Saturday, September 21, 2024
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अजमेर दुर्ग

अजमेर नगर में दो प्राचीन दुर्ग हैं। पहला दुर्ग तारागढ़ के नाम से जाना जाता है जो कि पहाड़ी पर स्थित है तथा दूसरा दुर्ग इस पहाड़ी की तलहटी में स्ति है। इसका प्राचीन नाम ज्ञात नहीं है किंतु इसे अजमेर दुर्ग कहा जाता है। अकबर ने इसका नाम बदलकर दौलतखाना कर दिया था और अंग्रेजों के काल में यह मैगजीन के नाम से जाना जाता था। अजमेर दुर्ग अजमेर रेल्वे स्टेशन के ठीक पास स्थित है तथा आजकल इसमें राजपूताना म्यूजियम चलता है।

दुर्ग के निर्माता एवं निर्माण काल

 इस दुर्ग के वास्तविक निर्माताओं एवं दुर्ग के निर्माण काल की अब कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। संभवतः चौहानों के काल में इसका निर्माण नहीं हुआ क्योंकि किसी भी चौहान लेख में इसका उल्लेख नहीं है। चूंकि बीठली दुर्ग का मार्ग अत्यंत दुर्गम था तथा रात्रि के समय घोड़ों पर बैठकर वहाँ तक पहुंचना अत्यंत दुष्कर था, इसलिये संभव है कि बेस कैम्प के रूप में किसी काल में इस दुर्ग का निर्माण किया गया हो।

दुर्ग की श्रेणी

यह स्थल दुर्ग का अच्छा उदाहरण है। इसे गढ़ बीठली का सहाय दुर्ग भी कहा जा सकता है। इसके चारों ओर परकोटा था, इसलिये इसे पारिघ दुर्ग भी कहा जा सकता है।

दुर्ग का जीर्णोद्धार एवं पुनर्निर्माण

अबुल फजल के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण (वास्तव में जीर्णोद्धार) ई.1570 में आरम्भ हुआ था और इसे पूरा होने में तीन वर्ष लगे थे। अबुल फजल ने यह भी उल्लेख किया है कि इस स्थान पर अकबर के किला बनाने से पहले भी एक प्राचीन दुर्ग मौजूद था। उसी दुर्ग को अकबर ने दुबारा से बनवाया।

अकबर के ही अनुकरण पर उसके दरबारियों ने इस दुर्ग के आसपास मौजूद अन्य हिन्दू भवनों को दुबारा से मुगलिया शैली में बनवाया जिनके भीतर का भाग हिन्दू शैली का ही बना रहा। ऐसे कुछ भवन आज भी इस दुर्ग के चारों ओर देखने को मिल जायेंगे। अकबर के समय में इसे मुगल किला, अकबर का किला तथा जहांगीर के समय में दौलतखाना आदि नामों से जाना जाता था। ई.1573 के लगभग यह बनकर तैयार हुआ।

दुर्ग का स्थापत्य

ला टाउच की सैटलमेंट रिपोर्ट 1875 के अनुसार- ‘अजमेर स्थित दौलतखाना, एक विशाल चतुर्भुज दुर्गनुमा भवन है जिसे अकबर ने अजमेर नगर के उत्तर में बनवाया था।’ अजमेर नगर की मुगल कालीन शहर पनाह इस दुर्ग से जुड़ी हुई थी। इस शहर पनाह में दिल्ली गेट, आगरा गेट, मदार गेट, उसरी गेट और त्रिपोलिया गेट नामक पांच दरवाजे बने हुए थे। इस दुर्ग के चारों कोनां में एक-एक बुर्ज बनी हुई है।

पश्चिम दिशा में एक सुंदर दरवाजा लगा हुआ है तथा दुर्ग परिसर के ठीक मध्य में मुख्य भवन बना हुआ है। दुर्ग का दरवाजा 84 फुट ऊँचा तथा 43 फुट चौड़ा है। यह दरवाजा नया बाजार की तरफ मुंह करके खड़ा हुआ है। प्राचीन दुर्ग का मुख्य द्वार हिन्दू राजाओं के काल में किसी अन्य दिशा में रहा होगा किंतु वर्तमान दरवाजे का निर्माण जहाँगीर के शासन काल में करवाये जाने के कारण इसे पश्चिम की ओर बनाया गया।

इस दरवाजे के सामने हाथियों की लड़ाई के लिये विशाल मैदान था जिसमें बादशाह के मनोरंजन के लिये और भी कई तरह के आयोजन किए जाते थे। अकबर और जहाँगीर के समय में इस के केन्द्रीय भवन के चारों ओर एक उद्यान भी हुआ करता था जो अब पूरी तरह लुप्त हो चुका है।

मुगल काल में अजमेर दुर्ग

ई.1573 से ई.1579 के बीच अकबर जब भी अजमेर आया, इसी किले में ठहरा। 18 नवम्बर 1613 से 10 नवम्बर 1616 तक जहाँगीर इस किले में रहा। वह नित्य प्राःकाल में इसके मुख्य दरवाजे के झरोखे में बैठकर जनता को दर्शन देता और यहीं से न्याय किया करता था।

इसी किले में 10 जनवरी 1616 को इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम का राजदूत सर टामस रो जहाँगीर की सेवा में उपस्थित हुआ और उसने अपने देश के व्यापारियों के लिये भारत में व्यापार करने की अनुमति प्राप्त की। जहाँगीर द्वारा बनाये गए मुख्य द्वार के शीर्ष भाग पर दो छतरियां हैं जहाँ से अजमेर नगर का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। इन छतरियों के नीचे एक-एक झरोखा तथा जालियां लगी हुई हैं। जब औरंगजेब के पुत्र अकबर ने विद्रोह किया तब औरंगजेब इसी दुर्ग में आकर रहा।

मराठों के अधिकार में

उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में मराठा सूबेदार इसी दुर्ग में रहा करते थे। उन्होंने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप इसकी बनावट में कई बदलाव किये। उस समय आनासागर के तट पर पत्थर के मण्डप के उत्तरी छोर पर पौने तेबीस फुट गुणा पौने बाईस फुट की एक बारादरी बनी हुई थी। उस बारादरी को तोड़कर इस दुर्ग के उत्तरी बुर्ज की छत के ऊपर एक कक्ष बनाया गया जिसे एक मंदिर की तरह काम में लिया जाता था।

जब ई.1818 में अंग्रेजों ने अजमेर लिया तो वे बारादरी के किनारे पर रहने लगे। उन्होंने अकबर के दुर्ग को शस्त्रागार के रूप में काम लेना आरम्भ किया। तब से ही इसे मैगजीन कहने लगे। ई.1863 तक यह मैगजीन के रूप में काम लिया जाता रहा।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकार में

जब ई.1818 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अजमेर नगर खरीदा, तब से यह दुर्ग भी अंग्रेजों के अधिकार में हो गया। कालान्तर में इस किले में अंग्रेजों का शस्त्रागार रहा, इस कारण यह मैगजीन कहलाने लगा। ई.1857 के गदर में ब्रिटिश अधिकारियों के परिवारों ने इस दुर्ग में शरण ली। उन दिनों में इस भवन को पुनः एक दुर्ग के रूप में बदल दिया गया। नया बाजार की तरफ वाला दरवाजा बंद कर दिया गया तथा बुर्जों पर तोपें चढ़ा दी गईं।

दक्षिण की तरफ की दीवार में एक छोटा दरवाजा बनाया गया। यह दरवाजा अब भी देखा जा सकता है। चूंकि किलेबंदी के कारण, इसके भीतर स्थित मंदिर में नित्य पूजा होना संभव नहीं रह गया, इसलिये मंदिर की प्रतिमा को आगरा गेट के निकट लक्ष्मीनारायणजी के मंदिर में स्थानांतरित कर दिया गया। आज भी यह प्रतिमा वहीं रखी है और इसकी नित्य पूजा होती है।

ब्रिटिश क्राउन के अधिकार में

ई.1858 में भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त हो गया तथा ब्रिटिश क्राउन का शासन आरम्भ हुआ। ई.1863 में इस दुर्ग से शस्त्रागार उठा दिया गया तथा इस दुर्ग के केन्द्रीय भवन में जहाँ अकबर रहता था तथा जहाँ टामस रो ने जहाँगीर से भेंट की थी, उस भवन को तहसीलदार का कार्यालय बना दिया गया।

ई.1903 में तहसीलदार के कार्यालय को एक बुर्ज में स्थानांतरित कर दिया गया तथा इसके केन्द्रीय भवन को पुनः उसके मूल रूप में लाने का प्रयास किया गया तथा इसमें राजपूताना संग्रहालय की स्थापना की गई। इस कार्य पर 66,860 रुपये व्यय हुए। 84 फुट ऊँचे तथा 43 फुट चौड़े दरवाजे की भी मरम्मत की गई। इस कार्य पर 5,853 रुपये व्यय किए गये। इस मैगजीन के उत्तर में एक शिव मंदिर है जहाँ अत्यंत प्राचीन काल से मेला लगा करता था।

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय

15 अगस्त 1947 को अजमेर कांग्रेस के अध्यक्ष जीतमल लूणिया ने मैगजीन पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर, अंग्रेजों का राज्य समाप्त होने तथा अजमेर के स्वतंत्र होने की घोषणा की।

राजपूताना म्यूजियम

ई.1902 में लार्ड कर्जन ने अपनी अजमेर यात्रा के समय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल सर जॉन मार्शल को राजपूताने के प्राचीन स्मारकों तथा विभिन्न स्थलों पर बिखरी हुई कलात्मक पुरावस्तुओं को संग्रहीत करने की राय दी। कुछ राज्यों के राजा प्राचीन वस्तुओं को एकत्रित करने के कार्य में आगे आये।

कनिंघम, कार्लेयल, डी. आर. भण्डारकर, आर. डी. बनर्जी जी. एच. ओझा, यू. सी. भट्टाचार्य आदि ने पुरा-सामग्री एकत्रित करने में योगदान दिया। 19 अक्टूबर 1908 को भारत सरकार द्वारा अजमेर के दौलतखाना (मैगजीन अथवा अकबर का किला) में ‘दिल्ली-राजपूताना म्यूजियम’ की स्थापना की गई।

राजपूताना के तत्कालीन एजीजी कॉल्विन ने इस संग्रहालय का उद्घाटन किया। प्रख्यात इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा को इस संग्रहालय का प्रथम क्यूरेटर बनाया गया। इस संग्रहालय में स्थापत्य के नमूने, मूर्तियां, सिक्के, पेटिंग्स, अस्त्र-शस्त्र, सरस्वती कण्ठाभरण मंदिर (ढाई दिन का झौंपड़ा) से प्राप्त विशाल सामग्री, नाटकों की चौकियां, शिलालेख आदि रखे गये। यह संग्रहालय भारत के समृद्ध संग्रहालयों में से एक है।

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