राजस्थान के पाण्डुलिपि भण्डार राजस्थान के इतिहास की प्राचीन सामग्री उपलब्ध करवाते हैं। यह सामग्री संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओं में मिलती है। पृथ्वीराज विजय महाकाव्यम् संस्कृत भाषा और कुवलय माला प्राकृत भाषा के अच्छे उदाहरण हैं। उसके बाद मध्यकाल की सामग्री संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी तथा अरबी-फारसी भाषा के ग्रंथों में प्राप्त होती है।
राजस्थानी भाषा में लिखे गये ग्रंथ- प्रबंध, ख्यात, वंशावली, वचनिका, गुटके, बेलि, बात, वार्ता, नीसाणी, कुर्सीनामा, झूलणा, झमाल, छप्पय, कवित्त, गीत तथा विगत आदि नामों से प्राप्त होते हैं। कान्हड़दे प्रबंध प्राचीन डिंगल भाषा का अच्छा उदाहरण है।
अरबी फारसी ग्रंथों में विभिन्न लेखकों द्वारा लिखी गई पुस्तकें- तारीख, तबकात, अफसाना आदि के रूप में मिलती हैं। फरिश्ता की लिखी तारीखे फरिश्ता, जियाउद्दीन बरनी की तारीखे फीरोजशाही, अमीर खुसरो की तुगलकनामा, अबुल फजल की आइने अकबरी तथा अकबरनामा, बाबर की लिखी तुजुक ए बाबरी, जहाँगीर की लिखी तुजुक ए जहाँगीरी, गुलबदन की लिखी हुमायूंनामा, आदि प्रमुख अरबी फारसी पुस्तकें हैं।
रियासती काल में विभिन्न रियासतों के शासकों द्वारा समय-समय पर जारी किये गये फरमान, रुक्के, खरीते, तहरीरें तथा पट्टे भी तत्कालीन इतिहास जानने के प्रमुख स्रोत हैं।
राजस्थान के पाण्डुलिपि भण्डार अन्य सामग्री के साथ-सथ ब्रिटिश शासन काल में प्रकाशित किये गये गजेटियर, एडमिनिस्ट्रेटिव रिपोर्ट्स, सेंसस (जनगणना), सैटमेंट्स, सर्वे, मेडिकल हवाला, पत्राचार की पत्रावलियां, कोर्ट्स के फैसले, अखबारों की कतरनें, पुलिस डायरियां, फेमीन रिपोर्ट्स, टाउन प्लानिंग रिपोर्ट्स आदि का समृद्ध संसार संजोए हुए हैं। इस सामग्री से ब्रिटिश काल के इतिहास को जानने में सहायता मिलती है।
राजस्थान के पाण्डुलिपि भण्डार – राजस्थान राज्य अभिलेखागार
राजस्थान की स्थापना के बाद इतिहास की लिखित सामग्री को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से राजस्थान के पाण्डुलिपि भण्डार अस्तित्व में आए। राजस्थान में ई.1955 में राजस्थान राज्य अभिलेखागार की स्थापना की गयी। इस विभाग का मुख्यालय बीकानेर में तथा शाखायें जयपुर, कोटा, उदयपुर, अलवर, भरतपुर एवं अजमेर में स्थित हैं।
इन अभिलेखागारों में ऐतिहासिक, प्रशासनिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दृष्टि से उपयोगी एवं दुर्लभ सामग्री संग्रहीत है। इस सामग्री में मुगलकाल और मध्यकाल के अभिलेख, फरमान, निशान, मंसूर, पट्टा, परवाना, रुक्का, बहियां, अर्जियां, खरीता, पानड़ी, तोजी दो वरकी, चौपनिया, पंचांग आदि उपलब्ध हैं। यह सामग्री उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत, डिंगल, पिंगल, ढूंढाड़ी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, गुजराती, मराठी एवं हाड़ौती आदि भाषाओं में लिखी हुई है।
बीकानेर अभिलेखागार के प्राविधिक खण्ड में 21 राज्यों के अभिलेख 7 संचय शालाओं में सुरक्षित किये गये हैं। जयपुर राज्य के अभिलेख ई. 1622 से 1743 तक उर्दू एवं फारसी में तथा ई. 1830 से 1949 तक के अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं। जोधपुर राज्य के अभिलेख ई. 1643 से 1956 तक के मारवाड़ी भाषा में तथा ई. 1890 से 1952 तक अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं।
कोटा राज्य के अभिलेख ई. 1635 से 1892 तक हाड़ौती भाषा में उपलब्ध हैं। उदयपुर राज्य के अभिलेख ई. 1884 से 1949 तक मेवाड़ी भाषा में तथा ई. 1862 से 1947 तक अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं। बीकानेर राज्य के अभिलेख ई. 1625 से 1956 तक की अवधि के हैं।
ये मारवाड़ी, उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी में उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त अलवर, किशनगढ़, बूंदी, सिरोही, भरतपुर, झालावाड़, कुशलगढ़ तथा करौली आदि रजवाड़ों के 19वीं एवं 20वीं शताब्दी के अभिलेख सुरक्षित हैं।
अंग्रेजी शासन के दौरान अजमेर के कमिश्नर एवं चीफ कमिश्नर के कार्यालयों के अभिलेख ई. 1818 से लेकर 1956 तक की अवधि के हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के समय प्रजातांत्रिक मांगों को लेकर बनी प्रजापरिषदों एवं प्रजामंडलों के अभिलेख और ई. 1909 से लेकर बाद के समय की समाचार पत्रों की 3000 से अधिक कतरनें भी यहाँ रखी हुई हैं।
मौखिक इतिहास खंड में स्वतंत्रता सेनानियों से लिये गये 216 साक्षात्कार उन्हीं की आवाज में ध्वन्यांकित कर रखे गये हैं। पुस्तकालय खंड में भूतपूर्व रियासतों के गजट, बजट, प्रशासनिक प्रतिवेदन, जनगणना एवं अन्य महत्त्वपूर्ण संदर्भ पुस्तकें उपलब्ध हैं। एक अनुमान के अनुसार बीकानेर के अभिलेखागार में रखे गये दस्तावेजों को यदि धरती पर लम्बाई में फैलाया जाये तो उनकी लम्बाई पाँच लाख फुट होगी।
राजस्थान के पाण्डुलिपि भण्डार राज्य अभिलेखागार की उदयपुर शाखा की बख्शीशाला में ताम्रपत्रों की बही दर्शनीय है। इस बही में 1838 ई. में 1294 ताम्रपत्रों के नवीनीकरण करने का उल्लेख है। इन 1294 ताम्रपत्रों में से 1138 ताम्रपत्रों को गोरधनजी ने तथा 156 ताम्रपत्रों को रतना ने खोदा था। ये ताम्रपत्र महाराणा लाखा के काल से आरंभ होकर महाराणा भीमसिंह (ई. 1828) तक के हैं।
अभिलेखागार की कोटा शाखा सूरज पोल स्थिल झाला हाउस में है। इसके तीन मंजिले भवन में कोटा रियासत का 300 वर्ष पुराना अभिलेख विद्यमान है। ये अभिलेख राजस्थान की सबसे कठिन मानी जाने वाली हाड़ौती भाषा में लिखा हुआ है।
राज्य में राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन के अंतर्गत प्राचीन एवं दुर्लभ ग्रंथों की खोज का काम चल रहा है। इसके तहत नवम्बर 2009 तक राज्य अभिलेखागार ने 21 जिलों में साढ़े सात लाख प्राचीन ग्रंथ खोजे गये हैं। ये ग्रंथ अभिलेखागार में रखे गये हैं। 11 जिलों में सर्वे का काम अभी किया जाना है।
राजस्थान के पाण्डुलिपि भण्डार – प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान
