Monday, December 1, 2025
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डीडवाना

नागौर से 96 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में तथा जोधपुर से 209 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित डीडवाना 270 24′ उत्तरी अक्षांश तथा 740 35′ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। वर्ष 2023 में यहाँ अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय, उपखण्ड मजिस्ट्रेट कार्यालय, तहसील तथा पंचायत समिति कार्यालय स्थित थे।

वर्ष 2023 में राजस्थान सरकार ने डीडवाना-कुचामन को नया जिला बना दिया जिससे यहाँ जिला कलक्टर कार्यालय लग गया है। जोधपुर-दिल्ली रेलमार्ग डीडवाना से होकर निकलता है। यह कस्बा दो हजार वर्ष से भी अधिक पुराना बताया जाता है। यहाँ से प्राप्त खुदाई में वि.सं. 252 (ई.195) की एक मूर्ति मिली है। कुओं तथा घरों की नीवों की खुदाई करते समय भूमि में लगभग 20 फीट नीचे मृदभाण्डों के टुकड़े निकलते हैं।

डीडवाना का प्राचीनतम नाम द्रुदवनक था। ईसा की आठवीं से दसवीं शताब्दी में यह कस्बा डेण्डवानक कहलाता था। आठवीं शताब्दी ईस्वी में यह कस्बा प्रतिहार वत्सराज के अधीन था तथा प्रतिहारों के राज्य ‘गुर्जरभूमि’ का एक जिला था।

इस कस्बे के पास दौलतपुरा गांव से प्रतिहार राजा भोजदेव (प्रथम) का एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है। यह ताम्रपत्र वि.सं. 900 (ई.843) का है। इसमें प्रतिहार शासकों की महाराज देवशक्ति से भोजदेव (प्रथम) तक की वंशावली दी गई है।

ताम्रपत्र में कहा गया है कि भोजदेव के प्रपितामह वत्सराज द्वारा जो दान आरंभ किया गया था वह भोजदेव के पितामह महाराजा नागभट्ट के समय तक चालू था तथा भोज के पिता के समय किसी कारण स्थगित हो गया था। यह दानपत्र महोदय से प्रदान किया गया था। यह दान भोजदेव द्वारा पुनः चालू किया गया। इस ताम्रपत्र में भोजदेव का उपनाम प्रभास दिया गया है।

ऐसा प्रतीत होता है कि भोज के पिता रामभद्र के समय या तो शाकंभरी के चौहान शासक अथवा मण्डोर के प्रतिहार शासक (बाउक) ने डीडवाना छीन लिया था किंतु शीघ्र ही भोज ने इसे पुनः प्राप्त कर लिया तथा अपने प्रपितामह द्वारा आरंभ किये गये दान को पुनः चालू किया।

इस कस्बे से प्रतिहार कालीन योग नारायण विष्णु की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है जो अब जोधपुर संग्रहालय में रखी हुई है। जब प्रतिहार क्षीण हो गए तब शाकंभरी के चौहानों ने प्रतिहारों से डीडवाना छीन लिया।

ई.1192 में जब चौहान पृथ्वीराज (तृतीय) मुहम्मद गौरी से पराजित हुआ तो डीडवाना क्षेत्र पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। जिस समय दिल्ली पर फिरोज तुगलक का शासन था उस समय ई.1377, 1378 एवं 1384 में डीडवाना में तीन मस्जिदें बनाई गई।

फिरोज तुगलक की मृत्यु के बाद तुगलक साम्राज्य कमजोर हो गया जिसका लाभ उठाकर गुजरात के गवर्नर जाफर खान ने स्वयं को स्वतंत्र कर लिया और सुल्तान मुजफ्फर शाह के नाम से गुजरात का बादशाह बना। मेवाड़ के महाराणाओं और गुजरात के सुल्तानों में सांभर और डीडवाना झीलों पर अधिकार को लेकर लम्बी लड़ाइयां चलीं।

दोनों ही शासक नमक प्राप्ति के लिए इन झीलों को अपने अधिकार में रखना चाहता थे। ई.1397 में डीडवाना में विद्रोह हुआ तो मुजफ्फर शाह तत्काल डीडवाना आया और उसने विद्रोह को बुरी तरह कुचला। ई.1432 में गुजरात के दूसरे बादशाह अहमदशाह ने डीडवाना पर चढ़ाई की।

इस अभियान में नागौर का फिरोज खाँ भी उसके साथ था। ई.1437 में नागौर के फिरोज खान के भाई खान-ए-आजम मुजाइद खाँ ने सांभर, डीडवाना तथा नारायणा (नरैना) पर आक्रमण किया तथा इन तीनों नगरों और उनके आस-पास के क्षेत्र को जीतकर अपने लिए अलग राज्य का निर्माण किया। जबकि मुजाइद खाँ का भाई फिरोज खाँ नागौर पर शासन करता रहा।

मुजाइद खाँ ने ई.1437 में मेवाड़ के राणा मोकल की किसी सेना पर विजय प्राप्त की। इस विजय की स्मृति में उसने डीडवाना में एक भव्य द्वार एवं डीडवाना नगर का परकोटा बनवाया। जब नागौर का शासक फिरोज खाँ मर गया, तब मुजाइद खाँ ने नागौर का क्षेत्र भी अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया।

कुछ समय बाद राणा कुंभा ने मुजाइद खाँ का दमन करके नागौर तथा डीडवाना छीन लिये। महाराणा ने डीडवाना से नमक कर भी वसूल किया। महाराणा कुंभा ने चित्तौड़ के कीर्तिस्तंभ में इस विजय का उल्लेख किया है। कुंभा ने मुजाइद खाँ के स्थान पर फिरोज खाँ के पुत्र शम्स खाँ को डीडवाना तथा नागौर का शासक नियुक्त किया।

शम्स खाँ दंदानी के प्रपौत्र मजलिस-ए-अली फिरोज खाँ ने डीडवाना नगर के परकोटे तथा लाडनूं दरवाजे का निर्माण एवं मरम्मत करवाई। शम्स खाँ दंदानी, गुजरात की स्वतंत्र सल्तनत की नींव रखने वाले मुजफ्फर शाह (जाफर शाह) का छोटा भाई था। अर्थात् महाराणा कुंभा द्वारा नियुक्त किया गया शम्स खाँ तथा शम्स खाँ दंदानी अलग-अलग व्यक्ति थे।

मजसिल अली फोरोज ने मलिक हिजबर को डीडवाना का कोतवाल नियुक्त किया। मलिक हिजबर ने ई.1491 में एक मस्जिद की मरम्मत करवाई। नागौर के खान शासकों ने भी डीडवाना में पुरानी मस्जिदों का जीर्णोद्धार एवं नवीन मस्जिदों का निर्माण करवाया।

अकबर के शासनकाल में डीडवाना मुगलों के अधीन चला गया। अकबर, शाहजहाँ तथा औरंगजेब के समय में भी डीडवाना में कई मस्जिदें बनीं। औरंगजेब द्वारा नियुक्त डीडवाना के गवर्नर दीदार खान ने दीद दरवाजा बनवाया।

ई. 1708 में डीडवाना पर जोधपुर तथा जयपुर के शासकों का आधा-आधा राज्य (अर्थात् संयुक्त शासन) था। कुछ समय बाद इस पर झुंझुनूं के नवाबों ने अधिकार कर लिया किंतु 18वीं शती के मध्य में जोधपुर नरेश बख्तसिंह ने डीडवाना को मारवाड़ राज्य में मिला लिया।

डीडवाना में हिन्दू धर्म तथा जैन धर्म के कई उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। लगभग 500 वर्षों तक मुसलमानों के अधिकार में रहने के कारण डीडवाना के प्राचीन मंदिर नष्ट कर दिये गये। 10वीं शताब्दी ईस्वी में जैन संत जिनेश्वर सूरि ने डीडवाना में कथाकोष की रचना की।

विख्यात जैन विद्वान हेमचन्द्र सूरि (जो गुजरात के कुमारपाल चौलुक्य का गुरु था) के गुरु श्रीदत्त सूरि ने डीडवाना की यात्रा की तथा डीडवाना के शासक यशोभद्र को उपदेश दिया। यशोभद्र ने डीडवाना में चौबीसा हिमालय के नाम से एक विशाल जैन मंदिर का निर्माण करवाया जो ई.1184 तक अस्तित्व में था।

सोमप्रभाचार्य ने ई.1184 में इस जिनालय का उल्लेख किया था। यशोभद्र श्रीदत्त सूरि के उपदेश से इतना प्रभावित हुआ कि वह स्वयं भी जैन साधु बन गया और उसने अपना नाम यशोभद्र सूरि रख लिया। 12वीं शताब्दी ईस्वी में सिद्धसेन सूरि द्वारा लिखित सकलतीर्थ माला में भी डीडवाना का उल्लेख है।

डीडवाना को महेश्वरियों का उत्पत्ति स्थल माना जाता है। कुछ विद्वान सीकर जिले के खण्डेला को महेश्वरियों का मूल स्थान मानते हैं। विद्वानों के अनुसार शंकराचार्य ने जिन सिद्धान्तों को स्थापित किया, उन्हें मानने वाले महेश्वरी कहलाये। कैलाशचन्द्र जैन के अनुसार महेश्वरियों का मूल स्थान डीडवाना ही है।

महेश्वरियों को प्राचीनकाल में डिन्डु कहा जाता था। प्राचीन ग्रंथों में डीडवाना में डिन्डु जाति के निवास का उल्लेख मिलता है। सिंहासन बत्तीसी में जिन साढ़े बारह जातियों का उल्लेख है उनमें डिन्डु जाति भी वर्णित है। ई.1265 के एक शिलालेख में कहा गया है कि डिन्डु परिवार के महाजन रतन ने घघसा में एक वापी का निर्माण करवाया। महेश्वरियों की एक शाखा आज भी डीडू महेश्वरी कहलाती है।

डीडवाना झील के किनारे सरकी माता अथवा पाड़ा माता का मंदिर स्थित है। मध्यकाल में बना हुआ यह मंदिर मूलतः शिव मंदिर था जैसा कि जंघा भाग की पश्चिमी पिछली प्रधान ताक में नटराज की प्रतिभा से स्पष्ट है। उत्तर की प्रधान ताक में महिषमर्दिनी एवं दक्षिण की प्रधान ताक में नृत्यलीन गणेश प्रतिमा विराजमान है जो मंदिर के शैव स्वरूप की परिचायक है।

इस शिखरबंद मंदिर की बाहरी कंठिका में पौराणिक आख्यानों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। डीडवाना के पास शिव (दौलतपुरा) गांव से वि.सं. 900 का जो ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है, उसके ऊपरी भाग में देवी भगवती का अंकन मुद्रांक के रूप में किया गया है।

डीडवाना से लगभग तीन दर्जन स्मारक स्तंभ खोजे गये हैं जिन पर स्मृति लेख भी उत्कीर्ण हैं। कुछ पर मूर्तियां भी उत्कीर्ण की गई हैं। डीडवाना से वि.सं. 1379, 1593, 1621, 1624, 1682, 1704, 1724, 1747, 1835, 1843, 1883, 1901, 1905 तथा 1910 के अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं।

विक्रम की 14वीं शती से लेकर 20वीं शती तक के ये लेख बिहाणी पुरुषों की मृत्यु होने पर उनकी पत्नी के सती होने, कुएं की प्रतिष्ठा करवाने, खींची ठाकुर की मृत्यु होने पर उसकी रानियों के सती होने तथा अन्य स्त्रियों के सती होने के सम्बन्ध में हैं।

वि.सं. 1910 (ई.1853) के एक शिलालेख में महाराजा तखतसिंह की ओर से राजाज्ञा प्रसारित की गई है कि दयालजी महाराज के मेले में कोई सिपाही शस्त्र धारण करके नहीं आये।

जगदीशसिंह गहलोत ने मारवाड़ राज्य का इतिहास में डीडवाना हुकूमत के विवरण में लिखा है कि डीडवाना हुकूमत में 83 प्रतिशत हिन्दू रहते हैं जिनमें ब्राह्मण, राजपूत और जाट मुख्य है। कुछ समय तक कायमखानियों का राज्य रहने से कायमखानी काफी संख्या में है।

भूमि रेतीली और मुख्य पैदावार बाजरी है। परगना एक फसली है और कुओं का पानी खारा है। इस परगने में लाडनूं, बैरी बड़ी, नहवा, लेड़ी और तोसीना जागीरी ठिकाने हैं। डीडवाना में श्यामजी तथा वाराही माता के मंदिर देखने योग्य हैं।

इस कस्बे में कांसे तथा पीतल के अच्छे बर्तन बनते हैं। नगर से एक मील पर वायव्य कोण में गढ़ा नामक स्थान है जहाँ निरंजनी साधुओं के अनेक घर एवं मंदिर बने हुए हैं। फाल्गुन माह में एक बड़ा मेला लगता है। इस पंथ को हरीदास ने वि.सं. 1700 के लगभग चलाया था।

महाराजा विजयसिंह के चमत्कारी गुरु साधु आत्माराम भी इसी पंथ के थे और डीडवाना के रहने वाले थे। डीडवाना झील से सोडियम सल्फेट और नमक प्राप्त किए जाते थे किंतु अब इनका उत्पादन बंद हो गया है।

-इस ब्लॉग में प्रयुक्त सामग्री डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ग्रंथ नागौर जिले का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से ली गई है।

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