महाराजा किशनसिंह ने ई.1611 में सोठेलाव के पास, गूंदोलाव झील के तट पर किशनगढ़ दुर्ग बनवाया एवं किशनगढ़ नगर की स्थापना की। किशनगढ़ दुर्ग स्थल, पारिख एवं पारिघ श्रेणी का दुर्ग है तथा वास्तु, शिल्प एवं सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था।
जोधपुर नरेश मोटा राजा उदयसिंह के 16 पुत्र थे। उनमें से 8वें, 14वें या 15वें नम्बर के राजकुमार किशनसिंह को 19 वर्ष की आयु में अपने पिता से आसोप की जागीर मिली। जब किशनसिंह का बड़ा भाई सूरसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा तो उसने किशनसिंह को दोदर की जागीर दी।
किशनसिंह इस जागीर से संतुष्ट नहीं हुआ और वह ई.1596 में अकबर की सेवा में अजमेर चला गया। अकबर ने उसे अजमेर जिले में हिन्दुआन, सेठोलाव एवं कुछ अन्य परगने दिये तथा राजा की उपाधि प्रदान की। जब जहाँगीर बादशाह हुआ तो उसने किशनसिंह को महाराजा की उपाधि प्रदान की। इस उपाधि के मिलने पर किशनसिंह ने ई.1611 में किशनगढ़ राज्य की स्थापना की।
महाराजा किशनसिंह के वंशज ई.1948 तक किशनगढ़ राज्य पर शासन करते रहे। छोटी रियासत के सीमित संसाधन होने पर भी किशनगढ़ के राजाओं ने कई दुर्ग बनवाये। किशनगढ़ तथा रूपनगढ़ के अतिरिक्त सारवाड़, फतेहगढ़ तथा करकेड़ी के किले महत्वपूर्ण थे जिनके खण्डहर आज भी देखे जा सकते हैं।
महाराजा किशनसिंह के वंशज महाराजा बहादुरसिंह ने अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में एक बार मराठों और जयपुर राज्य के बीच संधि करवाई। इससे किशनगढ़ राज्य को लाखों रुपये का लाभ हुआ। उस धन से महाराजा बहादुरसिंह ने किशनगढ़ किले का परकोटा, किले के चारों ओर नहर, चौबुर्जा, शहर की सुरक्षा दीवार तथा गूंदोलाव झील की बहादुरशाही पेड़ियाँ बनावाईं। किशनगढ़ की सुरक्षा दीवार तथा किले की नहर के जो कार्य बहादुरसिंह के समय में आरम्भ हुए थे, वे प्रतापसिंह के समय में भी चलते रहे।
जब महाराजा ने गूंदोलाव झील के किनारे दुर्ग बनवाने का निश्चय किया तो वहाँ एक नाथ सम्प्रदाय का कनफड़ा साधु ध्यान लगाये लगाये हुए बैठा था। किशनसिंह ने उसके पास जाकर निवेदन किया कि आप जिस स्थान पर बैठे है, मैं उस स्थान पर किले का निर्माण कराना चाहता हँूं। साधु कुछ क्षण तक सोचता रहा और बिना कुछ बोले, झील के पानी पर खड़ाऊं रखता हुआ चला गया। मानो धरती पर चल रहा हो। उस साधु ने झील के निकट एक छोटी पहाड़़ी पर अपना आसन जमाया जिसे आज भी ‘आसन की रड़ी’ कहा जाता है। साधु के हट जाने पर महाराजा ने वहाँ दुर्ग का निर्माण करवाया। इस दुर्ग को लम्बी एवं ऊँची दीवारों से घेरा गया। परकोटे के बाहर बनी गहरी खाईयों में हर समय जल भरा रहता था, जिसका वर्णन ढूंढार के एक कवि ने इस प्रकार किया है –
ऐसे सुदृढ़ गढ़ होतो सुरराज के तो,
मेघनाथ इन्द्रजीत पदवी न पावतो।
रावण के लंकागढ़ ऐसो दृढ़ होवतो तो,
अन्दर किला में रीछ बन्दर न आवतो।
हिंगल होतो गृहराज के जो ऐसो गढ़,
राहु की न परवाह चित्त लावतो।
कृष्ण गढ़ जैसो गढ़ होतो कृष्ण के तो,
छोड़ रण को कदापि रणछोड़ न कहावतो।।
किशनगढ़़ के शासकों की धार्मिक आस्था के केन्द्र बिन्दु वल्लभ सम्प्रदाय तथा भगवान श्री कृष्ण और राधा रहे हैं। इस दुर्ग का कृष्ण मन्दिर वल्लभ सम्प्रदाय के श्रीनाथजी के नाम से जाना जाता है। इस मन्दिर में पुष्टिमार्ग के प्रणेता महाप्रभु वल्लाभाचार्य का एक महत्वपूर्ण चित्र भी उपलब्ध है। दुर्ग के भीतर महाराजा का भव्य महल स्थित है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता