मुगल काल में जाटों की गढ़ैयाएँ बड़ी प्रसिद्ध थीं। जाटों ने मुगलों का सामना करने के लिये इन गढ़ैयाओं का निर्माण किया था। जितने क्षेत्र में जाटों की गढ़ैयाएँ स्थित थीं, उतना क्षेत्र जाटवाड़ा अथवा जटवाड़ा कहलाता था।
जाटों की गढ़ैयाएँ भज्जासिंह एके पुत्र राजाराम द्वारा बनानी आरम्भ की गईं। भज्जासिंह जाट ब्रजक्षेत्र के सिनसिनी गांव का रहने वाला एक साधारण किसान था। वह भज्जासिंह तथा उसका बड़ा भाई ब्रजराज मुगल सैनिकों के अत्याचारों का विरोध करते थे। इस कारण यह परिवार जाटों में बहुत प्रसिद्ध हो गया।
भज्जासिंह का पुत्र राजाराम भी अपने बाप-दादों की तरह विद्रोही प्रवृत्ति का था। राजाराम द्वारा मऊ के थानेदार लालबेग की हत्या कर दिये जाने पर जाट उसके साथ हो लिये और राजाराम निर्विवाद रूप से जाटों का नेता बन गया। शीघ्र ही राजाराम ने मिट्टी के परकोटों से घिरी हुई पक्की गढ़ैयाएँ (छोटे दुर्ग) बनाने आरम्भ कर दिये। जब राजाराम की स्थिति काफी मजबूत हो गई तो उसने आगरा सूबे पर आक्रमण करने शुरू कर दिये। इस पर औरंगजेब ने जाटों से समझौता करने का निर्णय लिया तथा राजाराम को दिल्ली बुलवाकर मथुरा की सरदारी और 575 गांवों की जागीरी प्रदान कर दी।
मुगलों के समय में आगरा से लेकर वर्तमान भरतपुर तक के क्षेत्र में घने जंगल हुआ करते थें। जाटों की गढ़ैयाएँ इसी क्षेत्र में बनीं। अधिकांश गढ़ैयाएँ मिट्टी से बनाई गईं। पैंघोर, कार्साट, सोगर, अबार, सौंख, रायसीस, सोंखरे-सोंखरी थूण, सिनसिनी, सोघर, पिंजौर, वैर आदि ऐसी ही छोटी गढ़ैयाएं थीं।
जाटों की गढ़ैयाएँ पर्याप्त ऊँची सुरक्षा प्राचीरों से घिरी हुई थीं तथा उनमें कुछ अंतराल पर बुर्ज भी खड़ी की गई थीं जिन पर सैनिकों का पहरा रहता था। गर्मियों के दिनों में इन जंगलों के चारों ओर के मैदानों में गर्म रेत उड़ा करती थी जिसके कारण वातावरण इतना गर्म हो जाता था कि किसी सेना का इन गढ़ैयाओं तक पहुंचना बहुत कठिन हो जाता था। इसी प्रकार बरसात में इन मैदानों की रेत गीली होकर कीचड़ में बदल जाती थी जिसके कारण हाथी-घोड़ों, तोपों और रथों से युक्त सेनाओं का, इन गढ़ैयाओं तक पहुंचना अत्यंत कठिन हो जाता था।
जाटों की गढ़ैयाएँ न केवल युद्ध के समय सैनिकों की रक्षा करती थीं अपितु जाट योद्धा, मुगलों के क्षेत्र में लूटपाट करके इनमें आसानी से छिप जाते थे और शाही सेना उनके विरुद्ध कार्यवाही करने में असमर्थ रहती थी। इस कारण जाट दिन-प्रति दिन शक्तिशाली होते चले गये।
जाटों की गढ़ैयाएँ प्राचीरों पर लगी तोपों से भी सुरक्षित थीं। ये तोपें मुगल सेनाओं से लूटी गई थीं। ताकि शत्रु को दूर से ही मार गिराया जा सके। जाटों की गढ़ैयाएँ एक शृंखला के रूप में स्थित थीं जिसके कारण जाटों को मुगलों की तुलना में अधिक सुरक्षा मिलती थी। जब कभी मुगल सेना किसी गढ़ैया के विरुद्ध कार्यवाही करती तो आसपास के जाट पीछे से आकर शत्रु सेना पर धावा बोल देते थे या फिर गढ़ैया में घिरने की आशंका से पहले ही एक गढ़ैया के जाट भागकर दूसरी गढ़ैयाओं में चले जाते।
इस प्रकार जाटों की गढ़ैयाएँ मुगलिया सल्तनत के लिये भारी सिर-दर्द बन गईं। जाटों ने इस क्षेत्र में मुगलों के विरुद्ध ठीक वैसी ही गुरिल्ला युद्ध पद्धति अपनाई जैसी कि दक्खिन में क्षत्रपति शिवाजी ने अपनाई थी। धीरे-धीरे इस क्षेत्र के जाट इतने शक्तिशाली हो गए कि उन्होंने भरतपुर, डीग तथा कुम्हेर आदि स्थानों पर बड़े गढ़ भी बनवा लिये।
जब औरंगजेब का शासन हुआ तो मुगलों और जाटों में बुरी तरह ठन गई। औरंगजेब के आदेश से ई.1688 से 1695 की अवधि में ब्रज क्षेत्र में स्थित जाटों की गढ़ैयाएँ अधिकतर संख्या में नष्ट कर दी गईं। औरंगजेब की मृत्यु के बाद राजा बदनसिंह एवं महाराजा सूरजमल के समय में जाटों ने ब्रज क्षेत्र में कई अच्छे एवं महत्वपूर्ण दुर्ग बनाये। महाराजा सूरजमल की मृत्यु के बाद बची-खुची जाटों की गढ़ैयाएँ मराठों एवं ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भी नष्ट की गईं। वर्तमान में बहुत कम जाटों की गढ़ैयाएँ एवं दुर्ग अस्तित्व में हैं। जो हैं, वे भी मरम्मत और देख-रेख के अभाव में समाप्त हो रहे हैं।
सोघोर की गढ़ैया
सिनसिनी जीतने के बाद 21 मई 1691 को बिशनसिंह ने सोघोर गढ़ैया को जा घेरा। उस दिन दुर्ग में धान पहुंचाया जा रहा था। इस कारण दुर्ग के द्वार खुले हुए थे। ठीक उसी समय बिशनसिंह ने वहाँ पहुंचकर दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया। जिसने भी हथियार उठाया, उसे वहीं मार डाला गया। दुर्ग में जीवित बचे 500 जाटों को बंदी बना लिया गया। इस प्रकार यह दुर्ग मुगलों के अधिकार में चला गया।
पिंजौर की गढ़ैया
पिंजौर की गढ़ैया भरतपुर से 14 मील पश्चिम में यमुना नदी के तट पर स्थित थी तथा जाटों की प्रुमख गढ़ैयों में से एक थी। जाट नेता फतहसिंह ने इसी गढ़ैया से अपने अभियान आरम्भ किए थे। इस कारण औरंगजेब इस गढ़ैया को जीतने के लिये अत्यंत उत्सुक हो उठा। उसने जयपुर नरेश सवाई जयसिंह को इसकी जिम्मेदारी दी।
जयसिंह ने अक्टूबर 1692 में पिंजौर तथा अवायर की गढ़ैयाएं जीत लीं। जाटों को सौंख दुर्ग में शरण लेनी पड़ी किंतु जयसिंह ने वहाँ भी अधिकार कर लिया। जाटों को यह गढ़ैया भी खाली करनी पड़ी।
जयसिंह ने पिंजौर की गढ़ैया को नष्ट करने के बजाय अपनी सेना वहाँ रख दी ताकि निकट भविष्य में जब कभी कच्छवाहों को इस क्षेत्र में अभियान चलाना पड़े तो यह गढ़ी आधार शिविर के रूप में सहायक सिद्ध हो सके। पिंजौर विजय के उपलक्ष्य में औरंगजेब ने महाराजा सवाई जयसिंह को पुरस्कृत किया। उसे चाटसू, टोंक, मालपुरा तथा दौसा के परगने स्वीकृत किए गए तथा उसके मनसब में भी वृद्धि की।
राजाखेड़ा की गढ़ैया
चम्बल नदी के किनारे स्थित राजाखेड़ा राजा मानसिंह तोमर ने पन्द्रहवीं शताब्दी ईस्वी के अन्तिम वर्षों में बसाया था। यहाँ पर भरतपुर के राजा सूरजमल का बनवाया हुआ मिट्टी का किला स्थित है। इसके चारों ओर खाई और मिट्टी की दीवार बनी हुई है। राजस्थान का निर्माण होने के बाद जब राजाखेड़ा तहसील बनी, तब इसमें तहसील कार्यालय खोला गया। अब राजाखेड़ा धौलपुर जिले में है।
बदनगढ़ी की गढ़ैया
बयाना से 5 मील दूर बदनगढ़ी के खण्डहर विद्यमान हैं। सिनसिनी से भाग निकलने के बाद ब्रजराज तथा उसके परिवार ने मिट्टी की इसी गढ़ैया में शरण ली थी। भावसिंह की एक विधवा रानी ने इसी गढ़ी में राजा बदनसिंह को जन्म दिया था। इसी कारण यह गढ़ी बदनगढ़ी के नाम से विख्यात हुई।
परगना अउ की गढ़ैया
परगना अउ, सिननिसी से केवल 8 मील दूर था। आइन-ए-अकबरी में इसका उल्लेख डीग के निकट जाटों द्वारा बसाये गए एक महाल के रूप में किया गया है तथा इसे अकबराबाद सूबे में आगरा सरकार के अंतर्गत बताया गया है। यह क्षेत्र घने जंगल से घिरा हुआ था। ई.1595 तक यह क्षेत्र राजपूतों के अधिकार में था किंतु बाद में जाट हावी होते चले गए। औरंगजेब के समय इस क्षेत्र के जाट काफी प्रबल थे। जब भी जाट किसी अन्य क्षेत्र में संकट में आ जाते थे तो भाग कर इसी क्षेत्र में शरण लेते थे।
भज्जा अथवा ब्रजराज (1689-95) ने परगना अउ से मुगलों के विरुद्ध अभियान चलाया तथा आसपास के जाटों को भी अपने अधीन कर लिया। औरंगजेब ने मिर्जा जहाँ को परगना अउ पर आक्रमण करने भेजा। मिर्जाजहाँ ने परगना अउ की गढ़ैया को अपने अधिकार में लेकर उसमें मुगल सेना रख दी। ई.1694 में जब जयपुर नरेश बिशनसिंह ने इस क्षेत्र से जाटों को उजाड़ा तब यह क्षेत्र बिशनसिंह को ही जागीर में दे दिया गया।
इस प्रकार जाटों की गढ़ैयाएँ मिट्टी से बनी होने पर भी तथा मुगलों के किलों की अपेक्षा बहुत कमजोर होने पर भी मुगलों के विरुद्ध बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुईं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता