महाराणा प्रताप कालीन हस्तलिखितग्रंथ बहुत कम संख्या में प्राप्त होते हैं। इनके सम्बन्ध में कोई समग्र अध्ययन भी नहीं किया गया है। इस कारण महाराणा प्रताप का अधिकांश इतिहास ख्यातों एवं भाटों की बहियों के आधार पर तैयार किया गया है।
महाराणा का इतिहास तैयार करने में मुगल लेखकों द्वारा लिखित फारसी तवारीखों से भी सहायता मिलती है किंतु फारसी तवारीखों ने बादशाह की विजयों एवं महाराणा प्रताप की पराजयों के उल्लेख अत्यधिक मिथ्या तथ्यों के साथ किए हैं।
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर में सुरक्षित हस्तलिखित ग्रन्थ क्रमांक 35464 कब और किसने लिखा, इसके सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती किंतु इस ग्रंथ की भाषा, विषय वस्तु एवं विवरण आदि से अनुमान होता है कि यह ग्रंथ महाराणा प्रताप कालीन है। इस हस्तलिखित ग्रन्थ में महाराणा प्रताप के इतिहास पर विश्वसनीय प्रकाश डालते हैं।
अज्ञात लेखक के इस हस्तलिखित ग्रंथ में हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप के पक्ष में मुगल सेना से युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करने वाले सामंतों की एक संक्षिप्त सूची भी दी गई है। इस ग्रन्थ में उल्लेख है कि ग्वालियर के रामशाह महाराणा प्रताप से रुपए 800.00 (आठ सौ रुपये) रोकड़ प्रतिदिन प्राप्त करते थे। रामशाह के साथ निश्चित संख्या में सैनिक थे, जिनके व्यय हेतु उक्त द्रव्य उन्हें प्रतिदिन प्राप्त होता था। इस उल्लेख से महाराणा प्रताप की सम्पन्नता भी प्रकट होती है। हल्दीघाटी युद्ध विषयक उल्लेख इस प्रकार है-
‘राजा रामशाह तुंअर, गुआलेर रो धरणी महाराणाजी श्री प्रतापसिंह जी कने था। सो विषामाहे रुपईया 800 रोज 1 रोकड़ पावना। हल्दी री घाटी बेढ़ 1 तठे काम आया। सं. 1632 श्रावण वदि 7 राणो प्रतापसिंघजी कछवाहों मोउसिंह सुं वेढ़ तिण माहे काम आया। सोनिगरो मोनसिंघ अर्षराजोत 1, राठौड़ रामदास जैतमालोत 2, राजा रामशाह ग्वालोर रो धणी 3, डोडियो भीम साडावंत 4, पडिहार सेढू 5 सादू रामो घरमावत 6।’
विचारणीय है कि हल्दीघाटी युद्ध का समय प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थों में विक्रमी संवत् 1633 द्वितीय ज्येष्ठ शुक्ला 2 दिया गया है जबकि इस हस्तलिखित ग्रंथ में हल्दीघाटी का युद्ध विक्रमी संवत 1632 श्रावण कृष्णा 7 को होना लिखा है।
महाराणा प्रताप में हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् कठिनाई में अहमदानगर (संभवतः अहमदाबाद) के मुस्लिम शासक से सहायता प्राप्त करने का विचार किया, किन्तु महाराणा के मन्त्री भामाशाह ने इतने धन की व्यवस्था की जिससे बारह वर्ष तक पांच हजार घुड़सवार सेना का व्यय चलाया जा सकता था। इस विषय में उक्त ग्रन्थ में इस प्रकार उल्लेख किया गया है-
‘राणाजी श्री प्रतापसींघजी नो विषामाहे पाति साहजी री फौजा जोर दबाया। षवण नो क्युं ही पहुंचे नहीं। तद दीवाण जी कहयो। हुं अहमदानगर रे पातिसाह तीरे जासा। तरे सा भामे कहयो। वारा वरस तांई पांच हजार घोड़ा नो तेल ने षवाण ताई चाहीजसी। सो हुं दावे ही तठा सुदेसु। दीवाण इसी मत विचारो।’
महाराणा प्रताप के प्रसिद्ध दिवेर युद्ध के विषय में निम्नलिखित उल्लेख है-
‘पछे रांगो प्रतापसींघजी इणे मगरे आया। सुर तांग चकतो पातिमाह रो भाई गांम देवेर रे थाणे थो। सो रांगाजी पर आयो। उठे वेढ़ हुई। तठे राणांजी रा साथ री गोली सुरतारण चकतो रे लागी। रांणाजी लड़ाई जीती। बीजी तरफ सहबाजखान कांबो थो। सो पण न्हासे गयो। राणाजी रे धरती वली।’
कर्नल जेम्स टॉड ने दिवेर रणभूमि की तुलना यूनान के प्रसिद्ध रणक्षेत्र मेरेथान से की है। ई.पू.490 के मेरेथान युद्ध में मुट्ठी भर यूनानियों ने ईरानियों की विशाल सेना पर विजय प्राप्त की थी ओर उन्हें यूनान से बाहर निकाल दिया था।
अज्ञात लेखक के इस हस्तलिखित ग्रंथ के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म विक्रमी संवत् 1596 में हुआ और महाराणा प्रताप ने विक्रमी संवत् 1657 में मालपुरा लूटा-
‘संवत् 1596 रा जेठ सुदी 3 रांगाजी श्री प्रतापसींघजी रो जन्म। सं. 1657 रा चेत माहे रांणे प्रतापसींघजी मालपुरो मारयो। सं 1657 दिन 3 लूट्यो।’
इतिहासकारों ने महाराणा प्रताप का जन्म विक्रमी संवत् 1598 ज्येष्ठ शुक्ला 3 को और देहान्त विक्रमी संवत् 1653 में माघ शुक्ला 11 को होना स्वीकार किया है।
इस प्रकार इस हस्तलिखित ग्रंथ की तिथियां महाराणा प्रताप के सम्बन्ध में अन्य ग्रंथों में मिलने वाली तिथियों से थोड़ी अलग हैं।
इस हस्तलिखित ग्रंथ में महाराणा प्रताप के मृत्युकाल के विषय में कोई उल्लेख नहीं है। इस ग्रन्थ में लेखनकाल भी उपलब्ध नहीं है किन्तु संभव है कि इस ग्रन्थ का लेखक महाराणा प्रताप का समकालीन हो। इस कारण इस ग्रंथ में महाराणा प्रताप के निधन की तिथि नहीं दी गई है।