महाराजा अजीतसिंह भारत के इतिहास में एक अद्भुत राजा हुआ है। वह जीवन भर अपने शत्रुओं से संघर्ष करता रहा। उस काल में मुगलिया राजनीति के बीच अपने पथ को पहचानना और उस पर आगे बढ़ना सरल कार्य नहीं था।
जिस समय मुगलों ने भारत में प्रवेश किया था, उस समय अजमेर नगर तथा दुर्ग मारवाड़ के राठौड़ों के अधीन था किंतु शेरशाह सूरी के समय अजमेर राठौड़ों के हाथ से निकल गया।
मुगल बादशाहों ने भी अजमेर के महत्व को समझा। यही कारण था कि अकबर से लेकर शाहजहाँ तक के शासन काल में अजमेर को आगरा, दिल्ली तथा लाहौर के समान ही प्रतिष्ठा प्राप्त थी। आगरा के बाद अजमेर को मुगलों की दूसरी राजधानी माना जाता था। मुगल बादशाहों ने अपने जीवन के कई साल अजमेर में बिताए।
औरंगजेब भी अजमेर के महत्व को भलीभांति जानता था। औरंगजेब और दाराशिकोह के भाग्यों का फैसला अजमेर में ही हुआ था। जोधपुर राज्य को खालसा करने के लिए औरंगजेब ने अजमेर में आकर अपना डेरा जमाया। मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के विरुद्ध युद्ध अभियान चलाने के लिए भी औरंगजेब ने अजमेर को अपना केन्द्र बनाया।
मुगल बादशाहों की निरंतर उपस्थिति के कारण अजमेर में बड़ी-बड़ी मस्जिदें बन गईं। जब औरंगजेब शिवाजी का दमन करने के लिए दक्षिण भारत को कूच कर गया तब मारवाड़ के राठौड़ों ने ई.1679 से अजमेर दुर्ग एवं नगर पर धावे बोलने आरम्भ किये। ये धावे ई.1707 में औरंगजेब की मृत्यु होने तक चले।
अजीतसिंह का अजमेर पर अधिकार
ई.1712 में मुगल बादशाह बहादुरशाह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र जहांदारशाह बादशाह बना किन्तु उसी वर्ष जहांदारशाह के भतीजे फर्रूखसीयर ने बादशाह जहांदारशाह की हत्या कर दी और सैयद बन्धुओं की सहायता से दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। जहांदारशाह के मरते ही महाराजा अजीतसिंह ने राठौड़ों के पुराने केन्द्र अजमेर पर अधिकार कर लिया।
फर्रूखसियर का अजमेर पर अधिकार
अजीतसिंह द्वारा अजमेर पर अधिकार कर लिये जाने से बादशाह फर्रूखसीयर बहुत नाराज हुआ और उसने सेना भेजकर राठौड़ों से अजमेर खाली करवा लिया। मुगल सेना ने राठौड़ों को बुरी तरह परास्त किया। महाराजा अजीतसिंह ने विवश होकर अजमेर दुर्ग मुगलों को सौंप दिया, अपने पुत्र को बादशाह की सेवा में दिल्ली भेज दिया तथा अपनी पुत्री इंद्रकुंवरी का विवाह फर्रूखसीयर से कर दिया।
फर्रूखसियर के शासनकाल में अजमेर की टकसाल से सोने के सिक्के ढाले जाते थे।
महाराजा अजीतसिंह का अजमेर पर अधिकार
महाराजा इस अपमानजनक पराजय को कभी भूल नहीं सका। 17 फरवरी 1719 को महाराजा अजीतसिंह ने सैय्यद बंधुओं की सहायता से दिल्ली के लाल किले पर अधिकार करके फर्रूखसीयर की हत्या कर दी गई और रफीउद्दजात को बादशाह बनाया। महाराजा ने बादशाह से कहकर हिन्दुओं पर से जजिया उठा दिया तथा सभी तीर्थों को कर से मुक्त कर दिया।
कुछ समय बाद मुहम्मदशाह रंगीला दिल्ली के तख्त पर बैठा। उसने अजमेर सूबे का प्रबंध महाराजा अजीतसिंह को सौंप दिया तथा गुजरात का सूबेदार बना दिया। महाराजा अजीतसिंह ने गुजरात तथा अजमेर में गौवध निषिद्ध कर दिया।
महाराजा के इस कदम से मुहम्मदशाह चिढ़ गया और उसने अजमेर में फिर से मुगल सूबेदार नियुक्त कर दिया। इसकी सूचना मिलते ही महाराजा अजीतसिंह ने तीस हजार घुड़सवारों के साथ अजमेर नगर को घेर लिया तथा अपनी तलवार निकालकर शपथ खाई कि वह अजमेर को अपने अधीन करेगा। शीघ्र ही महाराजा ने मुगल सूबेदार को भगा दिया तथा अजमेर नगर एवं तारागढ़ पर अधिकार कर लिया।
अजमेर पर महाराजा अजीतसिंह के स्वंतत्र रूप से अधिकार करते ही अजमेर की मस्जिदों में बांग शांत हो गईं। मंदिरों में घण्टे बजने लगे। कुरानों के स्थान पर पुराण सुनाई देने लगे तथा मस्जिदों का स्थान मंदिरों ने ले लिया।
काजी ब्राह्मणों के लिये रास्ता छोड़ने लगे। जहाँ गायें काटी गई थीं, वहाँ यज्ञों के लिये कुण्ड खोदे जाने लगे। अजीतसिंह ने सांभर तथा डीडवाना झीलों पर भी अधिकार कर लिया। उसने अनेक दुर्गों पर राठौड़ों के झण्डे चढ़ा दिये तथा बादशाह की परवाह छोड़कर स्वाधीनता सहित आनासागर के शाही महलों में रहने लगा।
अजीतसिंह अब बादशाह द्वारा दिये गये सिंहासन पर न बैठक कर अजमेर में अपने सिंहासन पर बैठा। उसने अपने सिर पर छत्र धारण कर लिया जो उसकी सर्वोच्चता का प्रतीक था। उसने अपने नाम के सिक्के ढलवाये, लम्बाई नापने के लिये अपना गज तथा भार नापने के लिये अपना सेर चलाया। उसने न्याय करने के लिये अपना न्यायालय स्थापित किया। अपने सरदारों के लिये नये रैंक बनाये।
उसने सम्प्रभु शासक के प्रत्येक चिह्न को स्थापित किया। एक कवि ने अजीतसिंह के अजमेर में होने के महत्त्व को रेखांकित करते हुए लिखा है-
अजमेर में अजमल वैसा ही था जैसे दिल्ली में अस्पति।
महाराजा अजीतसिंह की इस सफलता के समाचार न केवल भारत वर्ष के कौने-कौने में फैल गये, बल्कि इस देश के बाहर मक्का और ईरान में भी उसकी खबरें पहुँच गईं। ये समाचार सुनकर बादशाह ने अजमेर को फिर से प्राप्त करने की तैयारी की। उसने सआदत खां को अजमेर की सूबेदारी दी तथा अजमेर पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी परंतु इस कार्य में कोई भी मुस्लिम अमीर, सआदत खां का साथ देने को तैयार नहीं हुआ।
इस कारण सआदत खां की हिम्मत नहीं हुई कि वह अजीतसिंह पर हमला करे। अक्टूबर 1721 में हैदरकुली खां को गुजरात की तथा मुजफ्फर अली खां को अजमेर की सूबेदारी दी गई। मुजफ्फर अली खां बीस हजार आदमी लेकर अजमेर पर अधिकार करने पहुँचा किन्तु अजीतसिंह ने अजमेर खाली नहीं किया तथा महाराजकुमार अभयसिंह को मुजफ्फर अली खां का सामना करने के लिए भेजा।
मुजफ्फर अली खां मनोहरपुर में बैठा रहा। जब धनाभाव के कारण मुजफ्फर अली खां के सिपाही उसे छोड़कर जाने लगे तो मुजफ्फर अली खां को आमेर बुला लिया गया।
इस प्रकार मुजफ्फर अली खां बिना युद्ध किए ही लौट गया और उसने अजमेर की सूबेदारी का फरमान तथा खिल्लअत बादशाह को पुनः लौटा दी। बादशाह ने सैयद नुसरतयार खां बरहा को अजमेर का नया सूबेदार बनाया तथा उसे अजीतसिंह पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी।
इसी बीच भरतपुर राज्य के संस्थापक चूड़ामन जाट ने अपने पुत्र मोहकम सिंह को सेना देकर महाराजा अजीतसिंह की सहायता के लिये अजमेर भेज दिया। अजीतसिंह को जब यह सूचना मिली कि नुसरतयार खां अजमेर पर अधिकार करने आ रहा है तो उसने महाराजकुमार अभयसिंह को नारनौल, दिल्ली तथा आगरा के आस-पास के प्रदेशों को लूटने की आज्ञा दी।
नारनौल में राजकुमार अभयसिंह का, मुगल फौजदार बयाजीद खॉं मेवाती के हाकिम से सामना हुआ। अभयसिंह ने उसे परास्त करके नारनौल को लूटा तथा अलवर, तिजारा और शाहजहांपुर होते हुए दिल्ली से 16 किलोमीटर दूर सराय अली वर्दी खां तक जा पहुँचा।
इसके बाद अजीतसिंह ने मुहम्मदशाह को चिट्ठी भिजवाई कि आपने नुसरतयार को अजमेर का गर्वनर बनाकर ठीक नहीं किया। इस पर बादशाह ने अजीतसिंह को ही फिर से अजमेर का सूबेदार बना दिया तथा सांभर के फौजदार नाहर खां को अजमेर सूबे का दीवान नियुक्त किया।
महाराजा अजीतसिंह को नाहर खां की नियुक्ति पसंद नहीं आई। अतः 6 जनवरी 1723 को अजीतसिंह ने मुगल शिविर पर आक्रमण करके नाहर खां, रूहुल्ला खां तथा उनके 25 आदमियों को मार डाला।
अजीतसिंह की इस कार्यवाही के बाद, मुहम्मदशाह को लगने लगा कि जल्दी ही कुछ नहीं किया गया तो गंगा-यमुना के हरे-भरे मैदानों पर फिर से हिन्दुओं का शासन हो जाएगा। बादशाह ने मुगल साम्राज्य के समस्त सेनापतियों और अमीर-उमरावों को अजमेर पहुँचने के आदेश दिये।
उसने हैदर कुली खां को अजमेर का सूबेदार बनाया तथा शर्फुद्दौला इरदत-मन्द खां को विशाल सेना देकर अजीतसिंह के विरुद्ध भेज दिया। मुहम्मद खां बंगश, तथा अन्य कई अमीर, उमराव, सरदार, 50 हजार घोड़े लेकर अजीतसिंह के विरुद्ध इकट्ठे हुए।
दुर्भाग्य से जयपुर का राजा सवाई जयसिंह तथा राजा गिरिधर बहादुरसिंह भी मुसलमानों की तरफ हो गए। क्योंकि जयसिंह कभी नहीं चाहता था कि मारवाड़ के राठौड़ उत्तर भारत में सबसे बड़ी ताकत बन जाएं।
महाराजा जयसिंह के विरोध के कारण महाराजा अजीतसिंह के लिए संभव नहीं रहा कि वह मुगलों को अकेला ही सामना कर सके।
यह भारत भूमि का दुर्भाग्य ही था कि जिस जयसिंह को एक दिन स्वयं अजीतसिंह ने हाथ पकड़ कर जयपुर का राजा बनाया था आज वही जयसिंह, महाराजा अजीतसिंह के विरोध पर उतर आया।
महाराजा अजीतसिंह ने निमाज ठाकुर अमरसिंह और खीमसिंह भण्डारी के पुत्र विजयसिंह को अजमेर का दायित्व सौंप दिया तथा स्वयं अपने परिवार को लेकर अपनी राधानी जोधपुर चला गया।
अजमेर पर मुगलों का अधिकार
ठाकुर अमरसिंह तथा विजयसिंह ने एक महीने तक मुगलों को अजमेर में घुसने नहीं दिया। एक दिन हैदर कुली खां, सरबलंद खां तथा महाराजा जयसिंह हाथी पर सवार होकर ख्वाजा की दरगाह पर जा रहे थे कि तोप का एक गोला उनके हाथी पर आकर गिरा।
इस गोले से हाथी पर सवार महावत की मौत हो गई। इससे शाही पक्ष में भय व्याप्त हो गया। उन्होंने महाराजा जयसिंह के माध्यम से महाराजा अजीतसिंह के साथ संधि वार्ता चलाई।
दोनों पक्षों में संधि की शर्तें निर्धारित होने के बाद महाराजा अजीतसिंह ने अजमेर खाली करने तथा कुंवर अभयसिंह को फिर से शाही दरबार में भेजने का निर्णय लिया।
इस संधि के बाद अजीतसिंह की सेना अपना झण्डा फहराती हुई, नगाड़े बजाती हुई, सम्मान पूर्वक दुर्ग से बाहर निकलकर मारवाड़ को चली गई। इस प्रकार ई.1724 में अजमेर पर फिर से मुगलों का अधिकार हो गया तथा जफरकुली खां को अजमेर का सूबेदार बनाया गया।
महाराजा अजीतसिंह की हत्या का षड़यंत्र
जयपुर नरेश सवाई जयसिंह नहीं चाहता था कि अजमेर पर जोधपुर नरेश अजीतसिंह का अधिकार हो। इसलिये उसने अपने मित्र अजीतसिंह से गद्दारी करके अजमेर पर मुगलों का अधिकार करवाया तथा महाराजा अजीतसिंह की हत्या की योजना बनाई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता