चित्तौड़गढ़ से 110 किलोमीटर दूर ब्रह्माणी तथा चम्बल नदियों के संगम पर अरावली पर्वतमाला में एक ऊंची चट्टान पर भैंसरोड़गढ़ दुर्ग के अवशेष बिखरे पड़े हैं। यह पहाड़ी एक विशाल पर्वतीय खोह अथवा घाटी के बीच स्थित है तथा दुर्ग इस पहाड़ी के अंतिम छोर पर बना हुआ है।
दुर्ग की श्रेणी
यह पहाड़ी वर्ष भर तीन ओर से पानी से घिरी रहती है। नदियों से घिरा हुआ होने के कारण यह दुर्ग, औदुक दुर्ग की श्रेणी में तथा पर्वतों के बीच स्थित होने के कारण गिरि दुर्ग की श्रेणी में आता है।
दुर्ग के निर्माता
भैंसरोड़गढ़ दुर्ग कब एवं किसने बनवाया, इसके बारे में बताना कठिन है। मान्यता है कि दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व में इस दुर्ग का निर्माण हुआ। उस काल में यह दुर्ग किसके अधीन था, कहा नहीं जा सकता।
दुर्ग का इतिहास
कर्नल टॉड के अनुसार भैंसरोड़गढ़ का नाम भैंसाशाह नामक व्यापारी तथा रोड़ा नाम के बंजारा के नाम पर पड़ा। उन्होंने इस दुर्ग का निर्माण अपने व्यापारी काफिलों को वर्षाकाल में पहाड़ी लुटेरों से बचाने के लिये करवाया। यह सेठ सांभर तथा अजमेर के चौहानों की राजकीय सेवा में था। अनुमान किया जा सकता है कि भैंसाशाह ने पहले से ही स्थित प्राचीन दुर्ग का जीर्णोद्धार करके उसे व्यापारी काफिलों के लिये सराय के रूप में उपयोग करने योग्य बनाया होगा।
कालांतर में यह पुनः राजाओं द्वारा उपयोग लिया जाने लगा होगा। परमारों की डोड शाखा ने इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया। परमारों के बाद चौहान, राठौड़, शक्तावत और चूण्डावत भी इस दुर्ग के स्वामी रहे। कुछ समय के लिये यह दुर्ग चौहानों की हाड़ा शाखा के अधीन हुआ किंतु बाद में मेवाड़ के अधीन हो गया।
टॉड के अनुसार अल्लाऊद्दीन खिलजी ने इस दुर्ग पर आक्रमण किया तथा दुर्ग पर अधिकार जमाने के बाद दुर्ग में स्थित समस्त देवमंदिर एवं प्राचीन निर्माण तुड़वा दिये। इस कारण दुर्ग में कोई भी प्राचीन निर्माण नहीं बचा। अठाराहवीं शताब्दी में मराठों ने भी इस दुर्ग पर आक्रमण किया किंतु स्थानीय भीलों एवं मीणों की सहायता से मराठों को खदेड़ दिया गया।