राजस्थान की मध्यकालीन साहित्य रचना परम्परा में सिलोका, झूलना, वचनिका, ख्यात, निसाणी, दूहा, रूपक, आदि विधाएं तो अपना विशिष्ट स्थान रखती ही हैं किंतु राजस्थानी दवावैत भी कुछ कम नहीं।
इस विधा के शिल्प-विधान का जादू भी अठारहवीं सदी के डिंगल रचनाकारों के सिर चढ़कर बोला। अरबी भाषा में एक विशेष प्रकार के छन्द को ‘बैत’ कहा जाता है। एनसाइक्लोपीडिया ऑफ इण्डियन लिट्रेचर के अनुसार दवावैत मिसरों का वह युग्म है जिसके तुक मिलते हैं और कहीं-कहीं नहीं भी मिलते हैं। इस छन्द में मिसरों की कोई सीमा नहीं है।
भारतीय इतिहास के मध्यकाल में दवावैत छन्द का प्रयोग संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और उर्दू भाषाओं के अनेक कवियों एवं रचनाकारों द्वारा किया गया।
माना जा सकता है कि मुगलों के प्रभाव से जिस प्रकार राजस्थान की शिल्पकला, चित्रकला, संगीतकला, नृत्यकला, वस्त्र विधान एवं नगर निर्माण में अरबी एवं फारसी विधाओं का संकरण (अपमिश्रण) हुआ उसी प्रकार मुगल रचनाकारों के प्रभाव से संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और उर्दू भाषाओं सहित डिंगल में भी दवावैत आ गया।
सम्भवतः नूतन साहित्यक प्रयोगों में रुचि रखने वाले डिंगल लेखकों ने डिंगल में दवावैत का अनुकरण किया। आधुनिक काल के लेखक लल्लूलाल के प्रेमसागर तथा उर्दू के बहारबोखजां एवं नौवतन आदि ग्रंथों में भी दवावैत विधा के दर्शन किये जा सकते हैं।
डिंगल छन्द-शास्त्रियों में इस बात को लेकर गहरा विवाद छिड़ा कि दवावैत विधा छन्द है भी कि नहीं। डिंगल के कतिपय विख्यात छन्द-शास्त्रियों ने इसे सहर्ष एक स्वतंत्र छन्द-विधा स्वीकार किया है तो कुछ विद्वानों ने दवावैत को गद्य की अंत्यानुप्रास मय चाल मानते हुए इसे स्वतंत्र छन्द स्वीकार करने में हिचकिचाहट दिखाई है, यहाँ तक कि नकार भी दिया है।
रघुनाथ रूपक तथा रघुवर जसप्रकाश जैसे प्रसिद्ध छन्द शास्त्रों के रचयिताओं ने दवावैत को स्वतंत्र छन्द मानते हुए इसके कई उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।
रघुनाथ रूपक के सम्पादक महताबचन्द खारेड़ ने मन्छाराम से असहमति व्यक्त करते हुए दवावैत को किसी प्रकार का छन्द न मानकर विशिष्ट प्रकार का तुकान्त गद्य माना है। उनके अनुसार- ‘यह कोई छन्द नहीं है जिसमें मात्राओं, वर्णों अथवा गणों का विचार हो। यह अंत्यानुप्रास मय गद्य चाल है।
कुछ छन्द-शास्त्रियों के अनुसार दवावैत, अंत्यानुप्रास या मध्यानुप्रास या सानुप्रास या किसी प्रकर यमक लिया हुआ गद्य का प्रकार है। यदि इन विद्वानों का मत स्वीकार किया जाये तो हमें दवावैत रचनाओं को अलंकृत गद्य की श्रेणी में रखना पड़ेगा।
रघुनाथ रूपक के रचयिता मन्छाराम के अनुसार दवावैत के दो भेद- शुद्धबंध तथा गद्यबंध हैं-
तवै मंछ कवि तिके, दवावैत विध दोय।
एक सुद्धबंध होत है, एक गद्दबंध होय।
