Tuesday, June 10, 2025
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महाराजा विजयसिंह राठौड़ का वल्लभ सम्प्रदाय को संरक्षण

जोधपुर नरेश बखतसिंह (जीवनकाल ई.1706-52) की मृत्यु के बाद वि.सं.1809 माघ कृष्णा 12 (30 जनवरी 1753) को उसका ज्येष्ठ कुंवर विजयसिंह मारवाड़ राज्य का शासक हुआ। उसने लगभग चालीस वर्ष (ईस्वी 1753-1793) तक मारवाड़ पर शासन किया। [1] यद्यपि मारवाड़ का राठौड़ राजवंश आरम्भ से ही वैष्णव धर्म का पालन करता आया था तथापि वि.स.1822 में महाराजा विजयसिंह राठौड़ ने अपनी पासवान गुलाबराय से प्रभावित होकर नाथद्वारे के गुसाइयों का शिष्यत्व ग्रहण किया जो कि गोकुलिए गुसाईं कहलाते थे और वल्लभ सम्प्रदाय[2] के प्रसद्धि आचार्य थे। गुसाइयों के प्रभाव से विजयसिंह ने मारवाड़ राज्य में मांस और मदिरा का उपयोग बिलकुल रोक दिया। [3]

जब आउवा के सामतं ठाकुर जैतसिंह ने पशुवध करना बन्द नहीं किया तो महाराजा ने उसे मेहरानगढ़ दुर्ग में बुलवाकर उसका वध करवा दिया। एक बार जोधपुर राज्य में भाड़े की सेना के एक मुसलमान सैनिक ने अपने शस्त्र से एक बैल को घायल कर दिया। इस पर नगर कोतवाल उस मुसलमान को पकड़ने। इस भाड़े की सेना ने विद्रोह करने का निश्चय किया। सामंतों एवं मंत्रियों ने महाराजा विजयसिंह राठौड़ को समझाने का प्रयास किया कि भाड़े की सेना के बल पर ही आपकी सत्ता स्थिर है। अतः अपराधी का अपराध क्षमा कर देना ही युक्ति-संगत है, परन्तु महाराजा विजयसिंह राठौड़ ने इस सलाह को न मानकर और मुस्लिम सेना की परवाह न कर अपराधी और उसका साथ देने वालों को कठोर दण्ड दिया। [4]

महाराजा विजयसिंह राठौड़ ने जोधपुर नगर में बालकृष्णजी का नया मन्दिर भी बनवाया था। वि.सं. 1822 में वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी बनने के बाद महाराजा ने उसी वर्ष गायों की चराई पर लगने वाले कर (घासमारी) को उठाकर जागीरदारों पर रेखबाब नामक कर लगाया। [5]

वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित हो जाने के बाद महाराजा विजयसिंह राठौड़ ने वल्लभ सम्प्रदाय के मठों, मंदिरों एवे गुसाइयों को अनेक प्रकार की भेंट, नकद अनुदान इत्यादि प्रदान किए। वि.सं. 1838 में ग्राम सेखावासणी, [6] सं.1841 में ग्राम बूढी (नागौर), बाटो, जारोडो, सूरढंढ (मेड़ता) ईटावा (परबतसर), देवली, ठीकरियो, अखेपुरी (मारोठ), काखडकी (नावा), [7] एवं वि.सं. 1843 में ग्राम जारोड़ो खुर्द, सादड़ी खुढीयालो [8] श्रीनाथजी के भेंट किये गये। महाराजा विजयसिंह ने श्रीनाथजी के विभिन्न अवसरों पर भेंट चढ़ाने हेतु नाथद्वारा में एक कोठार (भंडार) खोल रखा था, जहाँ एक अधिकारी,[9] एक पोतदार,[10] एक ताबीनदार[11] तथा दो नवीस [12] नियुक्त थे जो समय-समय पर जोधपुर से भेजी गई सामग्री श्रीनाथजी की भेंट चढ़ाते थे।

वि.सं. 1841 की वैसाख शुक्ला 12 को 15 मन चीनी पाली से, [13] वैसाख कृष्णा 5 को 5 थान सफेद एवं 8 पंखियां,[14] वैसाख कृष्णा 9 को खसखस के 4 पंखे एवं 4 पखियां,[15] सावण कृष्णा 6 को 6 थान अलग अलग रंग के साहगढ़ के सेला के एवं 5 मोलिये (पगडी)[16] तथा कार्तिक शुक्ला 7 को 3 थान हमसु के, 2 थान गुलबन्दन के एवं 4 थान छींट के श्रीनाथजी के भेंट हेतु भेजे गये तथा गुसाईं गिरिधारीजी के 2 थिरमा, 2 छींट के थान, 2 थान चोखाना के एवं 2 पंखियां भेंट हेतु भेजी गई। [17]

सं 1842 में श्रावण कृष्णा 5 मंगलवार को 6 थान स्याहगह के सेला के विभिन्न रंग के, 4 मोलिये (पगड़ी), 2 सोने के गोटे को लछी एवं 2 रूपे की लछी तोल में अढ़ाई तोला दो मासा[18] एवं भाद्रपद शुक्ला 2 सोमवार को 15 मन चीनी पाली से श्रीनाथजी के भेंट हेतु भेजी गई।[19] सं 1843 में ज्येष्ठ शुक्ला 1 बुधवार को 10 पाला, 1 जाजम, 1 गदरा, 1 चानणी एवं 2 कनात,[20] असाढ़ कृष्णा 14 गुरुवार को 20 मन चीनी, [21] कार्तिक कृष्णा 11 मंगलवार को करणफूल की जोड़ी एक पन्ना की लटकन सहित, [22] कार्तिक शुक्ला 8 सोमवार को 4 थान कीमखाप के[23] एवं फाल्गुन शुक्ला 7 को 4 थान सफेद रंग के तथा 6 पखियां श्रीनाथजी को भेंट हेतु भेजी गईं तथा गुसाईं गिरिधारीजी के भेंट हेतु 2 थान चोखाना के, 2 थिरमा के दुसाले, 2 छींट के जोड़े एवं 2 पंखियां भेजी गईं।[24] सं. 1847 में श्रीनाथजी के भेंट हेतु खजूर की 4 पंखियां, खसखस के 6 पंखे एवं 6 पंखियां भेजी गई। [25]

श्रीनाथजी के प्रत्येक उत्सव पर भी महाराजा विजयसिंह राठौड़ की ओर से भेंट भेजी जाती थी। संवत् 1838 में जन्माष्टमी के उत्सव पर 327 रुपये श्रीनाथजी के, 25 रुपये नवनीतप्रियजी के तथा 116 रुपये गुसाईं गिरिधारीजी के[26] दीपमालिका उत्सव पर 144 रुपये श्रीनाथजी के एवं 116 रुपये गुसाईं गिरिधारीजी के तथा अन्नकूट के उत्सव पर 951 रुपये श्रीनाथजी के एवं 116 रुपये गुसाईं गिरिधारीजी के भेंट हेतु भेजे गये। [27]

संवत् 1843 में रामनवमी के उत्सव पर 126 रुपये श्रीनाथजी के एवं 66 रुपये गुसाईं गिरिधारीजी के,[28]  डोल के उत्सव पर 303 रुपये श्रीनाथजी के एवं 139 रुपये गुसाईं गिरिधारीजी के,[29] बसन्त पंचमी के उत्सव पर 146 रुपये श्रीनाथजी के तथा 66 रुपये गिरिधारीजी के भेंट हेतु भेजे गये। [30]

श्रीनाथजी के आगे भजन गाने वाले (कीरतनिये) भी महाराजा विजयसिंह की ओर से नियुक्त थे। संवत् 1841 में लालदास, तुलसीदास, सेवाराम एवं चूडामन नियुक्त थे जिनमें प्रथम दो को 40 रुपये एवं शेष दो को 30 रुपये महीने के हिसाब से वेतन दिया जाता था। [31]

यहाँ तक कि महाराजा विजयसिंह राठौड़ की ओर से श्रीनाथजी के चढ़ाने हेतु कमल एवं गुलाब के फूल प्रतिदिन पुष्कर से भेजे जाते थे जिसके लिए पुष्कर से मेड़ता, [32] मेड़ता से जोधपुर,[33] जोधपुर में सोजत [34] एवं सोजत से घाणेराव होकर सिहाड (नाथद्वारा)[35]  तक फूलों की डाक बैठाई गई थी एवं इस कार्य हेतु बड़ी संख्या में लोगो को नियुक्त किया गया था जिन्हें 5 रुपये महीना दिया जाता था।[36]

संवत् 1838 में महाराजा विजयसिंह ने देसूरी में तो श्रीनाथजी हेतु गुलाब का बाग लगाने का आदेश दिया था।[37] महाराजा विजयसिंह के समय जोधपुर राज्य में श्रीनाथजी की गायों [38] को भी घूमने फिरने की पूरी स्वतन्त्रता थी तथा उन्हें खल,[39] घास[40] एवं अनाज [41] तथा ग्वालों को दैनिक राशन[42] राज्य की ओर से दिया जाता था। गायों के बांधने हेतु टोकरे भी राज्य की ओर से बनवाकर दिये जाते थे। [43]

नाथद्वारा के गोस्वामी परिवार को भी महाराजा विजयसिंह राठौड़ की ओर से अनेक अनुदान एवं नकद रुपये समय समय पर दिये गये हैं। संवत् 1822 में गोस्वामी मुरलीधरजी को 5 रुपये दैनिक दरबार से देने का आदेश हुआ था। [44]

संवत् 1841 में जानकी बहुजी को 1500 रुपये पाली की सायर से,[45] गुसाईं दामोदरजी को 1000 रुपये महीने के हिसाब से 12 महीने तक मेड़ता की सायर से, [46] ब्रहमावती बहुजी को 200 रुपये सालाना पाली की सायर से[47] तथा मुरलीधरजी के लालजी को 330 रुपये मेड़ता कचेड़ी से देने के आदेश दिये गये थे।[48]

संवत् 1843 को श्रवण कृष्णा 2 गुरुवार को लक्ष्मणजी के लालजी गोपीनाथजी को 500 रुपये जोधपुर की कचेड़ी से देने का आदेश हुआ था। [49] खारड़ा-मेवासा (जोधपुर) लालणा खुर्द (परबतसर) एवं चोपासनी ग्राम भी गुसाइयों को अनुदान में दिये गये थे।[50] यहाँ तक कि महाराजा विजयसिंह की ओर से श्रीनाथजी के सेवार्थ एक सैनिक टुकड़ी (रिसाला) भी रहती थी, जिसके खर्च हेतु संवत् 1838 में देसूरी की सायर से 1500 रुपये भेजने का आदेश हुआ था। [51]

श्रीनाथजी के मन्दिर की तरह कांकरोली के द्वारकाधीशजी के मन्दिर को भी महाराजा विजयसिंह की ओर से अनेक भेंट उत्सव के अवसर पर दी गई है। संवत् 1841 में गुसाईं गोपालजी द्वारा ठाकुर मुथरानाथजी के जन्माष्टमी के उत्सव का प्रसाद भेजने पर भेंट के 100रुपये तथा गुसाईं विट्ठलनाथजी द्वारा ठाकुर द्वारकानाथजी के जन्माष्टमी एवं डोल के उत्सव का प्रसाद भेजने पर भेंट के 400 रुपये पाली की सायर से देने के आदेश दिये थे। [52]

इसी प्रकार संवत् 1843 में गुसाईं गोपालजी द्वारा मुधरानाथजी के डोल के उत्सव का प्रसाद भेजने पर 50 रुपये तथा गुसाईं विट्ठलनाथजी द्वारा ठाकुर द्वारकानाथजी के डोल का प्रसाद भेजने पर 200 रुपये देसूरी की सायर से देने का आदेश दिया गया था।[53] महाराजा विजयसिंह राठौड़ की ओर से इस मन्दिर को रक्षार्थ संवत् 1843 में सिरदारमल को [54] एवं संवत् 1847 में फतेराम तथा दरोगा लिखमा पडीहार को भेजा गया था जिनके अधीन घोड़े, ऊंट वगैरह रहते थे।[55] कांकरोली के गोस्वामियों को भी महाराजा विजयसिंह राठौड़ की ओर से भेंट दी जाती रही, जिनमें संवत् 1841 में गुसाईं गोपालजी, वल्लभजी के लालजी की जोधपुर के मोदीखाने से 625 रुपये देने का आदेश हुआ था।[56]

महाराजा विजयसिंह राठौड़ की ओर से नाथद्वारा एवं कांकरोली की तरह कोटा के मुथुरेशजी के मन्दिर को भी अनेक भेंट उत्सव के अवसर पर दी गई है। संवत् 1841 में कृष्णप्रिया बहुजी द्वारा आचार्य महाप्रभु के उत्सव का प्रसाद भेजने पर भेंट के 200 रुपये, गुसाईं गिरिधारीजी द्वारा मुथरेशजी के जन्माष्टमी के उत्सव का प्रसाद भेजने पर 115 रुपये, गुसाईं गोविन्दजी द्वारा डोल के उत्सव का प्रसाद भेजने पर भेंट के 115 रुपये मेड़ता की सायर से देने के आदेश हुए थे। [57]

