पंद्रहवीं शताब्दी में मध्य एशिया में मंगोलों एवं तुर्कों के छोटे-छोटे राज्य अस्तित्व में थे। इन्हीं में से एक छोटा सा मुगल राज्य, फरगना के नाम से जाना जाता था। फरगना का शासक उमरशेख मिर्जा, तैमूर लंग का वंशज था। उसकी पत्नी का नाम कूललूक निगार खानम था जो मंगोल सरदार यूनसखाँ की पुत्री थी। यूनसखाँ, चंगेजखाँ का वंशज था। उमरशेख की पत्नी कूललूक के पेट से 14 फरवरी 1483 को बाबर का जन्म हुआ।
इस प्रकार बाबर, तैमूरलंग का पांचवा वंशज था तथा मातृपक्ष में चंगेजखाँ की चौदहवीं पीढ़ी में था। अतः बाबर की धमनियों में तुर्कों तथा मंगोलों का मिश्रित रक्त प्रवाहित हो रहा था। उसका परिवार तुर्कों की चगताई शाखा में था किंतु सामान्यतः उन्हें मंगोल माना जाता था। भारत में वे मुगल कहलाये।
बाबर जब ग्यारह वर्ष का हुआ तब उसके पिता उमर शेख मिर्जा की मृत्यु हो गई तथा बाबर फरगना का शासक बन गया। कुछ समय बाद बाबर समरकंद का भी शासक हो गया जो कि तुर्की सभ्यता का केन्द्र था। कुछ समय बाद जब समरकंद हाथ से निकल गया तो बाबर ने ई.1505 में काबुल तथा गजनी पर अधिकार कर लिया। ई.1507 में बाबर ने कंदहार (गान्धार) पर अधिकार कर लिया।
ई.1513 ई. में बाबर ने पुनः समरकंद पर अधिकार कर लिया किंतु शीघ्र ही उसे उजबेगों ने समरकंद से मार भगाया। कांधार भी बाबर के हाथ से जाता रहा। इस प्रकार बाबर का पूरा जीवन युद्धों में बीता। युद्ध के मैदानों में ही उसकी युद्धशिक्षा हुई। उजबेगों से युद्ध करते हुए बाबर ने ‘तुलगमा’पद्धति सीखी। मंगोलों एवं अफगानों से युद्ध करते समय उसने अपनी सेना को शत्रु की आँखों से छिपाकर रखना सीखा।
उसने ईरानियों से बंदूक का प्रयोग करना तथा सजातीय तुर्कों से गतिशील अश्वारोहिणी का संचालन करना सीखा। अपने शत्रुओं से ही उसने युद्ध क्षेत्र में योजनाबद्ध व्यूह रचना करनी सीखी। इस प्रकार वह एक जबर्दस्त योद्धा एवं सेनापति बन गया। ई.1514 में बाबर को उस्ताद अली नामक एक तुर्क तोपची की सेवाएँ प्राप्त हुईं। इस तोपची की सहायता से बाबर ने एक शक्तिशाली तोपखाना तैयार किया।
समरकंद तथा फरगना हाथ से निकल जाने के कारण बाबर मध्य एशिया से निराश हो चुका था। कंदहार भी उसके हाथ से निकल चुका था। काबुल तथा गजनी के अनुपजाऊ प्रदेश बाबर की महत्वाकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते थे इसलिये उसने भारत पर अपनी दृष्टि गड़ाई। ई.1526 में बाबर ने भारत पर आक्रमण किया तथा अपने तोपखाने और तुलगमा युद्धपद्धति के बल पर लोदी सल्तनत का अंत कर दिया। भारत में किसी भी युद्ध में तोपखाने तथा तुलगमा युद्धपद्धति का यह पहला प्रयोग था।
ई.1527 में बाबर, महाराणा सांगा की ओर अग्रसर हुआ। उस समय सांगा के राज्य की सीमाएं उत्तर में आगरा के निकट पीलाखाल तक विस्तृत थीं तथा वह उत्तर एवं मध्य भारत की सबसे बड़ी सामरिक शक्ति था। उसे जीते बिना बाबर, भारत पर शासन नहीं कर सकता था।
बाबर ने अपनी आत्मकथा तुजुके बाबरी में लिखा है- ‘राणा सांगा अपनी वीरता और तलवार के बल पर बहुत बड़ा हो गया था। उसकी शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि मालवा, गुजरात और दिल्ली के सुल्तानों में से कोई भी उसे अकेला नहीं हरा सकता था। उसने लगभग 200 नगरों में मस्जिदें गिरवाईं और बहुत से मुसलमानों को बंदी बनाया। उसका राज्य 10 करोड़ रुपये की आमदनी का था। उसकी सेना में 1 लाख सवार रहा करते थे। उसके साथ 7 राजा, 9 राव और 104 छोटे सरदार रहा करते थे।’
बाबर के साथ आये ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि सांगा से युद्ध में बाबर की पराजय होगी किंतु बाबर के पास सांगा से लड़ने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था। इधर सांगा भी अपनी सेना लेकर बाबर का सामना करने आया तथा बसावर के पास मोर्चा लगाकर बैठ गया। सांगा भी जर्बदस्त योद्धा था। उसका जीवन भी युद्ध के मैदानों में बीता था। इन युद्धों से उसे 80 घाव मिले थे। एक आँख, एक हाथ और एक पांव भी उसने युद्ध के मैदानों में ही बलिदान किये थे। सांगा को बाबर की प्रबलता का अनुमान था, इसलिये सांगा ने इस युद्ध की जबर्दस्त तैयारी की तथा अपने मित्र राजाओं को लड़ाई में भाग लेने के लिये आमंत्रित किया।
सांगा की तरफ से लड़ने के लिये आम्बेर का राजा पृथ्वीराज, ईडर का राजा भारमल, मेड़ता का राजा वीरमदेव, डूंगरपुर का रावल उदयसिंह, देवलिया का रावत बाघसिंह, बीकानेर का राजकुमार कल्याणमल, सांगा का भतीजा नरसिंहदेव, अंतरवेद से चंद्रभाण चौहान और माणिकचंद चौहान तथा अनेक प्रसिद्ध सरदार- दिलीप, रावत रत्नसिंह कांधलोत (चूंडावत), रावत जोगा सारंगदेवोत, नरबद हाड़ा मेदिनीराय, वीरसिंह देव, झाला अज्जा, सोनगरा रामदास, परमार गोकुलदास तथा खेतसी भी अपनी-अपनी सेनाएं लेकर आये।
अलवर का हसनखां मेवाती और इब्राहीम लोदी का पुत्र महमूद लोदी भी अपनी सेनाएं लेकर सांगा की तरफ आ गये। इस प्रकार सांगा की सेना में बहुत बड़ी संख्या में सैनिक हो गये। जोधपुर राज्य से राव गांगा ने मेड़ता के राव वीरम के नेतृत्व में 4000 हजार सैनिक भेजे।
बाबर अपने साथ काबुल से 12 हजार सैनिक लेकर आया था। भारत में उसकी सेना में कितनी वृद्धि हुई, इसकी कोई सूचना नहीं मिलती लेकिन उत्तर भारत के लगभग समस्त मुस्लिम सरदार अपनी-अपनी सेनाएं लेकर बाबर की तरफ से लड़ने के लिये आ गये। चूंकि बाबर ने भारत से अफगानों के राज्य की समाप्ति की थी इसलिये भारत के अफगान सरदारों ने बाबर का साथ नहीं दिया। फिर भी इतना निश्चित है कि बाबर की सेना, सांगा की सेना से काफी बड़ी रही होगी।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता