वि.सं.1201 के शिलालेख में लाडनूं को ‘गीणगणो देवरान्’ कहा गया है। पुष्कर के नाग पर्वत की तरह गीणगणोद के द्रोणगिरि की अगम्यता दसवीं सदी तक बनी हुई थी। डॉ. परमेश्वर लाल सोलंकी ने इसे प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट की परीक्षण स्थली माना है तथा पास स्थित बांकापट्टी के अस्वास्थ्यकर वातावरण का कारण अत्यन्त प्राचीनकाल में हुए परमाणु विस्फोट को माना है।
जनश्रुतियों में लाडनूं को बूढ़ी चन्देरी कहा गया है तथा इसे महाभारतकालीन नगरी माना गया है। डॉ. परमेश्वर लाल सोलंकी का मानना है कि यह खंडिल्लपालवंशीय महाजनों का नगर था जो नडूल क्षेत्र के धलोपग्राम की तरह एक स्वात्मनिर्भर (स्वायत्तशासी) इकाई था।
इसमें साढ़े सात पट्टियां (मौहल्ले) थे। मध्यकाल में यह क्षेत्र चौहानों के अधीन था। इनकी एक शाखा में 12वीं सदी के पूर्वार्ध में राणा मोहिल हुआ। मोहिन ने संतन बोहरा को लाडनूं सहित पांच गांव पुरस्कार में दिये। संतन ने कसूंभी में एक शिखरबंध मंदिर और बावड़ी बनवाई। इस मंदिर में संवत् 1239, 1305 और 1380 के लेख हैं। लाडनूं की ईदगाह में पहले संवत् 1162 का एक लेख था जो अब गायब है।
लाडनूं के गढ़ में सं.1010 के लेख से युक्त एक देवली थी, वह भी अब गायब है। इस देवली का लेख इस प्रकार था- ‘(स्वास्तिक) संवत्1010 (भाद्र) पद सुदि 6 सुक्र (दिने) प () ज दुहित्रक (सुव) भोगांगति हुतः।।’ गढ़ के भीतर बने एक कुएं की देवली पर का लेख इस प्रकार है- संवत् 1746 मीत सावण वद 15 श्री रेवतजी (स्त्री) सती (भवत) शुभस्तु।।’
गणेश मंदिर के शिखर पर सं.1424 का एक लेख था, वह भी गायब है।
राणा मोहिल का पुत्र हठड़ (हरदत्त) हुआ। उसका एक शिलालेख जीणमाता मंदिर (सीकर) में लगा हुआ है जो संवत1162 का है। नैणसी के अनुसार हठड़ के बाद बरसी, जालहर, आसल, आहड़, रणसी, सोहणपाल आदि राजा हुए। राणा सोहनपाल की देवली छापर में है जो संवत् 1311 की है।
उसके बाद लोहट, बोबाराव, बेग और माणकराव हुए। माणकराव की पुत्री कोड़मदे का विवाह पूगल के राजकुमार शार्दूल के साथ हुआ। घर लौटते समय राजकुमार शार्दूल चौसल्या तलाई के पास मारा गया। यह स्थान अब कोड़मदेसर कहलाता है। यहाँ लगी देवली पर संवत्1482 का लेख खुदा है।
मााणकराव के पौत्र मेघा की मृत्यु के बाद मोहिलवाटी के टुकड़े हो गये। संवत् 1489 में अरड़कमल ने लाडनूं हस्तगत कर लिया। उसका पुत्र भोजराज और भोजराज का पुत्र जयसिंह हुआ। जयसिंह ने मुस्लिम जोहियाणी से विवाह किया जिसकी संतानें मुस्लिम मोहिल कहलाईं।
जयसिंह ने तेजा सामोर के पुत्र जसुदान को 1500 बीघा कृषि भूमि और 12 बीघा रिहाइशी भूमि प्रदान की। इस दान का ताम्रपत्र सामोर चारणों के पास है। ताम्रपत्र पर संवत् 1544 की तिथि है। इसमें कहा गया है कि ‘धरती बीगा 1500 अखरे पनरासो कसब लाडणूं रै कांकड़ सरह आपणी में दीवी।’
कविराज बांकीदास के अनुसार लाडनूं डाहलिया राजपूतों ने बसाया। उनके बाद जोहिये यहाँ के स्वामी हुए। उनके बाद मोहिल और मोहिलों के बाद राठौड़ों ने यहाँ सत्ता जमाई।
मण्डोर नरेश जोधा ने मोहिलों को परास्त कर लाडनूं तथा मोहिलवाटी पर अधिकार कर लिया तथा यह क्षेत्र अपने पुत्र बीदा को दे दिया। जोधा की हाड़ी रानी चाहती थी कि लाडनूं उसे (रानी को) मिले। अतः जोधा ने बीदा से कहा कि लाडणूं हाड़ी रानी को सौंप दे किंतु बीदा ने लाडनूं देने से मना कर दिया।
इस बीच मोहिलवाटी का पुराना स्वामी बरमल दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी की सेना लेकर मोहिलवाटी पर चढ़ आया। ऐसी स्थिति में बीदा ने अपने भाई बीका (बीकानेर के संस्थापक) से सहायता मांगी। बीका ने अपने पिता जोधा से सहायता मांगी किन्तु बीदा से अप्रसन्न होने के कारण जोधा बीका की सहायता को नहीं आया।
तब बीका ने अपने भाइयों कांधल तथा मांडल को एकत्र करके मोहिलवाटी पर चढ़ाई कर दी। बरमल के साथ बहलोल लोदी की सेना थी, जोहिये भी बरसल के सहायता को आ गये। कांधल का पुत्र बाघा भी बरसल के पक्ष में था।
बीका ने समझा-बुझा कर बाघा को अपने पक्ष में कर लिया। इस प्रकार राठौड़ों ने बीका ने नेतृत्व में मोहिलों तथा तुर्कों से युद्ध किया। इस युद्ध में बीका की विजय हुई और मोहिलवाटी पुनः राठौड़ों के अधीन आ गई।
बीदा के पुत्र बीदावत कहलाये जिन्होंने जोधपुर नरेश को अपना स्वामी मानने के बजाय बीकानेर नरेश को अपना स्वामी माना। इस कारण मोहिलवाटी का क्षेत्र बीकानेर राज्य के अन्तर्गत हो गया। जब मुसलमानों ने सारंग खाँ के नेतृत्व में कांधल को मार डाला तो राव जोधा ने अपने पुत्र कांधल की मृत्यु का बदला लेने अपने पुत्रों बीका, बीदा, दूदा तथा वरसिंह को इकट्ठा करके मुसलमानों पर आक्रमण कर दिया।
झांसला गांव में यह युद्ध लड़ा गया जिसमें राव जोधा की विजय हुई तथा बीका के पुत्र नरा ने सारंग खाँ को मार डाला। जब राठौड़ों की सम्मिलित सेनायें लौटने लगीं तो जोधा ने बीका से लाडनूं मांग लिया। इस प्रकार मोहिलवाटी तो बीकानेर राज्य के अधीन रहा (छापर-द्रोणपुर आदि) जबकि लाडणूं जोधपुर राज्य के अधीन आ गया।
जब जोधपुर राज्य मुगलों के अधीन हो गया तब लाडनूं मुगल साम्राज्य का हिस्सा हो गया। अकबर तथा जहांगीर के फरमानों में इसे ‘लाडनूं परगना’ कहा गया है। अकबर ने लाडणूं की आय दो लाख दाम तथा जहांगीर ने तीन लाख इकतालीस हजार दाम लिखी है।
लाडनूं के बसस्टैण्ड पर अनेक छतरियां बनी हुई हैं जिनमें से सबसे बड़ी छतरी पर सं.1873 वैशाख सुदि 3 का लेख है। इस लेख में महराजाधिराज जयसिंह से लाडनूं का इतिहास दिया गया है और सं.1839 में हुए उमरकोट युद्ध का विवरण है।
दूसरी चार छतरियों में चरणपादुकायें बनी हैं जिन पर सं.1873 और संवत्1980 के लेख हैं। मावलियों की बाड़ी में सं.1835 माह वद 5 का लेखयुक्त स्तंभ है जो चरणपादुका पर बनी छतरी में लगा हुआ है। लाडनूं में स्थित अनेक जैन मंदिरों में विक्रम की 12वीं शदी से लेकर 20वीं सदी तक के लेख लगे हुए हैं।
जिस समय देश को आजादी मिली, लाडनूं ठिकाना जोधपुर राज्य के द्वितीय श्रेणी सरदार के अधीन था। यह सरदार राव जोधा के वंशजों में से था। इस ठिकाने की आय बीस हजार रुपया वार्षिक थी जिसमें से 1600 रुपया कर के रूप में चुकाया जाता था।
यहाँ के अनेक व्यापारी बम्बई, मद्रास, कलकत्ता तथा अन्य बड़े शहरों में व्यापार करते हैं। कस्बे में स्थित राहू कुएं के पास की बावड़ी काफी पुरानी है। चारभुजा मंदिर, हनुमान मंदिर, पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, शांतिनाथ श्वेताम्बर जैन मंदिर भी दर्शनीय हैं। लाडनूं से 4 किलोमीटर पाबोलर में हनुमानजी का प्राचीन मंदिर स्थित है।
इस ब्लॉग में प्रयुक्त सामग्री डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ग्रंथ नागौर जिले का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से ली गई है।



