Thursday, November 21, 2024
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दधिमती मंदिर के शिलालेख

नागौर जिले में गोठ तथा मांगलोद गांवों के बीच स्थित दधिमती मंदिर के शिलालेख राजस्थान के गुप्तकालीन, हर्षकालीन एवं प्रतिहारकालीन सांस्कृतिक इतिहास, मंदिर स्थापत्य एवं शिल्पकला को जानने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

दधिमती मंदिर अत्यंत प्राचीन काल में बना था। इसका गर्भगृह इसके गुप्तकालीन होने की पुष्टि करता है। संभवतः गुप्तकालीन मंदिर हूणों आदि के आक्रमण में तोड़ दिया गया तथा नौवीं शताब्दी ईस्वी में प्रतिहारों ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। ग्याहरवी शताब्दी ईस्वी में इस मंदिर में कुछ और निर्माण करवाए गए जो आज भी दिखाई देते हैं।

हम इस लेख में दधिमती मंदिर के शिलालेख शीर्षक के अंतर्गत कुछ ऐसे शिलोखों का उल्लेख कर रहे हैं जो न केवल मंदिर के इतिहास पर अपितु इसके आसपास हो रही घटनाओं के इतिहास पर कुछ सूत्र उपलब्ध करवाते हैं।

गुप्त संवत् अथवा हर्ष संवत् का अभिलेख

ई.1894 में जोधपुर राज्य के निवासी एवं सुप्रसिद्ध इतिहासकार मुंशी देवीप्रसाद ने दधिमती मंदिर में एक शिलालेख देखा था, जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मारवाड़ के प्राचीन लेख’में प्रकाशित किया। उन्होंने इस अभिलेख को संवत् 589 का बताया। संवत् का आशय विक्रम संवत से होता है जिसके आधार पर इस शिलालेख की तिथि ई. 532 अर्थात् छठी शताब्दी ईस्वी बैठती है।

पं. रामकर्ण आसोपा ने ई.1911 में इस शिलालेख को ‘एपिग्राफिया इंडिका’में प्रकाशित करवाया। रामकर्ण आसोपा के अनुसार यह संवत्सर 289 का अभिलेख है, जिसकी लिपि यशोधर्म विष्णुवर्द्धन के मालव विक्रम संवत् 589 के मंदसोर लेख के समान है।

इस आधार पर रामकर्ण आसोपा ने इस अभिलेख की तिथि गुप्त संवत् मानी है। तदनुसार यह अभिलेख 289$319 = 608 ईस्वी (वि.सं. 665) का ठहरता है। रामकर्ण आसोपा के अनुसार यह अभिलेख गुप्त साम्राज्य के अंतिम दिनों में उत्कीर्ण हुआ था।

प्रसिद्ध इतिहासकार एवं लिपि विशेषज्ञ गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने शिलालेख में गुप्त संवत् होने की धारणा का समर्थन करते हुए लिखा है- गुप्तवंशीय राजाओं का कोई लेख अब तक राजपूताने में नहीं मिला, जिसका कारण यही है कि यहाँ पर प्राचीन शोध का काम विशेष रूप से नहीं हुआ।

गुप्तकाल वाला शिलालेख (गुप्त संवत् 289 का) जोधपुर राज्य में नागौर से 24 मील उत्तर-पश्चिम के गोठ-मांगलोद गांवों की सीमा पर दधिमती माता मंदिर से मिला है।

शिलालेख का गुम होना

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक यह शिलालेख मंदिर के सभामंडप में पड़ा था। जब इस शिलालेख के महत्व की जानकारी हुई तो इस शिलालेख को जोधपुर रियासत के तवारीख महकमे (इतिहास प्रकोष्ठ) में जमा कराया गया, जहाँ यह कई वर्षों तक सुरक्षित रहा।

कुछ समय बाद शिलालेख को पुनः दधिमती माता के मंदिर में स्थापित करने का निर्णय लिया गया। जब यह शिलालेख जोधपुर से गोठ-मांगलोद ले जाया जा रहा था तब मार्ग में कहीं खो गया। उसके बाद यह शिलालेख कभी नहीं मिला।

शिलालेख का मूल पाठ जो कि मुंशी देवी प्रसाद की पुस्तक एवं पं. रामकरण आसोपा के लेख में सुरक्षित था, उसे देवनागरी में लिप्यंतरण कर एक ताम्रपत्र पर खुदवाया गया तथा सभामंडप के पूर्वाभिमुख मुख्यद्वार के अंदर की ओर की दीवार पर लगाया गया।

शिलालेख की तिथि पर विवाद

इस शिलालेख में गुप्त संवत् शब्द नहीं लिखा हुआ है। राजस्थान के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के निदेशक डॉ. विजयशंकर श्रीवास्तव ने लिखा है- ‘संवत् के नामोल्लेख के अभाव में यह समीकरण विवादास्पद है।

यह शिलालेख कुटिल लिपि में अंकित है और प्रतिहार शासक बाऊक की वि.सं. 894 (ई.837) की मण्डोर प्रशस्ति से इसका पर्याप्त साम्य है। स्थापत्य के आधार पर यह मंदिर प्रतिहार कालीन अर्थात् 9वीं शताब्दी ईस्वी का है। इस कारण शिलालेख की तिथि हर्ष संवत् (289+606 = 895 ईस्वी) में अंकित प्रतीत होती है। संभवतः यह भोजदेव प्रथम ( ई.836-892) के समय में बना।

डॉ. जयनारायण आसोपा के अनुसार अभिलेख की लिपि ई.608 की है तथा मंदिर की स्थापत्यकला प्रतिहार युग की है, उसके लिये अभिलेख की तिथि (289) को गुप्त संवत् के बजाय हर्ष संवत् मानकर 289+606 = ई.895 बनाकर स्थापत्यकला से मेल खिलाना आवश्यक नहीं है क्योंकि इस अभिलेख की लिपि प्रतिहार युग की लिपि से नहीं अपितु गुप्तयुग की लिपि से मेल खाती है।

शोधपत्रिका ‘विश्वम्भरा’के अक्टूबर 1961 में प्रकाशित प्रवेशांक में उदयवीर शास्त्री का हर्ष संवत् पर शोध आलेख प्रकाशित हुआ था। उन्होंने नेपाल की राजवंशावलियों का गहन अध्ययन करके यह सिद्ध किया था कि हर्ष संवत् या हर्ष शाका ई.पू. 457 में आरम्भ हुआ।

उनके अनुसार थानेश्वर एवं कन्नौज के शासक हर्षवर्द्धन शीलादित्य को हर्ष संवत् (ई.606 से आरम्भ होने वाला) का प्रवर्तक नहीं माना जा सकता। शास्त्री ने दो साक्ष्यों का उल्लेख किया है-

(1) हर्षवर्द्धन के राज्यकवि बाणभट्ट जिसने ‘हर्ष चरित’जैसा महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा, कहीं भी हर्ष संवत् की चर्चा नहीं की है। यदि हर्ष ने कोई संवत चलाया होता तो राज्यकवि होने के कारण बाणभट्ट ने उसका उल्लेख किया होता।

(2) हर्षवर्द्धन के शासन काल में भारत भ्रमण पर आये चीनी यात्री हवेनत्सांग ने भी अपने यात्रा विवरण में हर्ष संवत् का उल्लेख नहीं किया है।

इस आधार पर शास्त्री ने लिखा है कि उपलब्ध शिलालेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों तथा अन्य साहित्य में उल्लिखित जिस संवत को इस कान्यकुब्जीय हर्षवर्द्धन के नाम पर आरोपित किया जाता है, उन सबकी गम्भीरता पूर्वक पुनः परीक्षा की जानी आवश्यक है।

इस प्रकार इस शिलालेख में अंकित संवत् के गुप्तकालीन होने अथवा हर्षकालीन होने के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है किंतु लिपि के आधार पर इस शिलालेख के गुप्त शासकों के अंतिम वर्षों में लिखा हुआ माना जाना चाहिए।

मंदिर के सभामण्डप का गोवर्द्धन स्तम्भ लेख

दधिमाता मंदिर के सभामण्डप में कई स्तम्भ लगे हुए हैं। गर्भगृह के सामने आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व) दिशा का एक स्तम्भ हवा में अधर है। इस स्तम्भ पर भी एक अभिलेख उत्कीर्ण है।

गर्भगृह के ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में सभामण्डप में दो फुट लम्बा एक अन्य लघु स्तम्भ लगा है। यह  चौकोर गोवर्द्धन स्तम्भ है। इसकी दक्षिणोन्मुखी तथा पूर्वोन्मुखी सतहों पर प्राचीन अभिलेख में संवत् 49 उत्कीर्ण है। यह एक महत्वपूर्ण सती स्तम्भलेख है।

रामवल्लभ सोमानी की एक पुस्तक में इस स्तम्भलेख का मूल पाठ तथा अनुवाद दिया गया है। सती-स्तम्भ गोवर्द्धन की दक्षिणोन्मुखी सतह पर यह लेख उत्कीर्ण है-

‘संवत् 49 जेठ बदि 6 दाहिमा रायसीह जग्गा नन्दतु सुत पत्नी भोगलदेवि धांधलदेवि अभय देवि पतापदेवि जाऊलदेवि आणंदादेवि सिजियोदेवि सहित स्वरग लोकान्तरितः।’

रामवल्लभ सोमानी ने गोवर्द्धन (सती) स्तम्भलेख में संवत् 49 को संवत् 1249 (ई.1192) माना है। यह वर्ष पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) के वीरगति प्राप्त करने का समय है। सती (गोवर्द्धन) स्तम्भ में वर्णित दिवंगत दाहिमा रायसिंह संभवतः चौहानों का कोई सैन्य अधिकारी (सेनापति) रहा होगा, जो शत्रुओं से युद्ध करते समय काम आया होगा और उसके पीछे उसकी पत्नियां सती हुई होंगी।

इस स्तम्भलेख की भाषा संस्कृत है, किंतु लिपि देवनागरी से मिलती स्थानीय ‘मुड़िया लिपि’है। संवत् के दो अंकों को उत्कीर्ण करने की अपूर्णता विचित्र है, इस तरह की परम्परा नेपाल में पाई जाती थी।

इस अभिलेख के ऊपरी सतह पर मानवाकृतियां उत्कीर्ण हैं। एक पुरुषाकृति पलंग पर लेटी हुई है, जिसका दाहिना हाथ चेहरे के दाहिने भाग को सहारा दिये हुए है तथा उसका बायां हाथ सीने पर कटार सहित रखा हुआ है।

पुरुष का बायां पैर मुड़ा हुआ है, तथा दाहिने पैर को कोई नारी आकृति चाप रही है। सिर की ओर बैठी दूसरी नारी आकृति पुरुष का सिर दबा रही है। पांच अन्य नारी आकृतियां नृत्यमुद्रा में पुरुष के बांयी ओर खड़ी हैं।

स्तम्भ के पूर्वी सतह पर वैकुण्ठ में विष्णु भगवान को दिवंगत आत्मा की अगवानी करते दर्शाया गया है, पार्श्व में दिव्यात्मा (दिवंगत) को हाथ जोड़े उत्कीर्ण किया गया है तथा वैकुण्ठ में नारी आकृतियां नृत्य मुद्रा में हैं।

स्तम्भ की उत्तरी सतह पर ऊष्ट्रसेना का शिल्पांकन है, तथा स्तम्भ की पश्चिमी सतह पर अश्वारूढ़ वीर पुरुष को युद्ध पर जाने के पूर्व नारी आकृतियां विदाई देने की मुद्रा में अंकित हैं।

इस स्तम्भ लेख से तथा इस पर किए गए शिल्पांकन से अनुमान होता है कि इसमें उत्कीर्ण व्यक्ति कोई प्रभावशाली, राजा, युवराज अथवा कोई बड़ा सामंत रहा होगा। कुंभलगढ़ दुर्ग के नीचे की तरफ एक स्मारक में मेवाड़ के राजकुमार पृथ्वीराज की मृत्यु का दृश्य भी इसी प्रकार रानियों एवं दासियों के साथ अंकित किया गया है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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