवालिक पहाड़ी के पास तथा दूसरी बार व्यास नदी के किनारे, मंगोलों को परास्त करके प्रमुख मंगोल योद्धाओं को बंदी बना लिया।
ई.1328 में मंगोलों ने तरमाशिरीन के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। वे दिल्ली के निकट आ गये। मुहम्मद बिन तुगलक ने मंगोलों को बहुत-सा धन देकर उनसे अपना पीछा छुड़ाया। इसके बाद चौदहवीं एवं पंद्रहवी शताब्दी में दिल्ली सल्तनत पर मंगोलों का कोई उल्लेखनीय आक्रमण नहीं हुआ। मध्य एशिया के मंगोलों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। इस प्रकार मंगोलों को भारत पर आक्रमण करते हुए पूरी एक शताब्दी बीत चुकी थी किंतु अभी भी दो शताब्दियों का समय बाकी था जब मंगोलों का सामाना मेवाड़ के गुहिलों से होना था।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता