कुचामन के सिक्के मारवाड़ राज्य के इतिहास का अभिन्न अंग हैं। कुचामनी सिक्के ढालने के लिए टकसाल जोधपुर के राजा के आदेश से स्थापित की गई थी, अंग्रेज सरकार ने भी इस टकसाल को जारी रखा।
जोधपुर राज्य में मुद्रा चलाने की अनुमति केवल कुचामन ठाकुर को ही प्राप्त थी। कुचामन ठिकाने द्वारा केवल चान्दी की मुद्रा ढाली गई। ठिकाने द्वारा एक रुपया, आठ आना तथा चार आना के सिक्के ढाले गये। प्राचीन कुचामन मुद्रा इकतीसंदा अथवा ’31 सन्दा’ अनुकृति की थी।
प्रिंसेप के यूजफुल टेबल्स में इन्हें बोपूशाही कहा गया है। इन्हें बोरसी रुपया भी कहा जाता था। मारवाड़ राज्य में ये सर्वप्रथम ठाकुर सूरजमल द्वारा अपनी ठकुराई के 31वें वर्षमें ई.1788 में ढाले गये थे। ये सिक्के सर्वप्रथम अजमेर में ढाले गये उस समय अजमेर मारवाड़ के राठौड़ों के अधीन था।
जब अजमेर राठौड़ों के हाथ से निकल गया तो टकसाल कुचामन में स्थानान्तरित की गई किंतु डाई अजमेर वाली ही चलती रही। पं. रेऊ का कथन है कि ई.1789 में शाहआलम (द्वितीय) के 31वें राज्य वर्ष से अजमेर में चांदी का सिक्का बनना प्रारम्भ हुआ किंतु जब दिल्ली के बादशाह की पकड़ राठौड़ों पर ढीली पड़ गई तब टकसाल का दरोगा उस सिक्के का ठप्पा (बाला और पाई) लेकर कुचामन आ गया।
उन दिनों कुचामन में व्यापार की दशा अच्छी थी। कुचामन के ठाकुर ने ई.1838 में जोधपुर नरेश मानसिंह से आज्ञा प्राप्त कर अपने यहाँ भी चांदी के सिक्के ढालने की टकसाल खोल दी। इस सिक्के के ऊर्ध्व पटल पर ‘सिक्का मुबारक बादशाह गाजीशाह आलम’ (बादशाह शाहआलम का शुभ सिक्का) अंकित है। शाह के ‘ह’ पर एक तलवार प्रदर्शित है तथा तिथि फारसी अंकों में दी गई है।
अधोपटल पर ‘सनह 31 जुलूस मैंमनत मानूस जरब-इ-दर-अल-खाई अजमेर’ अंकित है। अर्थात् प्रसन्नता के स्थान अजमेर में, उसके सौभाग्यशाली शासन के 31वें वर्ष में बने। वजन 166 ग्रेन। मूल्य ब्रिटिश के 10 आना 3 पाई के बराबर।
ई.1863 में नया कुचामनी सिक्का आरंभ हुआ। इसके ऊर्ध्व पटल पर ‘क्वीन विक्टोरिया मल्लिकाह-मुअज्जमहे इंगलिस्तान वा हिन्दुस्तान ”-” (इंग्लैण्ड एवं भारत की महारानी विक्टोरिया) क्वीन शब्द के ऊपर एक फूल बना हुआ है।
अधोपटल पर ‘जरब कुचावन अल्लाकाह जोधपुर सनह इस्वी 1863’ अंकित है। अर्थात् जोधपुर राज्य में स्थित कुचावन में ई.1863 में बने। एक रुपये का औसत भार 168 ग्रेन था तथा मूल्य ब्रिटिश मुद्रा के 12 आने 3 पाई के बराबर था।
कुचामनी सिक्कों का निर्माण 75 प्रतिशत चांदी एवं 25 प्रतिशत मिलावट से होता था। ये सिक्के कुचामन की सीमा, किशनगढ़ तथा मारवाड़ के कुछ भागों में प्रचलित थे। इनका उपयोग व्यापार-वाणिज्य में, मंदिर में चढ़ाने में तथा ब्राह्मणों, चारणों और भाटों को दान देने में होता था।
विलियम विल्फ्रेड वैब ने लिखा है- ‘ये सिक्के विजयशाही सिक्कों की अपेक्षा कम कीमत के थे अतः दान में दी जाने वाली वास्तविक रकम एक चौथाई ही होती थी। अतः अधिकारियों द्वारा कुचामन टकसाल जारी रखने की सिफारिश की गई थी। सरकार द्वारा राजपूताने में चलने वाले सिक्कों की मात्रा में कमी करने का प्रयास किया गया था। सरदारों द्वारा विवाहोत्सवों पर किया जाने वाला खर्च सी.के.एम. वाल्टर, सी.एस.आई. गवर्नर जनरल के भूतपूर्व प्रतिनिधि के निर्देशन में निश्चित किया गया ताकि इस टकसाल को अस्तित्व में रहने की अनुमति मिल सके।’