मध्यकालीन राजस्थान में असंख्य पाण्डुलिपियां संस्कृत, प्राकृत, अपभं्रश, पाली तथा राजस्थानी भाषाओं में विविध विषयों पर लिखी गयीं। वेद, धर्मशास्त्र, पुराण, दर्शन, ज्योतिष, गणित, काव्य, आयुर्वेद, इतिहास, आगम, व्याकरण, तंत्र, मंत्र आदि की पाण्डुलिपियों का लेखन, अलंकरण तथा चित्रण करवाकर व्यक्तिगत संग्रह में संरक्षण की परंपरा पिता से पुत्र को विरासत में मिलती रही और समृद्ध होती रही।
पाण्डुलिपियों का यह संग्रह पोथी खाना कहा जाता था। इन पोथियों के संग्रहण के लिये ई.1955 में राज्य में प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान की स्थापना की गई। इसका मुख्यालय जोधपुर में रखा गया। ई.1961-62 में राजस्थान के विस्तृत क्षेत्र में विकीर्ण सामग्री के संरक्षण की आवश्यकता की दृष्टि से बीकानेर, कोटा, अलवर, उदयपुर, चित्तौड़ में उपशाखाओं की स्थापना की गयी।
टोंक में अरबी और फारसी ग्रंथों के संरक्षण के लिये कार्यालय स्थापित हुआ जो अब स्वतंत्र संस्थान के रूप में कार्यरत है।
जोधपुर मुख्यालय
जोधपुर संग्रह में राजस्थानी भाषा के गुटके, बेलि, बात, प्रेमाख्यान, मीरां की पदावली, नरसी जी रो मायरो, राजस्थानी के वीर गीत आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें से अनेक चित्रित एवं अलंकृत पाण्डु लिपियां इस प्रतिष्ठान की अमूल्य निधि हैं। अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दी में लिखित बेलि क्रिसन रुकमणि री, कृष्णलीला गुटका, दोहा संयोग सिणगार रा, ढोला मरवण कथा, फूलजी फूलमती री बात और माधवानल कामकंदला चित्रित पाण्डुलिपियां हैं।
बेलि क्रिसन रुकमणि अकबर के दरबारी कवि पृथ्वीराज राठौड़ ने सन् 1580 में की थी। इसकी सचित्र प्रति 19वीं शताब्दी की जोधपुर शैली में उपलब्ध है। ताड़पत्र, चर्मपत्र तथा कागज पर चित्रित हस्त लिखित ग्रंथों की संख्या लगभग 1500 है। इनमें श्रीमद्भागवत्, देवी माहात्म्य, कालकाचार्य कथा दक्षिण भारतीय शैली में है। चर्मपत्र पर आर्य महाविद्या नामक बौद्ध ग्रंथ पाल शैली में चित्रित है। पश्चिमी भारतीय या जैन शैली में चित्रित कल्पसूत्र के अनेक पात्र और ग्रंथ हैं जिनमें प्राचीनतम 1485 वि. सं. का है।
धर्मशास्त्र, नाटक साहित्य, गद्य-पद्य साहित्य संगीत शास्त्र ज्योतिष के ग्रंथ महत्त्वपूर्ण हैं। हिंदी तथा राजस्थानी में राम स्नेही, नाथ संप्रदाय तथा दादू पंथी संप्रदायों के ग्रंथ प्रचुर संख्या में उपलब्ध हैं। इस संग्रह में कुल 40,988 हस्त लिखित ग्रंथ, 981 प्रतिलिपियां तथा 273 फोटो प्रतियां संग्रहीत हैं। फोटो प्रतियां जैन ज्ञान भण्डार जैसलमेर से प्राप्त की गयी हैं। प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के ई.1958 में जोधपुर स्थानांतरण होने के बाद उपशाखाओं में भी ग्रंथ अधिग्रहण तथा संरक्षण का कार्य आरंभ हुआ।
बीकानेर शाखा
गंगागोल्डन जुबली क्लब के स्टेडियम के पास प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान द्वारा निर्मित भवन में बीकानेर उपशाखा स्थित है। यहाँ ग्रंथों की संख्या 19,839 है। जोधपुर के बाद यह दूसरा महत्त्वपूर्ण संग्रह है। इस संग्रह की स्थापना जैन आचार्य एवं भक्तों के व्यक्तिगत संग्रहों के दान से हुई थी। इसमें मोतीचंद खजाँची संग्रह तथा जिनचंद्र सूरि संग्रह महत्त्वपूर्ण हैं। इन संग्रहों के सूची पत्र प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित किये जा चुके हैं। यहाँ के अधिकांश ग्रंथ जैन धर्म के हैं। जैनेत्तर ग्रंथों में न्याय व वेदांत के ग्रंथ महत्त्वपूर्ण हैं।
चित्तौड़ शाखा
चित्तौड़ शाखा के संग्रह का निर्माण वर्ष 1962-63 में मुनि जिन विजय के प्रयासों से हुआ था। चित्तौड़ दुर्ग को जाने वाली सड़क पर यह शाखा स्थित है।
श्री लादूराम दुधाड़िया, बी. आर. चौधरी, आर्य मगनजी छगनूजी, बंशीलाल दाधीच, मुनि कांति सागर तथा संतोष यति के व्यक्तिगत संग्रहों से दान में प्राप्त पाण्डुलिपियों से इस संग्रह का निर्माण हुआ है। ये पाण्डु लिपियां संस्कृत, प्राकृत, हिंदी एवं राजस्थानी भाषा की हैं। संस्कृत प्राकृत ग्रंथों के दो सूची पत्र तथा हिंदी-राजस्थानी ग्रंथों का एक सूची पत्र प्रकाशित किया जा चुका है। यहाँ साहित्य ज्योतिष, भक्ति तथा जैन धर्म के 5,426 ग्रंथ उपलब्ध हैं।
जयपुर शाखा
जयपुर शाखा का कार्यालय पुराने विधानसभा भवन के सामने श्री रामचंद्रजी मंदिर में स्थित है। वर्ष 1958 से निरंतर पाण्डुलिपियों एवं पुस्तकों का अधिग्रहण जयपुर के प्रमुख व्यक्तियों एवं संग्रहालयों से किया गया है। इनके सूचीपत्र क्रमशः 1966 तथा 1984 में प्रकाशित हुए।
अधिग्रहण किये गये संग्रहों में महाराजा पब्लिक लाइब्रेरी के 1608 हस्तलिखित ग्रंथ तथा व्यक्तिगत संग्रहों में श्री रामकृपालु शर्मा, हरिनारायण विद्याभूषण, विश्वनाथ शारदानंदन, बद्री नारायण फोटोग्राफर तथा जिन धरणेंद्र सूरि के उपासरे के संग्रह सम्मिलित हैं।
जयपुर शाखा में लगभग 12,000 ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में धर्मशास्त्र एवं ऐतिहासिक प्रशस्तियां महत्त्वपूर्ण हैं। संस्कृति साहित्य तथा संगीत की दृष्टि से ईश्वर विलास महाकाव्य, संगीत रघुनंदन तथा रागमंजरी उल्लेखनीय हैं। प्रकाशित ग्रंथों में कृष्ण भट्ट का ईश्वर विलास महाकाव्य, जयदेव का घटकर्पूर महाकाव्य, सूत्रधार मण्डन कृत प्रासाद मण्डन और राज वल्लभ महत्त्वपूर्ण हैं। इतिहास एवं संस्कृति के स्रोत के रूप में प्रशस्तियां, कछवाहा राजा मानसिंह के शिला लेख, ग्वालियर दुर्ग के शिला लेख, बालादित्य के शिला लेख महत्त्वपूर्ण हैं।
अलवर शाखा
अलवर की शाखा का प्रांरभ ई. 1840 में अलवर के महाराज विनय सिंह के आश्रय में हुआ था। महाराज के संग्रह से ही इस शाखा का प्रारंभ किया गया। इस संग्रह में अधिकांश ग्रंथ संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के हैं। यह शाखा वैदिक एवं दर्शन साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के लिये उल्लेखनीय हैं।
ऋग्वेद की अब तक अज्ञात आश्वलायन तथा शाखायन संहिता पाठ, गृह्य सूत्र की टीका, न्याय एवं मीमांसा के ग्रंथ इस केंद्र की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हैं। संस्कृत साहित्य के ग्रंथों में गीत गोविंद की व्याख्या, फाल्गुन शतक, मृगांक शतक तथा नये संस्कृत नाटकों में मुक्ता चरित्र नाटक, रामाभ्युदय नाटक, हृदय विनोद प्रहसन आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त अलंकार एवं छंद शास्त्र के ग्रंथ भी संग्रहीत हैं। इस संग्रह का सूची पत्र प्रकाशित किया जा चुका है।
कोटा शाखा
प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान की कोटा शाखा दुर्ग के अंदर स्थित है। इस शाखा का कार्य कोटा राज्य के सरस्वती पुस्तकालय तथा झालावाड़ राज्य के पुस्तकालयों से पाण्डुलिपियांे के स्थानांतरण से आरंभ हुआ। इसमें अधिकांश ग्रंथ संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के हैं। यह संग्रह पुराण साहित्य के संग्रह के लिये प्रसिद्ध है। कोटा में वल्लभ संप्रदाय के मथुरेशजी का स्थान होने से इस संग्रह में स्रोत साहित्य तथा वल्लभ मत का अणुभाष्य विपुल मात्रा में है। इसके अतिरिक्त साहित्य में सान्द्रकुतूहल नाटक, कीर्ति कौमुदी, नृसिंह चम्पू आदि संस्कृत रचनायें हैं।
उदयपुर शाखा
उदयपुर राजमहल के सरस्वती भण्डार के ग्रंथों के स्थानांतरण से इस शाखा का प्रारंभ वर्ष 1961-62 में हुआ। स्थानांतरण के अतिरिक्त क्रय द्वारा भी यहाँ ग्रंथों का अधिग्रहण किया गया। डॉ. ब्रजमोहन जावलिया के प्रयत्नों से रविशंकर देराश्री के बहुमूल्य ग्रंथ इस संग्रह के लिये प्राप्त किये गये। जावलिया ने संग्रह का सूचीपत्र प्रकाशित किया।
इस संग्रह में जीवंधर कृत अमरसार, रणछोड़ भट्ट के अमरकाव्य और राजप्रशस्ति, रघुनाथ कृत जगतसिंह काव्य, सदाशिव नागर का राजरत्नाकर महाकाव्य साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। राजस्थानी भाषा के ग्रंथों में रासो ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
उदयपुर संग्रह में सरस्वती भण्डार से प्राप्त सचित्र पाण्डुलिपियां महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। महात्मा हीरानंद द्वारा लिखी गयी तथा मनोहर साहिबदीन तथा कुछ अन्य चित्रकारों द्वारा चित्रित की गयी दूसरी महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपि मतिराम विरचित रसराज है।
रीतिकालीन परंपरा में लिखे गये इस ग्रंथ में मतिराम ने शृंगार रस एवं नायिका भेद के उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इस चित्रित ग्रंथ में 12 चित्रित पृष्ठ हैं। एक अन्य महत्त्वपूर्ण चित्रित पाण्डुलिपि विक्रम संवत् 1780 की गीत गोविंद है। स्पष्ट एवं सुंदर देवनागरी में लिखी गयी इस पाण्डुलिपि में 108 पृष्ठ और 34 दृष्टांत चित्रित हैं।
राजस्थान के पाण्डुलिपि भण्डार – अरबी-फारसी शोध संस्थान
टोंक के अरबी-फारसी शोध संस्थान में अरबी एवं फारसी भाषा की पुस्तकों का दुर्लभ संग्रह है। इसकी स्थापना ई. 1978 में हुई। यहाँ रखी गयी पुस्तकों में औरंगजेब की लिखी आलमगिरी कुरान तथा शाहजहाँ द्वारा लिखवाई गयी ‘कुराने कमाल’ दुर्लभ पुस्तकें हैं।
इस प्रकार राजस्थान के पाण्डुलिपि भण्डार इतिहास लेखन के लिए अमूल्य सामग्री उपलब्ध करवाते हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता