महाराणा राजसिंह के निधन के बाद जयसिंह, मेवाड़ का महाराणा हुआ। उसने भी अपने पिता द्वारा आरम्भ की गई लड़ाई को जारी रखा। जब दिलवारखां बड़ी सेना लेकर गोगूंदे की घाटी तक आ गया तब महाराणा के निर्देश से रावत रत्नसिंह चूण्डावत ने उसे घाटी में ही घेर लिया। दिलावरखां किसी तरह वहाँ से जान बचाकर भागा और शहजादे आजम के पास जाकर कहा कि वहाँ मेरे 400 आदमी रोज मर रहे थे इसलिये मैं वहाँ से निकल आया।
मुगल सेनापतियों और शहजादों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के बाद सिसोदियों एवं राठौड़ों ने शहजादे मुअज्जम को अपने पक्ष में करने के लिये प्रयास आरंभ किये किंतु अपनी माँ के कहने से मुअज्जम, राजपूतों से दूर ही रहा। मुअज्जम के मामले में सफलता नहीं मिलने पर, महाराणा जयसिंह ने दुर्गादास राठौड़ तथा राव केसरीसिंह को औरंगजेब के शहजादे अकबर के पास भेजा।
उन्होंने अकबर से कहा कि औरंगजेब, राजपूतों को नाराज करके अपने सारे राज्य को नष्ट कर रहा है। इसलिये तुम स्वयं बादशाह बनकर अपने पूर्वजों की नीति का अवलम्बन करो और राज्य को स्थिर तथा समृद्ध बनाओ। अकबर को यह बात पसंद आई और उसने राजपूतों से समझौता कर लिया तथा महाराणा जयसिंह से मिला। 1 जनवरी 1681 को अकबर ने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया।
उसने तहव्वरखां को अपना मुख्यमंत्री बनाकर उसे सात हजारी मनसब दिया तथा अपने नाम का सिक्का एवं खुतबा जारी किया। इसके पश्चात् वह 70 हजार सैनिकों की विशाल सेना लेकर अजमेर की ओर मुड़ा जहाँ उसका पिता औरंगजेब ठहरा हुआ था।
अकबर के इस आकस्मिक विद्रोह की सूचना पाकर औरंगजेब बहुत घबराया और उसकी स्थिति बड़ी दयनीय हो गई। उस समय उसके पास खानसामों, बावर्चियों, भिश्तियों और अन्य असैनिक कर्मचारियों को मिलाकर कुल दस हजार आदमी थे क्योंकि सेना तो वह अकबर के साथ भेज चुका था। फिर भी औरंगजेब ने हिम्मत नहीं हारी। उसने समस्त मनसबदारों और शहजादों को अजमेर पहुंचने के लिये लिखा।
औरंगजेब ने इनायतखां को अजमेर का फौजदार नियुक्त किया। बहरमंदखां को सैन्य अभियान का कमाण्डर बनाया तथा उसे निर्देश दिये कि शाही सैनिकों के चारों ओर किलेबंदी की जाये तथा अजमेर की तरफ आने वाले मार्गों की रक्षा की जाए। असदखां बटलाया को पुष्कर मार्ग तथा झील पर नियुक्त किया गया। अबू नासरखां को असदखां का नायब नियुक्त करके उसे अजमेर के पश्चिम की ओर दृष्टि रखने का काम दिया गया।
अकबरी महल के निकट अजमेर की गलियों में तोपें लगा दी गईं। अहमदाबाद के नाजिम हाफिज मोहम्मद अमीन तथा अन्य अधिकारियों को निर्देश दिये गये कि वे हर समय शस्त्र लेकर तैयार रहें तथा अपने दायित्वों का निर्वहन करते रहें। उम्दतुलमुल को किलेबंदी की निगरानी रखने का काम दिया गया। शहजादे अकबर के वकीलों शुजातखां तथा बादशाहखां को गढ़ बीठली में बंदी बना लिया गया। हिम्मतखां को गढ़ बीठली का कमाण्डर नियुक्त किया गया।
अनुभवहीन एवं विलासी अकबर, औरंगजेब की दयनीय स्थिति का आकलन नहीं कर सका और कदम-कदम सूंघता हुआ बहुत धीमी गति से अजमेर की ओर बढ़ा। 15 दिन में उसने 120 मील दूरी तय की। ये 15 दिन औरंगजेब जैसे अनुभवी सेनापति के लिए पर्याप्त थे। उसने आस-पास के सरदारों को बुलाकर काफी सेना एकत्रित कर ली।
17 जनवरी 1681 को शहजादा अकबर अपने राठौड़ साथियों के साथ, अजमेर से 22 मील दक्षिण में बुधवाड़ा पहुंच गया। औरंगजेब भी अजमेर से निकलकर दोराई पहुंच गया परंतु यहाँ से आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हुई। यहाँ से अकबर तथा औरंगजेब की सेनाओं के बीच की दूरी 3 मील रह गई थी। जैसे-जैसे दोनों सेनाओं के बीच की दूरी घटती जाती थी वैसे-वैसे बादशाही अमीर, अकबर की सेना से निकलकर औरंगजेब के लश्कर में मिलते जाते थे। शहजादा मुअज्जम भी यहीं आकर औरंगजेब से मिल गया। अकबर के अजमेर पहुंचने से पहले शिहाबुद्दीनखां सिरोही की तरफ से तथा हामिदखां 16,000 सैनिकों सहित औरंगजेब से आकर मिल गये।
औरंगजेब का सेनापति तहव्वरखां अब भी अकबर के साथ था। जबकि उसका श्वसुर इनायतखां औरंगजेब के साथ था। औरंगजेब ने इनायतखां को आदेश दिये कि वह तहव्वखां को बुला ले और यदि वह नहीं आये तो तहव्वरखां के परिवार को नष्ट कर दे। इस पर इनायतखां ने तहव्वरखां को बादशाह के आदेशों की सूचना भिजवाई। यह सूचना मिलने पर, एक पहर रात गये तहव्वरखां अकबर का शिविर छोड़कर औरंगजेब के लश्कर में चला गया। रात्रि में ही वह औरंगजेब से मिलने उसकी डेवढ़ी पर गया। तहव्वरखां से कहा गया कि वह शस्त्र बाहर रखकर बादशाह से मिलने भीतर जाये किंतु तहव्वरखां ने शस्त्र बाहर रखने से मना कर दिया। इसलिये बादशाह के सिपाहियों ने उसे उसी स्थान पर मार दिया।
जिस रात तहव्वरखां, अकबर को छोड़कर औरंगजेब के पास गया, उसी रात औरंगजेब ने एक और षड़यंत्र रचा। यह वही षड़यंत्र था जो एक समय शेरशाह सूरी ने राव मालदेव के विरुद्ध रचा था। औरंगजेब ने राजपूतों को धोखा देने के लिये अकबर के नाम एक झूठा पत्र लिखकर दुर्गादास के हाथ में पहुंचवा दिया। यह पत्र इस प्रकार से था- मैं तेरे राठौड़ों को धोखा देकर फँसा लाने से बहुत प्रसन्न हूँ। कल प्रातःकाल युद्ध में, मैं आगे से उन पर आक्रमण करूंगा और तू पीछे से हमला कर देना। इससे वे आसानी से नष्ट हो जाएंगे। यह पत्र दुर्गादास के डेरे के बाहर डाल दिया गया।
जब यह पत्र दुर्गादास को मिला तो वह इसके सम्बन्ध में अपना संदेह मिटाने के लिये अकबर के शिविर में पहुंचा परंतु उस समय अर्द्धरात्रि से भी अधिक समय बीत चुका था अतः अकबर गहरी नींद में सोया हुआ था। दुर्गादास ने अकबर के अंगरक्षकों से अकबर को जगाने के लिये कहा किंतु ऐसा करने की आज्ञा न होने के कारण अंगरक्षकों ने इस बात को मानने से मना कर दिया। इससे दुर्गादास क्रुद्ध होकर लौट आया। इसके बाद राठौड़ों ने तहव्वरखां की खोज की परंतु उसके भी शाही सेना में चले जाने का समाचार मिला तब राठौड़ों का संदेह दृढ़ हो गया और वे प्रातःकाल होने के तीन घण्टे पूर्व ही अकबर के शिविर को लूटकर मारवाड़ की तरफ लौट गये। यह देखकर अन्य शाही सेना नायक भी बादशाह से जा मिले।
प्रातःकाल होने पर इस घटना की सूचना अकबर को मिली तो वह बहुत घबराया। अब उसके पास केवल 350 सवार रह गये थे। इसलिये वह बादशाह के कोप से बचने के लिये अपनी एक बेगम, 25 दासियां तथा जवाहरातों से भरा हुआ बक्सा लेकर 10 कोस के अंतर पर ठहरे हुए राठौड़ों की तरफ रवाना हुआ। जब मेरों को ज्ञात हुआ कि अकबर बहुत थोड़े आदमियों के साथ राठौड़ों की तरफ जा रहा है तो वे तीर कमान लेकर उसका मार्ग रोककर खड़े हो गये।
इस पर अकबर के साथ के स्त्री-पुरुषों ने मेरों पर तीर बरसाये किंतु मेर उन पर भारी पड़े। यह देखकर अकबर ने मेरों को जवाहरातों से भरा बक्सा देकर उनसे सुरक्षित मार्ग खरीद लिया। 16 जनवरी 1681 को रबड़िया गांव के पास अकबर ने दुर्गादास से भेंट की। तब जाकर दुर्गादास को सारी सच्चाई का पता लगा। उसने अपने आदमी मेरों के पीछे भेजे। दुर्गादास के आदमी जवाहरातों से भरा हुआ बक्सा मेरों से वापस छीनने में सफल रहे।
अब औरंगजेब से लड़ना संभव नहीं रह गया था। इसलिये दुर्गादास अकबर को अपने साथ लेकर जालोर की तरफ रवाना हो गया। औरंगजेब ने शहजादा आलम को अकबर को वापस लाने के लिये उसके पीछे भेजा किंतु अकबर को अपने बाप पर कतई विश्वास नहीं था। इस समय तक राठौड़ों तथा मेवाड़ियों के नित्य नये आक्रमणों से उकताये हुए औरंगजेब को मराठों के द्वारा तगड़ी चेतावनी मिलने लगी थी।
इसलिये उसने महाराणा से संधि करनी चाही तथा महाराणा के सहयोग से अकबर को मार डालने की योजना बनाई किंतु महाराणा ने दुर्गादास तथा राठौड़ सोनिंग आदि को कहलवाया कि इधर सुलह की बात आरम्भ हो गई है अतः शहजादे को दक्षिण में पहुंचा दो। इस पर दुर्गादास अकबर को भोमट, डूंगरपुर और राजपीपला के मार्ग से शंभाजी के पास ले गया। अकबर भारत में न रहकर अरब चला गया। वह अपने एक पुत्र तथा एक पुत्री को राठौड़ दुर्गादास के पास छोड़ गया। दुर्गादास ने अजमेर से एक शिक्षिका बुलाकर शहजादे तथा शहजादी को कुरान की शिक्षा दिलवाने का प्रबंध किया।
अकबर के चले जाने से बादशाही शिविर में बड़ा आनंद मनाया गया। इसके बाद औरंगजेब, शाहबुद्दीनखां, शाहआलम , कुलीखां, इंद्रसिंह आदि को अकबर का पीछा करने की आज्ञा देकर स्वयं अजमेर लौट गया। औरंगजेब मेवाड़ की पहाड़ियों में सर्वस्व लुटाते-लुटाते बचा था। अब वह दक्षिण के अभियान पर जाना चाहता थाा इसलिये उसने महाराणा से संधि के प्रयास तेज कर दिये।
महाराणा ने भी अकबर का विद्रोह असफल हो जाने पर, औरंगजेब से सुलह कर लेना ठीक समझा। 24 जून 1681 को राजसमुद्र पर शहजादा आजम तथा महाराणा जयसिंह के बीच भेंट हुई। महाराणा का पांच हजारी मनसब बहाल कर दिया गया तथा दोनों ओर से कीमती उपहारों का आदान-प्रदान किया गया। इस संधि की मुख्य शर्तें इस प्रकार से थीं-
1. महाराणा जजिया के बदले में पुर, मांडल और बदनोर के परगने बादशाह को सौंप देगा।
2. बादशाह मेवाड़ से अपना दखल हटा लेगा।
3. महाराणा राठौड़ों को सहायता नहीं देगा।
यह संधि सम्पादित हो जाने के बाद 8 सितम्बर 1681 को औरंगजेब, शहजादे शाहआलम (मुअज्जम) के पुत्र अजीमुद्दीन तथा वजीर जुमलात उल मुल्क असदखां को अजमेर का प्रभार देकर शंभाजी पर आक्रमण करने दक्खिन के लिये चल दिया। जहाँ से वह कभी वापस लौट कर नहीं आया। वह 25 साल तक दक्खिन में लड़ता रहा और वहीं उसकी मृत्यु हुई।
जब पुर, मांडल और बदनोर के परगने बादशाह को देने तय हो गये तो महाराणा ने 1000 सवार, मुगल सेना में भेजने बंद कर दिये। कुछ समय बाद शहजादे आजम ने महाराणा को लिखा कि पुर, मांडल और बदनोर के परगने आपको बहाल कर दिये गये हैं अतः आप अच्छी किस्म के 1000 घुड़सवार दक्षिण के मोर्चे पर भेजें। महाराणा ने इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया।
तब शहजादे आजम ने दूसरा पत्र लिखकर महाराणा से कहा कि यदि आप 1000 घुड़सवार नहीं भेजना चाहते तो जजिया के एवज में प्रतिवर्ष एक लाख रुपया चार किश्तों में अजमेर के सूबेदार के पास पहुंचायें। बदले में आपके मनसब में वृद्धि करके पुर और बदनोर के परगने तन्खाह में आपको दिये जाते हैं। इसके साथ ही खिलअत और हाथी भेजकर आपकी प्रतिष्ठा की जाती है। सालाना एक लाख रुपये देने की जमानत अजमेर के दीवान के समक्ष पेश करें। प्रतिवर्ष नियत किश्तों पर रुपये जमा कराते रहें। इस प्रकार महाराणा ने अपने गये हुए परगने वापस प्राप्त कर लिये तथा उसका मनसब छः हजारी हो गया।