जयपुर से 80 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित डिग्गी दुर्ग जयपुर के कच्छवाहा शासक वंश में उत्पन्न राव खंगार के पुत्र भाखरसी के वंशजों ने बनवाया। भाखरसी के वंशज भी खंगारोत कहलाते हैं। डिग्गी दुर्ग भव्य एवं दर्शनीय है। पूरा दुर्ग मजबूत प्राकार अर्थात् परकोटे से घिरा हुआ है।
वर्तमान समय में डिग्गी दुर्ग टोंक जिले की मालपुरा तहसील के डिग्गी नामक कस्बे में स्थित है। बाबर के भारत में आने से पहले तक भारत के लघु दुर्ग राज्य की सुरक्षापंक्ति का महत्वपूर्ण अंग होते थे किंतु जब बाबर भारत में तोपें ले आया तब ये दुर्ग अजेय नहीं रह गए। फिर भी हिन्दू रियासतों के ईस्ट इण्डिया कम्पनी के संरक्षण में जाने के समय तक इन दुर्गों की प्रासंगिकता बनी रही।
डिग्गी दुर्ग में प्रवेश के लिये कल्याण दरवाजा, धौली दरवाजा और मालपुरा दरवाजा बने हुए हैं। एक छोटा द्वार चानसेन की खिड़की कहलाता है। दुर्ग परिसर में भव्य एवं सुन्दर राजमहल बने हुए हैं। इनमें बड़ा महल, अमर निवास, रनिवास आदि प्रसिद्ध हैं।
परकोटे के बीच-बीच में बनी चार विशाल बुर्जें भी बड़ी सुदृढ़ हैं। बाईं ओर की बुर्ज का प्रयोग कैदियों को रखने के लिये बंदीगृह के रूप में किया जाता था। अन्य बुर्जों में सैनिक एवं सैन्य सामग्री रखी जाती थी। जयपुर नरेश जगतसिंह की रानी उदावतजी ने डिग्गी में गोपीनाथजी का मंदिर बनवाया।
डिग्गी दुर्ग में माताजी का मंदिर और विशाल कुआं बने हुए हैं। गढ़ के प्रवेश द्वार पर सीतारामजी का मंदिर तथा उसके सामने नरवरजी का मंदिर बने हुए हैं। सीतारामजी का मंदिर राजकुमारी रतनकुमारी ने बनवाया। दुर्ग के भीतर सिलहखाना, हाथी का ठाण, अश्वशाला, रथशाला और अन्न-भण्डारण के स्थान अब भी देखे जा सकते हैं।
डिग्गी में विश्वविख्यात कल्याणजी का मंदिर स्थित है। मंदिर में भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित है। यह मंदिर अत्यंत प्राचीन बताया जाता है किंतु वर्तमान मंदिर का निर्माण मेवाड़ के राणा सांगा (महाराणा संग्राम) सिंह ने ईस्वी 1527 में करवाया था। प्रत्येक महीने की पूर्णिमा को इस मंदिर में लक्खी मेला भरता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता