राजस्थान के तीज त्यौहार एवं व्रत राजस्थान के लोगों के जीवन के प्रति दृष्टिकोण को व्यक्त करते हैं। ये आनंद की सृष्टि करते हैं तथा प्रत्येक मनुष्य को अपने परिवार एवं समाज के प्रति निष्ठावान बनाते हैं।
किसी भी क्षेत्र के तीज-त्यौहार, पर्व, उत्सव एवं व्रत, उस क्षेत्र की संस्कृति का सबसे मुखर अंग होते हैं। पर्व का अर्थ होता है- संधि; उत्स शब्द उत्साह का द्योतक है और व्रत का अर्थ होता है उपवास करने का संकल्प। यहाँ संधि से आशय, दो भिन्न प्रकार के कालों अर्थात् ऋतुओं की संधि से है। जब एक ऋतु जाती है और दूसरी ऋतु आती है तो उनके बीच के काल को संधि अथवा पर्व कहा जाता है। इसे संक्रांति भी कहते हैं।
सामान्यतः अमावस्या एवं पूर्णिमा को संधिकाल माना जाता है। इस कारण रक्षाबंधन, दीपावली एवं होली जैसे लोकव्यापी पर्व पूर्णिमा अथवा अमावस्या को मनाए जाते हैं। जब सूर्यदेव एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं, तब भी संक्रांति होती है अर्थात् इसे भी पर्व कहते हैं। मकर संक्रांति एवं कर्क संक्राति जैसे पर्व इसी अवसर पर मनाए जाते हैं।
कुछ पर्व किसी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं की स्मृति में मनाए जाते हैं, जैसे- दशहरा, दीपावली, होली, वीरपूळी, नागपंचमी, घुड़ला आदि। कुछ पर्व फसलों के पकने की प्रसन्नता में मनाए जाते हैं जैसे- वैशाखी, होली एवं दीपावली आदि। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ही पर्व को मनाने के पीछे एक से अधिक कारण भी होते हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक पर्व के साथ व्रत अनिवार्य रूप से संलग्न हो। दूसरी ओर यह भी आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक व्रत किसी पर्व के साथ ही संलग्न हो। एकादशी को किसी तरह की संधि (पर्व या गांठ) नहीं होती फिर भी वर्ष में पड़ने वाली प्रत्येक एकादशी को व्रत किया जाता है। इस व्रत को करने के पीछे अलग धार्मिक कारण हैं। वर्ष में कुछ प्रतिपदाओं, तृतीयाओं, चतुर्थियों एवं अन्य तिथियों को भी व्रत किए जाते हैं।
राजस्थान की संस्कृति, प्राचीन आर्यावर्त में स्थित गंगा-यमुना के दो-आब की संस्कृति का अंग है। गंगा-यमुना के दो-आब की तरह राजस्थान के निवासी भी ऐतिहासिक रूप से दीर्घकाल तक विदेशी आक्रांताओं से संघर्ष करते रहे। लोगों की संघर्षशीलता ने राजस्थान की संस्कृति को सांगोपांग प्रभावित किया किया है।
अरावली पर्वत राजस्थान को दो भौगोलिक भागों में बांटता है- अरावली के पूर्व में स्थित मैदानी भाग तथा पश्चिम में स्थित रेगिस्तानी भाग। दोनों भूभागों की संस्कृति मूलतः एक होते हुए भी, उन पर स्थानीय भूगोल एवं जलवायु के अंतर के कारण थोड़ी-बहुत भिन्नता देखी जाती है।
इस पुस्तक में राजस्थान की वीर-प्रसूता भूमि पर विगत सहस्रों एवं सैंकड़ों वर्षों से मनाए जा रहे पर्वों, उत्सवों एवं उनसे संलग्न व्रतों को लिखा गया है। प्रत्येक उत्सव एवं व्रत को मनाने के पीछे कोई न कोई सांस्कृतिक कारण जुड़ा हुआ होता है। सामान्यतः यह कारण उस उत्सव अथवा व्रत की कथा में निहित होता है।
उत्सवों एवं पर्वों के आयोजन की पृष्ठभूमि में वस्तुतः जन-मंगल की आकांक्षा ही रही है। लोगों के जीवन से निराशा का अंधेरा दूर हो एवं आशा का उजाला आए। इसी भाव को इंगित करके किसी कवि ने लिखा है-
निरभै मोजां मांण सिपाहिड़ा, कदैक डाळी झुक ज्यासी,
दुख रा दिन बीतैला सारा, सुख री घड़ियां आ जासी।
