महाराज सरदारसिंह का ताम्रपत्र उदयपुर के महाराणा सरदारसिंह के जीवन काल के उस भाग में लिखा गया था जब वह बागोर ठिकाने का जागीरदार था।
बागोर मेवाड़ रियासत में प्रथम श्रेणी का ठिकाना था। महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (शासनकाल ई.1711-34) ने बागोर की जागीर अपने पुत्र नाथसिंह को प्रदान की थी। तब से ई.1875 बागोर ठिकारणा नाथसिंह के वंशजों के पास रहा। ई.1875 में उदयपुर के महाराणा ने बागोर का ठिकाणा खालसा कर लिया अर्थात् महाराणा की स्वयं की जागीर में मिला लिया।
मेवाड़ राजवंश से होने के कारण बागोर के जागीरदार महाराज की उपाधि से विभूषित किये जाते थे। यदि मेवाड़ का कोई महाराणा निःसंतान मर जाता था तो बागोर ठिकाने के किसी राजकुमार को ही मेवाड़ का महाराणा बनाया जाता था। बागोर की वंश-परम्परा में सरदार सिंह पहला था जिसे महाराजा जवानसिंह की निःसंतान मृत्यु हो जाने पर मेवाड़ का सिंहासन दिया गया था।
सरदारसिंह का जन्म संवत 1845 (ई.1788) में हुआ था। वह नाथसिंह का प्रपौत्र व शिवदानसिंह का पुत्र था। मेवाड़ का सिंहासन प्राप्त होने से पहले सरदारसिंह बागोर का राजा था। 4 सितम्बर 1838 को वह उदयपुर का महाराणा बना।
सरदारसिंह के एक ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि संवत् 1879 (ई.1822) में सरदारसिह बागौर का जागीरदार था एवं जवानसिंह इस समय उदयपुर का महाराजकुमार था।
गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने जवानसिंह के राज्याभिषेक की तिथि वि.सं. 1885 चैत्र सुदी 15 में (31 मार्च सन् 1829) दी है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि संवत् 1878 जवानसिंह राजकुमार ही था।
यह ताम्रपत्र उदयपुर के विक्टोरिया हॉल संग्रहालय में सुरक्षित रखवाया गया था। ताम्रपत्र का आकार 12’’×19’’ है। व इसमें कुल 14 (शीर्षक सहित 16) पंक्तियां हैं। अन्तिम पंक्ति में ताम्रपत्र की तिथि वैशाख कृष्ण 5 संवत् 1882 दी गई है। महाराज सरदारसिंह का ताम्रपत्र में कहा गया है कि महाराजाधिराज महाराजा श्री सरदारसिंह ने कार्तिक शुक्ला 11 संवत् 1879 को यमुना की तीर्थयात्रा के समय अपने यमुनागुरु (सरगावड ब्राह्मण) जाति के रा (र) ती राम व गोवदेराम को बागोर की जागीर का ग्राम बावला (बावलास) से 5 बीघा जमीन पीवल 6 भूमि प्रदान की।
जिस भूमि में धरातल के कुछ ही नीचे पानी प्राप्त हो जाता है, उसे पीवल कहा जाता था। इसके विपरीत ऊंचाई पर आई हुई वह भूमि जिसमें पानी अत्यधिक गहराई में प्राप्त हो उसे राकड कहते थे। महाराज सरदारसिंह का ताम्रपत्र की पंक्ति संख्या 6 से 8 तक कहा गया है कि कुंवर जवानसिंह की माता किसी पर्व पर श्री काशीजी की यात्रा करके लौटी थी तब यह भूमि प्रदान की गई थी।
ताम्रपत्र की पंक्ति 11 व 12 में कहा गया है कि इस प्रदत्त भूमि का 3/4 भाग अर्थात् (3 बीघा 15 विस्बा) रतिराम के अधिकार में रहेगा व 1/4 भाग (1 बीघा 5 विस्बा) गोवदेराज के अधिकार में रहेगा। ताम्रपत्र का मूल पाठ निम्नानुसार है :
श्री ऐ (ए) कलीं (लिं) ग प्रसादातु (श्री रामजी) 1 (श्री) गु (ग) लैस प्रस (सा) दातु।
- सीध (सिद्ध) श्री मा (म) हाराज (जा) धिराज मा (म) हारानीजी श्री सीरदार
- सिंघ जी वचनातु जमनागुरु (रू) रा (र) तीराम गोवदेराम।
- हे जात सरगावडे ( सनाढ्य ) धरती बीगा 5 पांच पीवल गाम बाव
- ला (बावलास) पटे बागोर के तीमें सम (व) त 1879 का काती सु
- द 11 है श्री ज्म (जम) नाजी सनान करे श्री रामा अरपण केरदीय
- लागत व लगत सुदी श्री मा (म) हाराज कुवर जवानसिंघ रे मा
- परब बा पदारा सो श्री कासी (शी) जी की जातरा करे पाछा प
- दारा जदि विधी (संवत) (स्वदत) (परदत) (परदत्त) बाजेपालधीबासधरा (बसुंधरा)
- जे नरा स्वरंग (र्ग) जाए जा (या) वत चंदर देपा (वा) करा (1) सीव
- बदत ( स्वदत ) (परदत) (त) वाजे लोपेती बसधरा ( वसुन्धरा ) जे नरानरक जा
- एती जबलग चंद्र दे (दि) वाकरा : 2 पाती 3 णा रतीराम
- री पाती 1 गोबदराम की दुबे श्री मुष दसगत साहा
- जे कीसन (देव) पुरा
- सवत (संवत ) 1882 रा बसारण (वैशाख) वद 6.
इस प्रकार महाराज सरदारसिंह का ताम्रपत्र उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी में मेवाड़ रियासत में राजा अथवा रानी द्वारा तीर्थ यात्रा से लौटने पर ब्राह्मणों को भूमि एवं गांव दान देने की परम्परा की पुष्टि करता है। महाराणा सरदारसिंह के बाद उसका पुत्र स्वरूपसिंह मेवाड़ का महाराणा हुआ।