संवत् 1843 में गुसांई गोविन्दजी द्वारा मुथरेशजी के छोल के उत्सव का प्रसाद भेजने पर 115 रुपये, जन्माष्टमी के उत्सव का प्रसाद भेजने पर 115 रुपये तथा अन्नकूट के उत्सव का प्रसाद भेजने पर 215 रुपये मेड़ता की सायर से देने के आदेश हुए थे।[58] इसी वर्ष कृष्णा प्रियाबहुजी द्वारा आचार्य महाप्रभु का प्रसाद भेजने पर भेंट के 200 रुपये भेजे गये थे।[59] कोटा के मथुरेशजी मन्दिर में भी भजन गाने वाले कीरतनिए महाराजा विजयसिंह राठौड़ की ओर से नियुक्त थे जिन्हें 4 रुपये महीना दिया जाता था।[60]

कोटा के गुसाइयों को भी अनेक अनुदान महाराजा विजयसिंह राठौड़ की ओर से दिये गये हैं जिनमें नकद रुपये देने, [61] बर्तन[62] तथा फल भेजने [63] आदि प्रमुख है। यहाँ तक कि जब कभी कोटा गुसाइयों का जोधपुर जाना जाना होता था तो पुनः कोटा जाने हेतु सवारी की व्यवस्था महाराजा विजयसिंह की ओर से ही की जाती थी।[64] महाराजा विजयसिंह नाथद्वारा गुसाइयों के इतने अधिक प्रभाव में थे कि उनके कहने से इन्होंने खेड़ापा रामस्नेही शाखा के संस्थापक रामदास को राम नाम का प्रचार करने पर मारवाड़ से निर्वासित करने का आदेश दिया था।[65]

जब तक महाराजा विजयसिंह राठौड़ जीवित रहा, तब तक जोधपुर राज्य के शासन पर गोकुलिए गुसाइयों का प्रभाव बना रहा। विजयसिंह के बाद उसके पौत्र भीमसिंह के समय में ये सब परम्पराएं जारी रहीं किंतु जब विजयसिंह का अन्य पौत्र मानसिंह मारवाड़ का राजा हुआ, तब राज्य में कुछ समय के लिए नाथों का प्रभाव बढ़ गया जो शैव सम्प्रदाय की एक शाखा थे। महाराजा मानसिंह का पुत्र छत्रसिंह भी अपने परदादा महाराजा विजयसिंह राठौड़ की तरह वल्लभ सम्प्रदाय में विश्वास रखता था।


[1] जोधपुर राज्य की ख्यात, खण्ड 3, पृ. 1; वीर विनोद, भाग 2, पृ.851-52, रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, प्रथम खण्ड, पृ. 371, 392.

[2] वल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक वल्लभाचार्यजी के वंशजों के पास सात अलग-अलग मूतियां थी जिनका वे पूजन करते थे। ये मूर्तियां वैष्णवों में ‘सात स्वरूप’ के नाम से प्रसिद्ध है। जब औरंगजेब ने 1669 ई में मन्दिर को तोड़ने का आदेश दिया तो विट्ठलनाथजी के वंशज अपनी-अपनी मूतियों को लेकर गोवर्धन से निकल गये और राजपुताना में शरण ली। जिनमें श्रीनाथजी एवं द्वारकाधीशजी को क्रमशः सिहाड़ (नाथद्वारा) एवं कांकरोली में, मथुराधीशजी को कोटा में एवं अन्य स्वरूपों में गोकुलचन्द्रमाजी और मदनमोहनजी को जयपुर में प्रतिष्ठित किया गाया था।

[3] श्यामलदास; वीर विनोद, भाग 2, पृ.855, रेऊ: मारवाड़ का इतिहास, प्रथम खण्ड, पृ.381। नोट मांस बन्द कर देने से कसाइयो की जीविका बन्द हो जानेपर विजयसिंह ने उन्हें मकानों पर पत्थर की पट्टियां आदि चढ़ाने का कार्य सौप दिया था।

[4] विश्वेश्वरनाथ रेऊः मारवाड़ का इतिहास, प्रथम खण्ड, पृ. 381, 383, फुटनोट; जगदीशसिंह गहलोत, मारवाड़ राज्य का इतिहास, पृ.176-77.

[5] डॉ. पेमाराम, जोधपुर महाराजा विजयसिंह पर वल्लभ सम्प्रदाय का प्रभाव, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसीडिंग्स, पृ. 22-29.

[6] जोधपुर रेकार्डस्: सनद परवाना बही नं. 25, पृ. 117.

[7] जोधपुर सनद परवाना बही नं. 30, पृ. 384.

[8] जोधपुर सनद परवाना बही नं. 35, पृ. 143, 294.

[9] वही, पृ. 337.

[10] वही, पृ. 339.

[11] वही, पृ. 340.

[12]  वही, पृ. 341.

[13] वही, पृ. 246.

[14] वही, पृ. 348, 353.

[15] वही, पृ. 348.

[16] वही, पृ. 348.

[17] वही, पृ. 351.

[18] जोधपुर सनद बरवाना बही नं. 32, पृ. 273.

[19] वही, पृ.159.

[20] जोधपुर सनद परवान बही न 35, पृ. 341.

[21] जोधपुर सनद परवाना बही नं. 35, पृ. 282.

[22] बही, पृ. 338.

[23] बही. पृ. 338.

[24] वही, पृ. 341.

[25] सनद परवाना बही नं. 42, पृ. 271, वैसाख बद 12 शुक्रवार सं. 1847.

[26] सनद परनाना बही नं 25, पृ. 466, भादवा बद 2 सोमवार नं. 1838.

[27] वहीं, पृ. 474, काती बद 8 बुधवार संवत् 1838.

[28] सनद परवाना बही नं. 35, पृ. 537, चेत सुद 5 शुक्रवार संवत् 1843.

[29]  बही, पृ. 527,फागण सूद संवत् 1843.

[30] बही, पृ. 527,फागण सूद संवत् 1843.

[31] सनद परवाना बही नं. 30, पृ. 340,चेत सुद 10, संवत् 1841.

[32] जोधपुर सनद परवाना बही नं. 25, पृ. 124, 125.

[33] बही, बही नं. 30, पृ. 339.

[34] जोधपुर सनद परवाना बही नं. 42, पृ. 136.

[35] जोधपुर सनद परवाना वही नं. 30, पृ. 196-230, 262.

[36] डॉ. पेमाराम, जोधपुर महाराजा विजयसिंह पर वल्लभ सम्प्रदाय का प्रभाव, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसीडिंग्स, पृ. 22-29.

[37] सनद परवाना बही नं. 25, पृ. 272,मिगसर सुद 13 बुधवार संवत् 1838.

[38] श्रीनाथजी के ‘भोग’ के लिए दूध के जो नाना प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं, उनके लिए कई सो गायें रखी जाती थी। यहांँ के ‘भोग‘ अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं।

[39] संवत् 1838 में पेश शुक्ला 6 शनिवार को एक मन खल, माघकृष्णा 8 सोमवार को खल हेतु 100 रुपये जैतारण की सायर से देने का आदेश एवं सवत् 1842 में कार्तिक कृष्णा 13 रविवार को 300 रुपये की खल खरीदकर जैतारण कचेड़ी से भेजने का आदेश हुआ, सनद परवाना बही नं. 25, पृ. 230, 276, बही नं 30. पृ. 149.

[40] संवत् 1838 में आसाढ़ शुक्ना 9 को गायों हेतु सोजत से पास के गाडे भेजने का तथा श्रावण कृष्णा 2 रविवार को जैतारण सें 50 गाडा घास बिलाड़ा गायों हेतु भेजने का आदेश हुआ सनद परवाना बही नं. 25, पृ. 256, बही नं. 30, पृ. 274.

[41] संवत् 1841 में 2000 रुपये का अनाज गायों के बांटे हेतु खरीदने, संवत् 1842 में पाली से 400 मन ज्वार गायों के बांटे हेतु खरीदने, आसोज कृष्णा 12 संवत् 1842 को 1000 मन ज्वार बांटे हेतु पाली की सायर से भेजने तथा इसी वर्ष के मार्गशीर्ष शुक्ला 6 बुधवार को 2000 मन ज्वार गायों के बांटे हेतु खरीदकर भेजने का आदेश हुआ- सनद परवाना बही नं. 30, पृ. 353, बही नं. 32, पृ. 157, 162, 164.

[42] जोधपुर सनद परवाना बही नं 30, पृ. 256.

[43] संवत् 1838 में गायों के बांधने हेतु 100 टोकरे, प्रत्येक आधे सेर के तोल के हिसाब से सांभर कचेडी को बनवाकर भेजने का आदेश दिया गया था -सनद परवाना बही नं 25 पृ. 313.

[44]  खास रुका परवाना बही नं. 1, पृ. 29.

[45] जोधपुर सनद परवाना बही न. 30, पृ. 61.

[46] बही, पृ. 227.

[47] वही, पृ. 243.

[48] वही, पृ. 339.

[49] जोधपुर सनद परवाना बही नं. 35, पृ. 3.

[50] प. रेऊ; मारवाड़ का इतिहास, प्रथम खण्ड, पृ. 395; जगदीशसिह गहलोत, मारवाड़ राज्य का इतिहास, पृ. 71.

[51] जोधपुर सनद परवाना बही नं. 25, पृ. 222.

[52] जोधपुर सनद परवाना बही. नं. 30, पृ. 229, 240.

[53] जोधपुर सनद परवाना वही नं. 35, पृ. 303.

[54] बही, पृ. 337.

[55] जोधपुर मनद परवाना बही नं. 42, पृ. 271.

[56] जोधपुर सनद परवाना वही नं. 30, पृ. 39.

[57]  जोधपुर सनद परवाना वही नं. 30, पृ. 329, 340.

[58] जोधपुर सनद परवाना बही नं. 35, पृ. 169, 343, 344.

[59] वहीं, बही नं. 35, पृ. 335.

[60]  वही, पृ. 52.

[61] संवत् 1825 की फागण बद 2 गुसाईं द्वारकानाथजी को एक वर्ष के 1000 रुपये दरबार से देने, संवत् 1826 में पोस बद 2 को गुसाईं गोरधनजी को एक वर्ष के 1000 रुपये, चैत सुद 10 को गुसाईं विट्ठलनाथजी को 3 रुपये दैनिक तथा गुसाईं अनुरदजी को 500 रुपये देने, संवत् 1829 आसोज सुद 13 को गुसाईं घनश्यामजी को एक वर्ष के 500 रुपये देने, संवत् 1838 भादवा बद 10 मंगल को गुसाईं गोकुलनाथजी को 2000 रुपये नागौर की सावर से देने तथा संवत् 1843 में मुंथरानाथजी के लालजी को 2 रुपये दैनिक जोधपुर की सायर से, गुसाईं गोकुलनाथजी को 1000 रुपये प्रतिवर्ष मेड़ता की कचेडी से एवं 1000 रुपये पचपदरा से देने के आदेश हुए थे खास रुका परवाना बही नं. 1, पृ. 26, 29, 30, 44, जोधपुर सनद परवाना बही नं. 25, पृ. 50, बही नं. 35, पृ. 64, 143, 317.

[62] संवत् 1842 में गुसाईं गोकुलनाथजी की सेवा में 52 बर्तन जिनमें 30 पीतल के, 5 कासी के एवं 17 लोहे के थे, नागौर से नये बनवाकर भेजे गये थे- सनद परवाना बही नं. 32, पृ. 31.

[63] संवत् 1838 में मुसाई गिरिधारीजी के दाड़मा की कावड़ (डाक) भेजी गई थी- सनद परवाना बही नं. 25, पृ. 458.

[64]  संवत् 1842 में गुसाईं लक्ष्मणजी के जोधपुर से कोटा वापिस जाने हेतु 2 बैलगाड़ी जोधपुर से मेड़ता और मेड़ता से कोटा तक किराये करने के आदेश हुए थे। इसी तरह संवत् 1845 में गोकुलनाथजी के लालजी माधोरामजी के कोटा वापिस जाने हेतु 4 ऊंट, 4 घोड़े एवं एक रथ किराये करने के आदेश हुए थे- जोधपुर सनद परवाना बही नं. 32, पृ. 54, बही नं. 35, पृ. 23-24.

[65] कोन वर्ण पूज्यक पद्धति, यो कैसो उपदेश।

  कोप नृपति ऐसे कहयो, छोडो म्हारो देश ।।

  पद्धति जानें रामजी, राम सदा उपदेश ।

  रामजना ऐसे कहयो, यो लै थारो देश ।।

  – रामदास की परची (हस्तलिखित ग्रन्थ), क्रमांक 23097, पृ. 57-58, 1852 ई. प्रा. वि. प्र. जोधपुर, (प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर)

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