वर्तमान समय में भारत में ग्रिगेरियन कैलेण्डर का प्रचलन है किंतु जन-सामान्य में विक्रम संवत् सर्वमान्य रूप से प्रचलित है। इस वर्ष का आरम्भ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता है। इस कारण दक्षिण भारत के विक्रम संवत् कैलेण्डर में प्रत्येक माह का पहला पक्ष शुक्ल पक्ष होता है तथा दूसरा पक्ष कृष्ण पक्ष होता है जबकि उत्तर भारत के विक्रम संवत् कैलेण्डर में महीने का पहला पक्ष कृष्ण पक्ष एवं दूसरा पक्ष शुक्ल पक्ष होता है।
इस कारण उत्तर भारत में चैत्र माह के पहले पखवाड़े अर्थात् कृष्ण पक्ष के बीत जाने पर चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को नववर्ष आरम्भ होता है तथा इसके 15 दिन बाद ही चैत्र मास समाप्त हो जाता है तथा वर्ष के द्वितीय मास अर्थात् वैशाख मास का कृष्ण पक्ष आरम्भ हो जाता है। इस प्रकार चैत्र मास का कृष्ण पक्ष पिछले वर्ष के अंत में रह जाता है तथा चैत्र मास का शुक्ल पक्ष नए वर्ष के आरम्भ में आता है।
चूंकि राजस्थान उत्तर भारत में स्थित है इसलिए इस पुस्तक में पर्वों एवं त्यौहारों का क्रम उत्तर भारत में प्रचलित विक्रम संवत् की योजना के अनुसार रखा गया है। अर्थात् चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में आने वाले पर्वों को पुस्तक के आरम्भ में लिखा गया है तथा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष में आने वाले पर्वों एवं त्यौहारों को पुस्तक के अंत में लिखा गया है।
हमारी संस्कृति में प्रत्येक पर्व, उत्सव एवं व्रत के साथ कोई न कोई कथा जुड़ी हुई है। कुछ पर्वों एवं व्रतों के साथ एक से अधिक कथाएं जुड़ी हुई होती हैं। इनमें से कुछ कथाएं तो पुराणों से ली गई हैं तथा कुछ कथाओं को लोकपरम्परा से ग्रहण किया गया है। इनमें से कुछ कथाएं अब समय बदल जाने के कारण कम प्रासंगिक रह गई हैं किंतु अधिकांश कथाओं की प्रासंगिकता अब तक बनी हुई है।
इनमें से कुछ कथाएं इतनी मार्मिक हैं कि उन्हें पढ़-सुनकर मनुष्य का हृदय द्रवित हो उठता है तथा उसके व्यक्तित्व का परिष्कार होता है। इनमें से कुछ कथाएं मनुष्य के जीवन में पथ-प्रदर्शक का कार्य करती हैं, विशेषतः पारिवारिक उत्तरदायित्वों से जुड़ी हुई कथाएँ।
इन कथाओं में हिन्दू जनमानस का भोलापन तो झलकता ही है, साथ ही इनमें विगत कुछ शताब्दियों में हिन्दुओं द्वारा सही गई निर्धनता एवं संकटों के भी दर्शन होते हैं। ये कथाएं लोगों में आशा उत्पन्न करने, ईश्वरीय अनुकम्पा में दृढ़ता से विश्वास करने एवं संकट के क्षणों में सम्बल देने का कार्य भी करती हैं। जन-मानस पर इन कथाओं के व्यापक प्रभाव के कारण ही हम तीज-त्यौहारों एवं पर्वों को शताब्दियों से मनाते आ रहे हैं।
हमारी संस्कृति में किसी भी कथा के पूर्ण होने के पश्चात् यह कहने की परम्परा दीर्घ काल से रही है कि जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके दिन फिरें। यह वाक्य इस बात का द्योतक है कि हमारी समस्त कथाएं सुखांतिकाएं हैं। किसी भी कथा का अंत शोक के अंधकार में नहीं होता, अपितु आशा के उजाले में होता है।
मैं भी इस पुस्तक के पाठकों के लिए प्रार्थना करता हूँ कि जैसे इन कथाओं में आए पात्रों के दिन फिरे और उन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ, वैसे ही इस पुस्तक में आई कथाओं के पाठकों के दिन भी फिरें और उन्हें सुख-सौभाग्य की प्राप्ति हो।
आशा है यह पुस्तक हमारी नवीन पीढ़ी को अपनी सनातन संस्कृति से परिचित कराने में सहायक सिद्ध होगी। यह पुस्तक उन युवाओं के लिए भी उपयोगी होगी जिनके पूर्वज एक-दो पीढ़ी या उससे भी अधिक पहले राजस्थान छोड़कर भारत के अन्य प्रांतों अथवा विदशों में जा बसी थीं। अस्तु।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता