इसमें कोई संदेह नहीं कि कोलवी की बौद्ध गुफाएं बेहद रहस्यमय, रोमांचक और विस्मयकारी हैं किंतु बहुत कम लोग जानते होंगे कि ये गुफाएं अपने आप में खूनी इतिहास समेटे बैठी हैं।
भगवान बुद्ध कभी राजस्थान नहीं आये किंतु उनके निर्वाण के बाद के 1000 सालों में राजस्थान बौद्ध धर्म के बहुत बड़े केन्द्र के रूप में उभरा। यह एक विस्मयकारी बात थी कि जब गुप्त शासक चौथी शताब्दी इस्वी के मध्य से लेकर छठी शताब्दी इस्वी के मध्य तक पूरे भारत में वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार बड़े उत्साह के साथ कर रहे थे, तब राजस्थान में वैष्णव धर्म की तरह ही बौद्ध एवं जैन धर्म भी अपने चरम पर थे।
इन तीन महान धर्मों की गरिमामय उपस्थिति से राजस्थान का वातावरण कला, साहित्य, अध्यात्म एवं ज्ञान-विज्ञान से युक्त हो गया था तथा उस काल में पाणिनी से लेकर ब्रह्मगुप्त तक हुए अनेक विद्वानों ने ऐसी धूम मचाई कि 14-15 शताब्दियां बीत जाने पर भी उनकी धमक पूरी धरती पर आज भी सुनाई दे रही है।
राजस्थान के बौद्ध स्मारक
राजस्थान में अनेक स्थानों से बौद्ध धर्म से सम्बन्धित स्थल के अवशेष अथवा उनके लिखित प्रमाण मिले हैं जिनमें बैराठ, बीजक की पहाड़ी, लालसोट, रैढ़, भीनमाल, चित्तौड़ तथा कोटा प्रमुख हैं। शेरगढ़ में बौद्ध मंदिर और बौद्ध विहार का उल्लेख करने वाला संस्कृत भाषा का छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी का एक शिलालेख मिला है जिसे एक बौद्ध भिक्षु ने उत्कीर्ण किया।
बीजक की पहाड़ी पर अशोक का भब्रू शिलालेख मिला था जिसे एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल के संग्रहालय में रखा गया। बीजक की पहाड़ी आजकल निर्जन है किंतु निश्चित रूप से उस काल में इस क्षेत्र में सघन मानव बस्ती रही होगी, इसीलिये इस शिलालेख को यहां लगाया गया होगा। यहां से 27 फुट व्यास के एक गोलाकार बौद्ध मंदिर के अवेशष मिले हैं। यह एक प्राचीन बौद्ध चैत्य था।
बैराठ से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित भीमजी की डूंगरी के नीचे भी एक शिलालेख मिला है जो बीजक की पहाड़ी के शिलालेख की ही अनुकृति है। चित्तौड़ के कालिका मंदिर से लगभग आधा किलोमीटर दूरी पर उत्तर-पश्चिम की ओर 10 स्तूप पाये गये हैं। इनमें सबसे बड़ा 3 फुट तीन इंच ऊंचा था। इसका आधार एक फुट आठ इंच वर्गाकार है।
ऊपरी भाग वर्तुलाकार था उसके ऊपर गुम्बद की आकृति थी। नीचे, चारों तरफ बैठी भगवान बुद्ध की 16 प्रतिमाएं थीं। चित्तौड़ दुर्ग में नगरी से सामग्री लाकर लाई गई थी। नगरी शुंग कालीन नगर था। यहां से प्राप्त सामग्री में एक शिलालेख में लिखा है- ‘‘स वा भूतानाम् दयाथम् कारिता।’’ अर्थात् इस शिलालेख में भगवान बुद्ध द्वारा समस्त जीवों के प्रति दया करने के उपदेश की ओर संकेत किया गया है।
झालावाड़ जिले की बौद्ध गुफाएं
यदि हम झालावाड़ जिले के भवानीमण्डी कस्बे से मंदसौर को जाने वाली सड़क पर चलें तो झालावाड़ जिले में कोलवी, हात्यागोड़, बिनायगा तथा गुनाई और मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में धर्मराजेश्वर नामक स्थान पर बौद्ध भिक्षुओं की छठी से आठवीं शताब्दी की बौद्ध गुफाएं मिलती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सैंकड़ों बौद्ध भिक्षुओं ने घने जंगलों में छिपी हुई इन पहाड़ियों में गुफाएं बनाकर इनमें निवास किया।
इन गुफाओं के आकार तथा उनमें बने कक्ष, शैयाएं, साधना कक्ष, बौद्ध मंदिर, बारामदों तथा दो मंजिली गुफाओं आदि की उपस्थिति से अनुमान होता है कि बौद्ध भिक्षुओं ने लम्बे समय तक इनमें निवास किया होगा।
यहां उन्होंने गुफाओं के साथ-साथ कलात्मक स्तूप तथा भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं भी उत्कीर्ण कीं। बौद्ध भिक्षुओं के सधे हुए हाथों की छैनियों की टंकार आज भी इन गुफाओं के वीराने में गूंजती हुई प्रतीत होती हैं। अंग्रेज अधिकारी डॉक्टर इम्पे ने कोलवी की गुफाओं को खोजा था।
जनरल कनिंघम ने भी इन गुफाओं को देखा था। झालावाड़ जिले से मंदसौर तक फैली हुई ये गुफाएं भुरभुरे लैटेराइट पत्थर की बनी हुई हैं जिन पर छैनी चलाकर आसानी से काटा जा सकता है। इस पूरे क्षेत्र में बोधिसत्व की प्रतिमाओं का अभाव है जिससे सिद्ध होता है कि ये समस्त गुफाएं बौद्धों के हीनयान मत के भिक्षुओं की हैं।
कोलवी में लगभग 50 गुफाएं हैं जिनमें से कुछ गुफाएं नष्ट हो गयी हैं। इन गुफाओं का सामान्यतः आकार 15 फुट लम्बा, 13 फुट चौड़ा तथा 22 फुट ऊंचा है। इन गुफाओं में सामान्यतः एक हिस्से में लगभग दो फुट ऊंचे मिट्टी तथा पत्थर के मिश्रण से चबूतरे बने हुए हैं जो शैयाएं जान पड़ते हैं।
इनके एक तरफ मिट्टी-पत्थरों का ही सिराहना बना हुआ है जबकि पैताणा (पैरों की तरफ का भाग) नीचे की ओर ढलान लिये हुए है। आयुर्वेद कहता है कि यदि भोजन करने के बाद धरती पर 180 डिग्री पर सीधे सोने की बजाय यदि पेट से सिर तक का हिस्सा कुछ उठा हुआ हो तो भोजन जल्दी पचता है तथा वायु एवं अपच आदि विकार नहीं होते।
बौद्ध गुफाओं में बनी हुई ये शैयाएं इसी सिद्धांत पर बने हुए प्रतीत होती हैं। कुछ गुफाओं के भीतर, दोनांे किनारों पर इस तरह के शैयाएं बनी हुई हैं। अधिकतर गुफाओं में एक ही कक्ष बना हुआ है जबकि कुछ गुफाओं के भीतर एक से अधिक कक्ष भी बने हुए हैं।
कुछ कक्षों के साथ छोटे कक्ष भी बने हुए हैं जो साधना कक्ष के रूप में अथवा भण्डार गृह के रूप में काम आते होंगे। कोलवी में एक गुफा में कुंआ भी बना हुआ है जो कि एक असाधारण बात है। पहाड़ के कठोर पत्थर की खुदाई करके कुंआ बनाना उन दिनों में पर्याप्त श्रम भरा कार्य रहा होगा। क्योंकि तब न तो उन्नत प्रकार के उपकरण थे और न बारूद जैसे विस्फोटक।
कोलवी में एक चट्टान पर 12 फुट उंची भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा भी उत्कीर्ण है जो उपदेश देने की मुद्रा में है। काफी संख्या में कलात्मक स्तूप हैं जो चट्टानों को काटकर वर्गाकार एवं अष्टभुजा आधार पर बनाये गये हैं।
इनमें से कुछ स्तूप आज भी अच्छी अवस्था में हैं। एक गुफा में भगवान बुद्ध की पद्मासन मुद्रा की प्रतिमा है। इसे प्रकार की गुफाएं चैत्य कहलाती हैं। इनकी छत हाथी के पीठ की तरह होती हैं। कोलवी में कुछ अन्य चैत्य भी मौजूद थे जो अब नष्ट प्रायः हैं।
कोलवी से 13 किलोमीटर दूर बिनायगा गांव के निकट की पहाड़ी में लगभग 20 गुफाएं स्थित हैं जिनका आकार कोलवी की गुफाओं की अपेक्षा छोटा है। हात्यागोड़ नामक गांव की पहाड़ी में 5 गुफाएं हैं। गुनाई गांव में भी 4 गुफाएं हैं।
झालावाड़ जिले में डग के निकटवर्ती क्षेत्र में भी कुछ गुफाएं बताई जाती हैं जो कि निरंजनी गुफाएं कहलाती हैं। कोलवी, बिनायगा तथा हात्यागोड़ की गुफाएं एक ही जैसी बनी हुई हैं। बिनायगा तथा हात्यागोड़ की गुफाओं में भी कोलवी की गुफाओं की भांति पत्थर और मिट्टी के शैयाएं बनी हुइ हैं।
कोलवी में कुछ गुफाएं दो मंजिल की हैं जबकि बिनायगा में एक मंजिल की ही गुफाएं हैं। इसी सड़क पर लगभग 100 किलोमीटर आगे चलने पर मंदसौर जिला आरम्भ हो जाता है। यहां धर्मराजेश्वर नामक स्थान पर 524 मालव संवत का एक शिलालेख मिला है जिनमें भगवान बुद्ध को सुगत नाम से सम्बोधित किया गया है।
राजस्थान सरकार ने कोलवी तथा बिनायगा की गुफाओं तक जाने के लिये पत्थर के पक्के मार्ग तथा उसके साथ रक्षा दीवार बनवा दी है। इससे इन गुफाओं तक पहुंचना सुगम हो गया है। फिर भी पर्यटकों को यहां तब तक नहीं लाया जा सकता जब तक कि ये राज्य के पर्यटन मानचित्र पर प्रमुख स्थान नहीं पा जातीं।
झालावाड़ की बौद्ध गुफाएं विशिष्ट क्यों ?
बौद्ध स्मारक एवं बौद्ध स्थल पूरे भारत में बड़ी संख्या में मिले हैं और इनका मिलना इतिहास की दृष्टि से एक स्वाभाविक बात है किंतु झालावाड़ क्षेत्र की बौद्ध गुफाएं अपने आप में विशिष्ट हैं। ये भारत के इतिहास के एक भयानक मोड़ की गवाह हैं तथा आततायी हूणों के मालवा क्षेत्र पर आक्रमण करने तथा बौद्ध धर्म के राजस्थान एवं मालवा से विलुप्त हो जाने की क्रूर कहानी कहती हुई प्रतीत होती हैं।
हूणों की विनाश लीला
बुद्ध के निर्वाण के लगभग 1000 साल तक राजस्थान में बौद्ध धर्म निर्विघ्न रूप से फलता-फूलता रहा किंतु पांचवी शताब्दी ईस्वी में बैक्ट्रिया से एक विप्लवकारी तूफान उठा। बैक्ट्रिया भारत और ईरान के मध्य में तथा हिन्दुकुश पर्वत के पश्चिम में स्थित था।
इसे ईसा के जन्म से लगभग 325 वर्ष पहले, एलेक्जेण्ड्रिया के राजा सिकन्दर ने मध्य एशिया में अपनी प्रांतीय राजधानी के रूप में स्थापित किया था। बैक्ट्रिया से उठा विनाशकारी तूफान हूंगनू नामक एक प्राचीन चीनी जाति की विध्वंसकारी विजय यात्रा के कारण उत्पन्न हुआ था जिन्हें भारत में हूण कहा जाता है तथा जिन्हें यूचियों के कारण अपना मूल स्थान छोड़कर बैक्ट्रिया में आकर रहना पड़ा था।
पांचवी शताब्दी ईस्वी में हूणों के नेता अत्तिल ने मध्य एशिया की दो बड़ी राजधानियों- रवेन्ना तथा कुस्तुंतुनिया पर भयानक आक्रमण करके उन्हें तहस-नहस कर डाला तथा ईरान को परास्त करके वहाँ के राजा को मार डाला। उनकी बर्बर सेनाओं ने डैन्यूब नदी पार करके सिंधु नदी तक के क्षेत्र को रौंद डाला।
ऐसे विषम समय में गुप्तों के महान राजा स्कन्दगुप्त (415-455 ई.) ने हूणों को भारत भूमि से परे धकेलकर राष्ट्र एवं प्रजा की रक्षा की किंतु इस कार्य में गुप्त साम्राज्य की इतनी शक्ति क्षीण हो गई कि बाद के गुप्त-सम्राट्, भारत को हूणों के प्रहारों से नहीं बचा सके।
पांचवी शताब्दी के अन्त में (484 ईस्वी के आसपास) हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। उसने पहले गान्धार पर और बाद में गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भागों पर प्रभुत्व स्थापित किया तथा मालवा को भी जीत लिया। आधुनिक झालावाड़ जिला, कोटा तथा मंदसौर क्षेत्र इसी मालवा में स्थित थे।
मेवाड़ के कुछ हिस्से भी इसमें आते थे। इस प्रकार तोरमाण भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रदेश के बहुत बडे़ भू-भाग पर अधिकार करके, स्यालकोट (पंजाब में) को राजधानी बनाकर शासन करने लगा। तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा हुआ। उत्तर भारत में उसके सिक्के पर्याप्त संख्या में मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उस काल में काश्मीर, पंजाब, राजस्थान, मालवा आदि विशाल प्रदेश हूणों के आधिपत्य में चले गये थे।
मिहिरकुल बड़ा ही निर्दयी तथा रक्त पिपासु था। उसने गुप्त सम्राट बालादित्य पर आक्रमण किया। बालादित्य ने मिहिरकुल को जीवित ही बंदी बनाया। वह मिहिरकुल का वध करना चाहता था किन्तु राजमाता के आदेश पर उसे जिंदा छोड़ दिया गया। मिहिरकुल ने भाग कर कश्मीर में शरण ली किंतु कुछ समय बाद विश्वासघात करके वहां के राजा को मार दिया तथा स्वयं कश्मीर का राजा बन गया। उसने गान्धार नरेश को मारकर गान्धार पर भी अधिकार कर लिया।