शुद्धबंध को पद्यबंध भी कहा जाता है। इसमें अनुप्रास मिलाया जाता है जबकि गद्दबंध में अनुप्रास नहीं मिलाया जाता। रघुवर जसप्रकाश में किसाना आढ़ा ने दवावैत के सम्बन्ध में लिखा है-
दवावैत फिर बात दख, जुगत वचनका जांण।
औछ अधक तुक असम अे, बीदग गद्य बखांण।
अर्थात् यह ‘असम तुक प्रधान’ रचना-शैली है। जबकि रघुनाथ रूपक में सम और असम दोनों प्रकार के तुकों की व्यवस्था है और उसमें लयात्मकता को भी महत्व दिया गया है। युद्ध वर्णन, विवाह वर्णन, संयोग एवं वियोग, नगर वर्णन आदि प्रसंगों के लिये दवावैत का प्रयोग किया गया।
अनेक ख्यातों और बातों में भी दवावैत छन्द का प्रयोग किया गया किंतु कुछ रचनाएं केवल दवावैत छन्द पर ही आधारित करके लिखी गईं। दवावैत विधा की ऐसी रचनाएं अत्यंत सीमित संख्या में प्राप्त हुई हैं। कुछ प्रसिद्ध दवावैत रचनाओं का उल्लेख यहां किया जा रहा है-
महाराजा श्री अजीतसिंहजी री दवावैत
इसकी रचना चारण कवि द्वारकादास दधवाड़िया ने की। यह डिंगल की एक प्रमुख दवावैत रचना है। इसमें कवि ने जोधपुर नरेश महाराजा अजीतसिंह (ई.1707-24) के शौर्य और व्यक्तित्व के साथ उनकी प्रमुख उपलब्धियों का भी वर्णन किया है। उनके दीवानों, प्रमुख सामंतों एवं आश्रित कवियों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
उस काल में मारवाड़ की संस्कृति यथा रहन-सहन, खान-पान, राज्य वैभव, त्यौहार एवं मनोरंजन आदि के साधनों को बहुत अच्छी तरह लिखा गया है। इस ग्रंथ में प्रत्येक वर्णन बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है और यही इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता भी है। महाराजा अजीतसिंह के वैभव का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
हिंदुसथांन का भाग जग्या,
पालणै हींडलै परख्या,
अकबर को सरण रख्या,
तिस तै सरणायी राव साधार,
हंण, राय दातार,
चौगणा राय जूंझार,
अरोड़ा राय रोड़णहार,
अंगजां राय गज्जण, निबळां
राय सथायण सबळां राय भंजणा,
अमजां राज मंजणा,
अकाश राय निसरणी, चुरणी पाताल कुं कुदाला,
खलबक वज्र, अजमाल जसवंत वाला,
सिपाह कुं रिजक, विराह सिर डंका,
दीन पर दयाल के वंकू से वंका,
खटवरन कुं आलंब
खटदरसण कुं पोख पहाडूं पैमाल।
राव अखैराज री दवावैत: मेहडू बिहारीदास री कही-
सिरोही के देवड़ा चौहान शासकों में औरंगजेब के समय में अखैराज (ई.1620-73) प्रसिद्ध शासक हुआ जिसकी उपलब्धियों पर मुंहणोत नैणसी री ख्यात भी कुछ प्रकाश डालती है।
चारण कवि मेहडू बिहारीदास ने राव अखैराज री दवावैत लिखी। इस रचना की एक हस्तलिखित प्रति चौपासनी शोध संस्थान जोधपुर में सुरक्षित है जिसका लिपिकाल वि.सं. 1784 (ई.1728) है। इस रचना में कवि ने अखैराज की गुणग्राहकता का वर्णन अंत्यत ही अतिश्योक्तिपूर्ण ढंग से किया है-
पंडितु के झगड़े कायबु के मसले,
कविराजु पंडितु राजु की गुण गुष्टि,
महर मचकूर मारका हर वषत हमेस होते रहते हैं,
जिस ही ठौड़ जिसका अटकाव होते हैं,
उस ही ठौड़ श्री मुख से आप कहते हैं,
अनेक हास रस के तमासे, तिणू कागत भेद, नट
नाटक चारण भट
गरट थट,
पायकूं के हमले जेठीयूं के दाव,
सो सुर के से संधाव,
पंचम नवाद घड़ी वत रिष अनाघात,
अतीत मेर प्रस्ताव अेसे सपत
सुरं से गुण वांचा, सकोटि तानुं सै संजुगत,
तीन ग्राम सै मिळवाय के, बेबाह, वाजदार
गुणीजण गवीया आसमान उरसै ल्यावते है।
छत्रसिंघ रामसिंघोत री दवावैत: कवि चौथ री कही
जिस समय मुगल सल्तनत के विद्रोही सेनापति सरबुलंदखां ने ई.1730 में महाराजा अभयसिंह (ई.1724-49) पर चढ़ाई की तब अभयसिंह के सामंत छत्रसिंह कूंपावत ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया।
कवि चौथ ने उसकी प्रशंसा में दवावैत की रचना की। इसकी एक प्रति चौपासनी शोध संस्थान जोधपुर में उपलब्ध है जिसका लिपि काल वि.सं.1852 अर्थात् ई.1795 है। उसका एक अंश इस प्रकार से है-
सोबा गुजरात काज राजांन नीबाब जुटा,
बांण गोळां सोग बागीय, केई मर खेत छुटा,
छत्रपति अभैसींघ छत्र कुं हुकम किया,
वीर हाकां डाकां बीच हजारी कुं मार लीया,
सारा सीरा के काज धाया,
दीली में इतबार आया,
महाराजा नै खीलबत फुरमाई,
छत्रसिंघ का कुरब सवाया,
राठौड़ां में जस पाया।
रूपग दवावैत कंवर श्री नारकरणजी रौ: सांदू भोपालदान कही
इस कृति का नायक नाहरकरण पंवार जोधपुर नरेश तख्तसिंह (ई.1843-73) के राज्य में प्रभावशाली सामंत था। कवि भोपालदान मारवाड़ के किसी जागीरदार के साथ अशिष्ट व्यवहार करने के कारण संकट में पड़ गया तब नाहरकरण पंवार ने भोपालदान की सहायता की। इससे प्रसन्न होकर कवि ने नाहरकरण की प्रशंसा में इस दवावैत की रचना की। इसका एक अंश इस प्रकार है-
नवकोटि मारवाड़ चवधा चाल, ढूंढाड़,
दोय राजूं में मांनैता नाहर भड़ किंवाड़,
जिसका नांव सूं हिरण खोड़ा हुय चल्लै,
उसका हुकम लोपै सौ तो गरद में भी मिल्लै,
नाहर का फुरमांण सिर पर चाड़ै जिसकूं
सूंपै सोनै हाथ धुवाड़ै,
छोटे से बड़ा कर राजपदवी करावै,
तालका फौजदार मुसायबी दिरावै,
षट दरसण खैरायत कूं नवा सांसण उदक देवै,
ऐसा सुकत का बेड़ा तो नाहर ही खेवै।
दवावैत रचनाओं के सम्बन्ध में कुछ बातें ध्यान देने वाली हैं। जोधपुर, बीकानेर, बूंदी, जयपुर आदि राज्यों के राज्याधिकारी एवं उनके कवि निरंतर मुगलों के सम्पर्क में रहे किंतु दवावैत रचनाएं प्रायः मारवाड़ के चारण कवियों ने ही लिखीं। यह भी आश्चर्यजनक तथ्य है कि अब तक जितनी दवावैत रचनाएं मिली हैं, वे औरंगजेब कालीन अथवा उसकी मृत्यु के बाद की हैं।
इन रचनाओं में अरबी, फारसी के शब्दों का खुलकर प्रयोग हुआ है। इन रचनाओं का ऐतिहासिक महत्व कम ही है किंतु तत्कालीन सांस्कृतिक ताने-बाने को स्पष्ट करने में ये रचनाएं अत्यंत सफल हैं। पढ़ने में ये रचनाएं अधिक रसोद्रेक नहीं करती हैं किंतु किसी पारंगत डिंगल कवि के मुख से डिंगल काव्य शैली में इनका वाचन सुनना अत्यधिक आनंददायक है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता