Thursday, July 25, 2024
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राजस्थान के लोकनृत्य

भारत के प्रदेशों में लोकनृत्यों के मामले में राजस्थान की धरती समृद्ध है। राजस्थान के लोकनृत्य रूपी गुलदस्ते में मारवाड़ के डांडिया एवं घुड़ला, मारवाड़ व मेवाड़ का गैर, शेखावाटी का गींदड़, जालोर का ढोल नृत्य, जसनाथी सिद्धों का अग्नि नृत्य, अलवर-भरतपुर क्षेत्र का बम नृत्य, लगभग पूरे प्रदेश में होने वाले घूमर, चंग, कच्छी घोड़ी डांडिया नृत्य देखते ही बनते हैं।

वनवासियों के लोकनृत्यों में भीलों के गवरी व राई नृत्य, गरासियों के वालर, लूर नृत्य, कूद नृत्य, घूमर, मांदल नृत्य, गूजरों का चरी नृत्य, रामदेवजी के भोपों को तेरहताली नृत्य, पेशेवर लोक नर्तकों का भवाई नृत्य, मीणों, कंजरों, सांसियों, कालबेलियों, गाड़िया लुहारों तथा बणजारों के नृत्य रंग-बिरंगी छटा बिखेरते हैं।

वनवासियों, कंजरों, जोगियों, सांसियों और कालबेलियों के नृत्यों में श्ृंगार रस की प्रधानता होती है तथा इनमें खुलापन अधिक होता है। इनके लोकनृत्यों में कामुकता अधिक होती है तथा कामुक संकेतों के साथ-साथ अंग प्रदर्शन पर भी जोर दिया जाता है। प्रमुख लोकनृत्यों का विवरण इस प्रकार है-

गैर नृत्य

राजस्थान के लोकनृत्य रूपी गुलदस्ते का सबसे चटकीला फूल है- गैर नृत्य। गोल घेरे में इस नृत्य की संरचना होने के कारण यह ‘घेर’ और कालांतर में ‘गैर’ कहा जाने लगा। नृत्य करने वालों को ‘गैरिया’ कहते हैं। यह होली के दूसरे दिन से प्रारंभ होता है तथा 15 दिन तक चलता है।

उन दिनों में मेवाड़ और मारवाड़ में इस नृत्य की धूम मची रहती है। इस नृत्य को देखने से ऐसा लगता है मानो तलवारों से युद्ध चल रहा हो। इस नृत्य की सारी प्रक्रियाएं और पद संचालन तलवार युद्ध और पटेबाजी जैसी लगती हैं।

यह नृत्य वृत्त में होता है और नृत्य करते-करते अलग-अलग मंडल बनाये जाते हैं। यह केवल पुरुषों का नृत्य है। मेवाड़ और बाड़मेर के गैर नृत्य की मूल रचना एक ही प्रकार है किंतु नृत्य की लय, चाल और मण्डल में अंतर होता है। इस नृत्य में जाट, ठाकुर, पटेल, पुरोहित, माली, मेघवाल आदि सभी जातियों के पुरुष भाग लेते हैं। अधिकतर स्थानों पर जातियों के अनुसार गैर टोलियां बनी हुई हैं।

नर्तक सफेद धोती, सफेद अंगरखी तथा सिर पर लाल अथवा केसरिया रंग की पगड़ी बांधते हैं। जालोर आदि क्षेत्रों में नर्तक फ्रॉक जैसी आकृति का एक घेरदार लबादा पहनते हैं तथा कमर में तलवार बांधने के लिये पट्टा भी धारण करते हैं।

गैर नृत्य तीन प्रकार के होते हैं- (1.) आंगे-बांगे की गैर (2.) नागी गैर (सादी गैर) यह दो प्रकार की होती है। (अ.) डण्डियों वाली गैर  (ब.) रूमाल वाली गैर (3.) स्वांगी गैर- नर्तक हाथ में डण्डियां लेकर नृत्य करते हैं। प्रत्येक नर्तक अलग-अलग वेशभूषा में माली, सेठ, सरदार, साधु, आदि का रूप धारण करते हैं। 

गींदड़ नृत्य

यह शेखावाटी का लोकप्रिय नृत्य है। सुजानगढ़, चूरू, रामगढ़, लक्ष्मणगढ़, सीकर और उसके आसपास के क्षेत्रों में होली के दिनों में इस नृत्य के सामूहिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। नगाड़ा इस नृत्य का मुख्य वाद्य होता है। नर्तक अपने हाथों में छोटे डण्डे लिये हुए होते हैं।

नगाड़े की ताल के साथ इन डंडों को परस्पर टकराकर नर्तक नाचते हैं। जैसे-जैसे नृत्य गति पकड़ता है, नगाड़े की ध्वनि भी तीव्र होती है। इस नृत्य में विभिन्न प्रकार के स्वांग भी बनाये जाते हैं जिनमें साधु, शिकारी, सेठ-सेठानी, डाकिया, दुल्हा, दुल्हन आदि प्रमुख हैं। 

चंग नृत्य

राजस्थान के लोकनृत्य रूपी गुलदस्ते में चंग नृत्य प्रमुख है। यह पुरुषों का नृत्य है। इस नृत्य में प्रत्येक पुरुष के साथ चंग (डफ) होता है और वह चंग बजाता हुआ वृत्ताकार में नृत्य करता है। इसमें बांसुरी का प्रयोग भी होता है। इस नृत्य में धमाल तथा होली के गीत गाये जाते हैं।

नर्तक गोल घेरे में चंग बजाता हुआ एक लय के साथ आगे बढ़ता है और चंग बजाता हुआ अपने स्थान पर चक्कर खाता है। इस नृत्य में अंग संचालन देखने योग्य होता है। यह मारवाड़ तथा शेखावाटी क्षेत्र का नृत्य है। नर्तक चूड़ीदार पायजामा-कुर्ता धारण करते हैं। कमर में रूमाल तथा पांवों में घुंघरू बांधे जाते हैं।

डांडिया नृत्य

यह मारवाड़ का लोकप्रिय नृत्य है। यों तो गैर, गींदड़ और डांडिया तीनों ही नृत्य वृत्ताकार हैं और इनमें डण्डी का प्रयोग होता है, तीनों ही नृत्य होली के अवसर पर आयोजित होते हैं और इनमें केवल पुरुष ही भाग लेते हैं किंतु पद संचालन, भाव भंगिमा, ताल, गीत और वेशभूषा आदि में तीनों ही अलग-अलग हैं।

इस नृत्य में पुरुषों की टोली हाथ में लंबी छड़ियां लेकर नाचती है। इसमें शहनाई और नगाड़ा बजाया जाता है। नर्तक आपस में डांडिया टकराते हुए नृत्य करते हैं। होली के बाद आरंभ होने वाले इस नृत्य में नर्तक राजा-रानी, राम-सीता, शिव-पार्वती, कृष्ण-राधा आदि का वेश धरकर नृत्य करते हैं।

ढोल नृत्य

यह जालोर का प्रसिद्ध नृत्य है। यह भी पुरुषों द्वारा ही किया जाता है। इसमें एक साथ चार या पाँच ढोल बजाये जाते हैं। इसमें पहले मुखिया ढोल बजाता है फिर अन्य नर्तक मुँह में तलवार, हाथों में डण्डे तथा रूमाल लेकर नृत्य करते हैं। यह नृत्य प्रायः विवाह के अवसर पर किया जाता है। नृत्य के दौरान ढोल को थाकना शैली में बजाया जाता है। थाकना के बाद अलग शैलियों में भी ढोल वादन होता है। यह नृत्य ढोली, माली, सरगरा तथा भील आदि जातियों में अधिक होता है।

अग्नि नृत्य

राजस्थान के लोकनृत्य रूपी बगिया की एक और अनूठी विशेषता है अग्नि नृत्य। धधकते हुए अंगारों पर किया जाने वाला यह नृत्य जसनाथी संप्रदाय के सिद्ध लोग करते हैं। इसका उद्गम क्षेत्र बीकानेर जिले का कतरियासर ग्राम माना जाता है। यह नृत्य रात्रि में आयोजित होता है।

इस नृत्य में नर्तक अंगारों के ढेर में प्रवेश करते हैं और नाचते हुए निकलते हैं। इतना ही नहीं नर्तक अंगारों को हाथ में उठा लेते हैं तथा मुँह में भी डाल लेते हैं। कभी-कभी अंगारों को झोली में भरकर नाना प्रकार के करतब किये जाते हैं। नर्तक अग्नि से इस प्रकार खेलते हैं मानो अंगारों से नहीं फूलों से खेल रहे हों। यह नृत्य भी पुरुषों द्वारा ही किया जाता है।

बमरसिया नृत्य

यह अलवर और भरतपुर क्षेत्र का नृत्य है। इस नृत्य में एक बड़े नगाड़े का प्रयोग किया जाता है। इसे दो आदमी डंडों की सहायता से बजाते हैं और नर्तक रंग-बिरंगे फूंदों तथा पंखों से बंधी लकड़ी हाथों में लेकर हवा में उछालते हुए नाचते हैं। वाद्ययंत्रों में नगाड़े के अलावा थाली, चिमटा, ढोलक, मंजीरा और खड़तालों का प्रयोग किया जाता है।

नृत्य के साथ होली के गीत और रसिया गाया जाता है। बम (नगाड़े) के साथ रसिया गाने से इसे बम रसिया कहते हैं। इस नृत्य को नयी फसल आने की प्रसन्नता में किया जाता है। बम नृत्य के दौरान गिलास के ऊपर थाली रखकर बजायी जाती है।

घूमर नृत्य

यह समूचे राजस्थान का लोकप्रिय नृत्य है। यह नृत्य मांगलिक अवसरों तथा पर्वों पर आयोजित होता है। यह महिलाओं का नृत्य है। स्त्रियाँ जब आकर्षक पोषाकें विशेषकर घुमावदार घाघरा पहनकर तथा चक्कर लेकर गोल घेरे में नृत्य करती हैं तो उनके लहंगों का घेर और हाथों का लचकदार संचालन देखते ही बनता है। घूमर के साथ अष्टताल कहरवा लगाया जाता है जिसे सवाई कहते हैं। इसे अनेक घूमर गीतों के साथ मंच पर भी प्रस्तुत किया जाता है। 

तेरहताली नृत्य

यह कामड़ जाति का अनोखा नृत्य है। यह नृत्य बैठकर किया जाता है। इसमें स्त्रियां अपने हाथ-पैरों में मंजीरे बांध लेती हैं और फिर दोनों हाथों से डोरी से बंधे मंजीरों को दु्रतगति की ताल और लय से शरीर पर बंधे मंजीरों पर प्रहार करती हुई विविध प्रकार की भाव-भंगिमायें प्रदर्शित करती हैं। यह चंचल और लचकदार नृत्य देखते ही बनता है। पुरुष तंदूरे की तान पर मुख्यतः रामदेवजी के भजन गाते हैं।

भवाई नृत्य

राजस्थान के लोकनृत्य रूपी बगीचे को यह नृत्य अलग ही रंग एवं सुगंध प्रदान करता है। यह नृत्य अपनी चमत्कारिता के लिये अधिक प्रसिद्ध है। इस नृत्य में विभिन्न शारीरिक करतब दिखाने पर अधिक बल दिया जाता है। यह उदयपुर संभाग में अधिक प्रचलित है।

अनूठी नृत्य अदायगी, शारीरिक क्रियाओं के अद्भुत चमत्कार तथा लयकारी विविधता इसकी मुख्य विशेषतायें हैं। तेज लय में सिर पर सात-आठ मटके रखकर नृत्य करना, जमीन से मुँह से रूमाल उठाना, गिलासों पर नाचना, थाली के किनारों पर, तलवार की धार पर, कांच के टुकड़ों पर और नुकीली कीलों पर नृत्य करना इस नृत्य की विशेषतायें हैं।

घुड़ला नृत्य

घुड़ला नृत्य मुख्यतः मारवाड़ में तथा अल्प मात्रा में सम्पूर्ण राजस्थान में किया जाता है। यह स्त्रियों के द्वारा किया जाने वाला सामूहिक नृत्य है। स्त्रियां छिद्र युक्त मटके सिर पर रखकर उसमें दिये जलाती हैं। नृत्य के दौरान घूमर तथा पणिहारी के अंदाज में गोल चक्कर बनाया जाता है। यह नृत्य गणगौर पर्व के आसपास किया जाता है।

कच्छी घोड़ी नृत्य

कच्छी घोड़ी नृत्य शेखावाटी क्षेत्र का नृत्य है किंतु अब सम्पूर्ण प्रदेश में किया जाता है। इस नृत्य में पुरुष ही भाग लेते हैं। नर्तक बांस की टोकरियों को घोड़ी की आकृति देता है तथा उस पर घोड़े की आकृति का कपड़े का खोल चढ़ा दिया जाता है। नर्तक इसके बीच में से घुसकर खड़ा होकर नृत्य करता है। देखने वाले को लगता है कि नर्तक घोड़ी पर बैठा है।

वालर नृत्य

यह गरासियों का नृत्य है। गणगौर त्यौहार के दिनों में गरासिया स्त्री-पुरुष अर्द्धवृत्ताकार में धीमी गति से बिना किसी वाद्य के नृत्य करते हैं। यह नृत्य डूंगरपुर, उदयपुर, पाली व सिरोही क्षेत्रों में प्रचलित है।

लांगुरिया नृत्य

लांगुरिया हनुमानजी का लोक स्वरूप है। करौली क्षेत्र की कैला मैया, हनुमानजी की माँ अंजना का अवतार मानी जाती हैं। नवरात्रियों के दिनों में करौली क्षेत्र में लांगुरिया नृत्य होता है। इसमें स्त्री-पुरुष सामूहिक रूप से भाग लेते हैं। नृत्य के दौरान नफीरी तथा नौबत बजती है। लांगुरिया को संबोधित करके हल्के-फुल्के हास्य-व्यंग्य किये जाते हैं।

इण्डोणी

यह कालबेलियों का युगल नृत्य है जो गोल घेरे में होता है। इसमें पुंगी तथा खंजरी का प्रयोग होता है। नर्तक युगल कामुकता का प्रदर्शन करने वाले कपड़े पहनते हैं।

मांदल

यह कोटा क्षेत्र का नृत्य है। इसे गरासिया जाति की स्त्रियां गोल घेरा बनाकर करती हैं। इस पर गुजराती गरबे का प्रभाव है। इसमें थाली व बांसुरी का प्रयोग होता है।

गवरी नृत्य

यह भीलों का सामाजिक एवं धार्मिक नृत्य है। डूंगरपुर-बांसवाड़ा, उदयपुर, भीलवाड़ा एवं सिरोही आदि क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है। यह गौरी पूजा से सम्बद्ध होने के कारण गवरी कहलाता है। इसमें नतृक नाट्य कलाकारों की भांति अपनी साज-सज्जा करते हैं।

डांग नृत्य

यह मेवाड़ के नाथद्वारा क्षेत्र में किया जाने वाला नृत्य है। इसे स्त्री-पुरुष साथ-साथ करते हैं। पुरुषों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की एवं स्त्रियों द्वारा राधाजी की नकल की जाती है तथा वैसे ही वस्त्र धारण किये जाते हैं। यह होली के अवसर पर किया जाता है। इस नृत्य के समय ढोल, मांदल तथा थाली आदि वाद्यों का प्रयोग किया जाता है।

पणिहारी नृत्य

यह कालबेलियों का नृत्य है जिसमें स्त्री एवं पुरुष दोनों मिलकर नृत्य करते हैं। इस समय पणिहारी गीत गाये जाते हैं।

शंकरिया नृत्य

यह भी कालबेलियों का युगल नृत्य है। यह प्रेम कथाओं को आधार बनाकर किया जाता है। इस नृत्य का अंग लास्य कामुकता से भरा होता है।

बागड़िया नृत्य

यह नृत्य कालबेलिया स्त्रियों द्वारा भीख मांगते समय किया जाता है। साथ में चंग बजाया जाता है।

नेजा नृत्य

यह नृत्य होली के तीसरे दिन भील स्त्री-पुरुषों द्वारा युगल रूप में किया जाता है। पाली, सिरोही, उदयपुर एवं डूंगरपुर आदि जिलों में यह अधिक प्रचलित है।

युद्ध नृत्य

इस नृत्य में भील जाति के पुरुष हाथ में तलवार लेकर युद्ध कला का प्रदर्शन करते हैं। यह नृत्य उदयपुर, पाली, सिरोही व डूंगरपुर क्षेत्र में अधिक प्रचलित है।

नृत्यों की इस विशाल शृंखला को देखते हुए यह अनुमान लगाया जाना सहज हो जाता है कि राजस्थान के लोकनृत्य निराले हैं, अनूठे हैं तथा पूरे प्रदेश को विशिष्टता प्रदान करने वाले हैं।

विभिन्न विशेषताओं के आधार पर राजस्थान के लोकनृत्यों का वर्गीकरण

भीलों के नृत्य: गवरी, राई, गैर, घूमर, नेजा एवं युद्ध नृत्य आदि।

कालबेलियों के नृत्य: इण्डोणी, शंकरिया, पणिहारी, बागड़िया आदि।

गरासियों के नृत्य: मांदल, गरबा, घूमर, गैर व लूर आदि।

गूजर जाति के नृत्य: चरी नृत्य।

शेखावाटी के नृत्य: गींदड़, चंग, डांडिया, कच्छी घोड़ी आदि।

मारवाड़ के नृत्य: डांडिया, गैर, घुड़ला, तेरह ताली, घूमर, लूर, अग्नि नृत्य, ढोल नृत्य।

अलवर-भरतपुर क्षेत्र के नृत्य: बमरसिया।

गृहस्थों द्वारा किये जाने वाले नृत्य: पणिहारी, मेंहदी, दीपक नृत्य, टूटिया, गौरी।

होली के नृत्य: चंग, गैर, डांडिया, गींदड़, नेजा, बमरसिया एवं डांग नृत्य आदि।

व्यावसायिक नृत्य: गवरी, राई, गैर, घूमर, नेजा एवं युद्ध नृत्य आदि।

-डॉ. मोहन लाल गुप्ता

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