जब मिहिरकुल गुप्तों के हाथों से फिसल गया तब मालवा के राजा यशोधर्मा (यशोवर्मन) ने मिहिरकुल पर आक्रमण किया तथा उसे बुरी तरह परास्त किया। मन्दसौर अभिलेख कहता है कि यशोधर्मा से पराजित होने के पूर्व मिहिरकुल ने स्थाण् (भगवान शिव) के अतिरिक्त अन्य किसी के सामने अपना सिर नहीं झुकाया।
ह्वेनसांग का वर्णन
631 ईस्वी में भारत की यात्रा पर आये चीनी बौद्ध भिक्षुयात्री ह्वेनसांग ने मिहिरकुल के बारे में लिखा है कि उसने बौद्धों पर बड़ा अत्याचार किया। उनके मठों, विहारों तथा स्तूपों को लूटा और बड़़ी निर्दयता से उनका सामूहिक वध किया। मिहिरकुल ने अपने सम्पूर्ण राज्य में बौद्ध संघ के पूर्ण विनाश की आज्ञा दी।
ह्वेनसांग लिखता है कि मिहिरकुल ने 1600 बौद्ध स्तूपों और विहारों को ध्वस्त कर दिया और 9 करोड़ बौद्ध उपासकों की हत्या कर दी। ह्वेनसांग के वर्णन में अतिरंजना हो सकती है किंतु यह निश्चित है कि तोरमाण तथा मिहिरकुल ने राजस्थान के बौद्धों को बहुत क्षति पहुंचाई। उनके मठ उजाड़ दिये, पुस्तकालय जला दिये। विहारों को धूल में मिला दिया तथा लाखों बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। गुप्त शासक बालादित्य तथा मालवा का शासक यशोधर्मा हूणों को भारत से बाहर नहीं निकाल सके।
बौद्धों के अस्तित्व पर संकट
हूणों की भयानक विनाशलीला के कारण बौद्ध भिक्षुओं के समक्ष अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया। बहुत से बौद्ध भिक्षुओं ने भागकर तिब्बत, चीन, बर्मा, श्रीलंका आदि देशों में शरण ली। राजस्थान के बौद्ध भिक्षु जंगलों और गुफाओं में चले गये तथा वहीं छिपकर, भगवान बुद्ध के बताये नियमों का पालन करते हुए साधना करने लगे।
इन गुफाओं में छिपे बौद्ध भिक्षुओं का क्या अंत हुआ होगा, यह बताने वाला कोई शिलालेख अथवा लिखित प्रमाण नहीं मिला है। केवल अनुमान के सहारे ही आगे बढ़ा जा सकता है और यही कहा जा सकता है कि अपने आप को बचाने का प्रयास करने वाले ये भिक्षु अंततः या तो हूणों के भालों की नोकों के नीचे आ गये होंगे या फिर उन्हें भी भागकर चीन, बर्मा अथवा श्रीलंका को भाग जाना पड़ा होगा।
अंततः नष्ट हो ही गये
सातवीं शताब्दी में भारत में राजपूतों का तथा भारत की पश्चिमी सीमा पर तुर्कों का उत्कर्ष हुआ। हूण इन दोनों शक्तियों के बीच पिसकर नष्ट हो गये। हूणांे के पराभव के बाद बौद्ध धर्म ने फिर से संभलने का प्रयास किया। सातवीं शताब्दी में जब चीनी बौद्ध भिक्षु भारत आया तब उसने भीनमाल नगर में एक बौद्ध विहार देखा था जिसमें 100 से अधिक भिक्षु रहते थे।
यह राजस्थान में संभवतः बौद्धों के बुझते हुए दीपक की अंतिम चमक थी क्योंकि सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक राजस्थान पर शासन करने वाले राजपूत शासक, शक्ति के उपासक थे उनके राज्य में अहिंसावादी बौद्धों के लिये कोई विशेष स्थान नहीं था। कोलवी, विनायगा, हात्यागोड़ तथा गुनाई गांव की गुफाएं काल के गाल में समा गये बौद्ध भिक्षुओं का रहस्य छिपाये मौन खड़ी हैं।
–डॉ. मोहनलाल गुप्ता